सेमिनार : आचार्य सत्यश्रयानंद अवधूत ने—आध्यात्मिक साधना में मानवीय प्रगति व प्रत्याहार योग के हैं चार चरण 

आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के तत्वावधान में चास प्रभात कॉलोनी स्थित आनंद मार्ग जागृति में दो दिनों से चल रहे सेमिनार का समापन रविवार को हुआ। आनन्द मार्ग के वरिष्ठ प्रशिक्षक सह केंद्रीय धर्म प्रचार सचिव आचार्य सत्यश्रयानंद अवधूत ने “साधना की चार अवस्थाये” विषय पर प्रवचन में कहा कि आध्यात्मिक साधना में मानवीय प्रगति एवं प्रत्याहार योग के चार चरण हैं-यतमान, व्यतिरेक, एकेन्द्रिय एवं वशीकार। एक साधक को क्रम से इन चार अवस्थाओं से गुजरते हुए आगे बढ़ना होता है। प्रथम अवस्था अर्थात यतमान में मानसिक वृत्तियां चित्त की ओर उन्मुख होती है। साधना के इस प्रयास में नकारात्मक प्रभावों या वृतियों को नियंत्रित करने का प्रयास होता है। इसमें आंतरिक एवं बाह्य बाधायें या कठिनाइयां अष्ट पाश और षड रिपु के रूप में आती है। अष्टपास है- लज्जा, भय, घृणा, शका, कुल शील, मान और युगुप्सा। षडरिपु हैं- काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य व साधक इनके विरुद्ध संघर्ष करते हुए इन पर विजय पाने की चेष्टा करता है और वृत्ति प्रवाह से अपने को हटा लेने का सतत प्रयास करता है। इसके बाद दूसरी अवस्था आती है- व्यतिरेक की। व्यतिरेक में साधक की वृत्तियां मन के चित्त से अहम तत्व की और उन्मुख होती है। इसमें कभी प्रत्याहार होता है, कभी नहीं होता। आन्तरिक एवं बाह्य शत्रुओं पर आंशिक नियंत्रण हो जाता है, तो कभी वह उनसे हार जाता है। किसी वृत्ति विशेष पर नियंत्रण होता है तो किसी वृत्ति पर नियंत्रण नहीं होता। कुछ वृत्तियाँ एक समय में नियंत्रित होती है तो दूसरे समय में अनियंत्रित हो जाती है। अतः इस अवस्था में साधक को परमपुरुष की कृपा एवं प्रेरणा अनिवार्य हो जाती है, साथ ही एक दृढ संकल्प (firm de teaminatem) की जरूरत भी पड़ती है। अब तीसरी अवस्था *एकेन्द्रिय* में वृत्तियां मन के अहम तत्व से महत तत्व की ओर उन्मुख हो जाती है। सर्व वृत्ति विषय प्रत्याहृत हो एक भाव में स्थित होता है और साधक को इस अवस्था में विभूति या ऐश्वर्य (Ocult Power) की प्राप्ति होती है। ऐश्वर्य मिलने से उसका दुरूपयोग होने की संभावना रहती है और अगर उनका दुरूपयोग होता है तो वह आध्यात्म साधना में बाधा स्वरूप है। इस प्रकार इस एकेंद्रीय अवस्था में कुछ वृत्तियों एवं इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण या विजय प्राप्त हो जाता है- तो कुछ से वह हार भी जाता है। वृत्ति समूह का स्थायी भाव से नियंत्रण नहीं हो पाता अर्थात् अष्टपाश एवं षड रिपु पूर्ण रूप से नियंत्रित नहीं होते। अब चौथी अवस्था *वसीकार* में सभी वृत्तियां सम्पूर्ण रूप से महततत्व से मूल परम सत्ता की ओर उन्मुख होती है और तब साधक की स्वभाव एवं स्वरूप में प्रतिष्ठा हो जाती है। अष्ट पाश और षड‌रिपु पूर्णतः वश में हो जाते हैं। षड्चक्र एवं षट्लोक सम्पूर्ण भाव से वशीभूत हो जाते हैं, सभी इन्द्रियाँ पूर्ण रूप से नियंत्रित हो जाती हैं। मन आत्म के पूर्ण नियंत्रण में रहता है। वशीकार अवस्था में सर्व वृत्ति पुरुष भाव की अधीनता स्वीकार करती है और उसके निकट समर्पण कर देती हैं और तब वैसी स्थिति में अधोगति की संभावना नहीं रहती है। इसे ही भक्ति मनोविज्ञान में ‘गोपी भाव’ या ‘ कृष्ण शरण’ कहते हैं। इसमें कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है, तथा शाक्त, वैष्णव एवं शैव भाव में प्रतिष्ठा होती है अर्थात् शाक्त में संग्राम, मन के कल्मश के विरुद्ध संग्राम, वैष्णव भाव में भक्ति एवं रस प्रवाह तथा शैव भाव में ज्ञान स्वरूपत्व का भाव रहता है। अर्थात् शैवावस्था का निर्विकल्प समाधि अर्थात् परम पद में शाश्वती स्थिति लाभ करना ही शैवावस्था है। यह ज्ञानस्वरूप का भाव है

यह थे मौजूद:

सेमिनार में मुख्य रूप से आचार्य रमेंद्रानंद अवधूत, आचार्य अनिर्वाण आनंद अवधूत, आचार्य प्रीतिसानंद अवधूत, आचार्य ब्रजप्राण आनंद अवधूत, भुक्ति प्रधान शिव कुमार श्रीवास्तव, रामगोविंद, हरिहरनाथ, रविंद्र कुमार, अभय कुमार मुन्ना, अरुण कुमार, रघुनंदन प्रसाद, डॉ विकास कुमार, रामप्यारे जी, रामवृक्ष सिंह, कृष्ण कुमार पाठक, रामकिंकर मेहता, विकास कुमार श्रीवास्तव, सुभाष कुमार, आनंद देव, सौरभ देव, कमल कुमार, जय गोविंद, सरिता देवी, बबीता पाठक, मीनू देवी, सिंधु देवी, लीला देवी, पूनम प्रसाद, मधु प्रसाद, सरोजिनी देवी सहित अन्य मार्गी मौजूद थे। सेमिनार का समापन कीर्तन, साधना और गुरु पूजा से हुआ। धन्यवाद ज्ञापन भुक्ति प्रधान शिवकुमार श्रीवास्तव ने किया।

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