Uttar Pradesh News: जरुरी है साहेब के सामाजिक परिवर्तन रथ को सही दिशा देना 

Uttar Pradesh News: 2021 के बाद कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित बसपा की पहली रैली ने अतीत के रिकॉर्ड तोड़ दिए. सिर्फ यूपी ही नहीं, दूसरे प्रान्तों के भी बसपाई स्वतःस्फूर्त रूप से अपने साहेब को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए कांशीराम स्मारक स्थल पर उपस्थित हुए थे.  

                                                       लेखक: एचएल दुसाध 

न्यूज इंप्रेशन 

UP: साहेब कांशीराम के निधनोपरांत भारतीय राजनीति पर उनकी छाया दीर्घ से दीर्घतर हुए जा रही है, इसका प्रमाण एक बार फिर उनके 19 वें परिनिर्वाण दिवस पर मिला. उस दिन उनकी प्रयोगस्थली उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बसपा से इतर दूसरे दलों में भी श्रद्धा सुमन अर्पित करने की होड़ मची रही. कांग्रेस पार्टी के प्रदेश मुख्यालय में उनकी 19वीं पुण्यतिथि पर स्मृति सभा आयोजित हुई, जिसमें उनका गुणगान करते हुए प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने कहा कि कांशीराम वंचितों व शोषितों की आवाज बनकर जीवन भर संघर्ष करते रहे. इस अवसर पर बसपा छोड़कर कांग्रेस में आए पूर्व मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने कहा कि डॉ. भीमराव आंबेडकर का दूसरा नाम कांशीराम है. उनकी श्रद्धांजलि सभा का आयोजन सपा मुख्यालय में भी हुआ, जिसमें सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने घोषणा किया कि उनकी सरकार बनने पर गोमती रिवर फ्रंट पर कांशीराम की प्रतिमा के साथ 500 मीटर का एक बढ़िया पार्क बनेगा. इसके साथ ही उन्होंने आरोप लगाया कि मायावती की भाजपा के साथ अंदरूनी सांठगाँठ है. श्रद्धांजलि भाजपा नेताओं ने भी दिया. असीम अरुण ने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा कि कांशीराम ने सामाजिक न्याय की जो नीव रखी उसे आज प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी आगे बढ़ा रहे हैं. उन्होंने बसपा अध्यक्ष मायावती का भी धन्यवाद किया , जिन्होंने स्मारकों के रखरखाव और अच्छे कार्यक्रम सुनिश्चित करने के लिए मोदी व योगी की तारीफ़ की.इस अवसर पर एमएलसी डॉ. लालजी प्रसाद निर्मल ने सपा का चरित्र दलित विरोधी बताते हुए जिलों का नाम नाम हटाये जाने को लेकर अखिलेश यादव को निशाने पर लिया. बहरहाल कांशीराम ने बहुजनों पर कितनी गहरी छाप छोडी, इसका असल प्रमाण ‘कांशीराम स्मारक स्थल’ पर आयोजित बसपा की रिकॉर्डतोड़ रैली में मिला. 

2027 में अकेले चुनाव लड़कर पांचवीं बार सरकार बनायेंगे

2021 के बाद कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित बसपा की पहली रैली ने अतीत के रिकॉर्ड तोड़ दिए. सिर्फ यूपी ही नहीं, दूसरे प्रान्तों के भी बसपाई स्वतःस्फूर्त रूप से अपने साहेब को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए कांशीराम स्मारक स्थल पर उपस्थित हुए थे. यूपी की धरती पर ऐसी अनुशासित और जोश से लबरेज भीड़ अबतक सिर्फ मायावती को ही नसीब होती रही है, जो एक बार फिर हुई. कांशीराम स्मारक स्थल की क्षमता से अधिक उपस्थित भीड़ से उत्साहित मायावती ने प्राय 65 मिनट का भाषण दिया, जिसमें उन्होंने भतीजे आकाश आनंद के हाथों में पार्टी की कमान सौंपने का संदेश देने के साथ बसपा को कमजोर करने की साजिश रचने का आरोप लगाते हुए विरोधियों को निशाने पर लिया. कांग्रेस पर एक बार फिर डॉ. आंबेडकर को सांसद बनने से रोकने का आरोप लगाते उन्होंने कहा कि आपातकाल लगाने वाली कांग्रेस कर रही है संविधान बचाने का नाटक. उन्होंने भाजपा सरकार पर हर वर्ग को परेशान करने का आरोप लगाया, किन्तु स्मारकों के रखरखाव और अच्छे कार्यक्रम सुनिश्चित करने के लिए मोदी और योगी के प्रति प्रति आभार भी जताया. लेकिन उनके निशाने पर सबसे अधिक रहे अखिलेश यादव और उनकी पार्टी सपा ! उन्होंने उनके लिए ‘दोगला’ जैसा कठोर शब्द इस्तेमाल करते हुए कहा, ’जब ये सत्ता में होते हैं ,तो उन्हें न तो पीडीए याद आता है, न ही उससे जुड़े संत, गुरु और महापुरुष. लेकिन जैसे ही वे सत्ता खो देते हैं, उन्हें अचानक हमारे संत, गुरु और महापुरुष याद आने लगते हैं. लोगों को ऐसे दोगले लोगों से बहुत सावधान रहने की जरुरत है.’ उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि 2027 में अकेले चुनाव लड़कर पांचवीं बार सरकार बनायेंगे. जातिवादी मानसिकता के कारण , उच्च जाति के वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं हो पाते . बीएसपी की सरकार बनेगी तो प्रदेश में ही रोजगार मिलेगा और पलायन नहीं करना पड़ेगा.सरकार बनने पर उन्होंने सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय की नीति के तहत हर वर्ग के हित में काम करने और पुरानी व्यवस्था लागू करने का वादा किया! रैली समाप्त होते ही इसे लेकर चर्चा का दौर शुरू गया जो आने वाले कई दिनों तक चल सकता है. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक इस रैली के आयोजन के पीछे बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को लाभ पहुचाने का प्रयास हुआ है तथा वह जिस तरह रैली में भाजपा के प्रति सॉफ्ट दिखीं, उससे वह 2027 में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने की दिशा में अग्रसर हो सकती हैं, ऐसा संकेत मिला है . किन्तु राजनीतिक विश्लेषकों एवं विरोधियों की इन सब बातों को नजरंदाज कर बसपा के बौद्धिक पैरोकार संतुष्ट हैं कि रैली में जुटी रिकॉर्डतोड़ भीड़ से वह नैरेटिव ख़त्म हो गया कि बसपा ख़त्म हो गई, बसपा मैदान में नहीं है! इसमें कोई शक नहीं कि यह रैली बसपा के कार्यकर्ताओं के मनोबल में भारी इजाफा करेंगी, किन्तु इन सब बातों के बावजूद इसमें कोई शक नहीं कि रैली में आए लोगों को भारी निराशा मिली है,ऐसा तमाम राजनीतिक विश्लेषकों और रैली में शामिल ढेरों लोगों का मानना रहा है. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि रैली में ढेरों जरुरी मुद्दों की अनदेखी और योगी की प्रशंसा करके मायावती ने रैली आए अपने समर्थकों तक को सन्न कर दिया. पिछले कई सालों से कमरे में बैठकर ट्विट के जरिये राजनीति कर रहीं बसपा सुप्रीमो बदले हालात में अपने समर्थकों को कोई नया ड्रीम नहीं दे सकीं. जबकि जरुरत इस बात की थी कि नए सिरे से मनुवादियों के बढ़ते वर्चस्व से भयाक्रांत अपने लोगों को इस खतरे से आगाह करते हुए इसके बचाव के उपायों पर प्रकाश डालतीं,पर बिलकुल ही नहीं की, जबकि इसकी खूब जरुरत थी! मनुवादियों के बढ़ते वर्चस्व पर मायावती जी का बोलना इसलिए भी जरुरी था, क्योंकि यही कांशीराम के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होती! काबिले गौर है कि दुनिया के अन्यान्य समाज परिवर्तनकारी महामानवों की भांति साहेब कांशीराम भी सामाजिक परिवर्तन का लक्ष्य लेकर सार्वजानिक जीवन में प्रवेश किये थे. उनसे पूर्व फुले, शाहूजी महाराज, रामासामी पेरियार और खासतौर बाबा साहेब डॉ आंबेडकर के प्रयासों से समाज परिवर्तन की दिशा में वंचितों के लिहाज से महत्वपूर्ण काम हो चुके थे. बावजूद इसके भारतीय सामाज का चित्र कारुणिक ही ही था. 

कांशीराम सामाजिक परिवर्तन की परिकल्पना लेकर आगे बढे

स्वाधीन भारत में भी हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे : ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त अपर कास्ट का शक्ति के स्रोतों-आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- पर एकाधिकार हजारों वर्ष पूर्व की भांति कायम था. ब्राह्मणों की ‘भूदेवता’, क्षत्रियों की जन अरण्य के ‘सिंह’ तो वैश्यों की ‘साहूजी’ के रूप में सामाजिक मर्यादा अटूट थी .15 प्रतिशत से अधिक लोग कोर्ट-कचहरी, , ऑफिस, शहर और शिल्प – व्यवस्था , चिकित्सा और बाजार, फिल्म-मीडिया में अवसर का लाभ उठाने की क्षमता अर्जित नहीं कर पाए थे. इस स्थिति में आमूल बदलाव के लिए ही वह सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में खुद को झोंक दिए. कांशीराम सामाजिक परिवर्तन की जो परिकल्पना लेकर आगे बढे, उसका निर्माण उन्होंने शुद्रातिशूद्र समाज में जन्मे ज्योतिबा फुले , नारायणा गुरु, शाहूजी महाराज , पेरियार और डॉ. आंबेडकर के परिवर्तनकामी परिकल्पनाओं और विचारों के निचोड़ से किया था. उन्होंने अपनी सुविधा अनुसार इनके कुछ विचारों को ग्रहण किया था तो कुछ का परित्याग! उन्होंने देश के चप्पे–चप्पे पर घूमकर जाना था क्या है इस समाज की अपरिवर्तनशीलता का कारण और कैसे बनाया जा सकता है परिवर्तन के रथ-चक्र को गतिमान ! उन्होंने अघोषित रूप से मार्क्स के वर्ग संघर्ष से प्रेरणा लेकर सामाजिक परिवर्तन के लिए सदियों के जन्मजात शोषकों के खिलाफ संघर्ष चलाने की सुचिन्तित परिकल्पना के तहत भारतीय सामाज को दो भागों में बांटा. एक वर्ण-व्यवस्था का सुविधाभोगी वर्ग, मनुवादी और दूसरा वर्ण- व्यवस्था के शोषित- वंचित: बहुजन ! शक्ति के स्रोतों पर मनुवादियों के वर्चस्व को ध्वस्त कर समतामूलक समाज निर्माण करना ही साहेब कांशीराम का मिशन रहा. इसलिए ही वह बार–बार कहते रहे सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक रूपांतरण ही हमारा लक्ष्य है. इसी लक्ष्य को साधने के लिए ही उन्होंने शोषितों के सक्षम लोगों को ‘पे बैक टु द सोसाइटी’ के मंत्र  से दीक्षित किया; इस हेतू ही उन्होंने ‘वोट हमारा,राज तुम्हारा नहीं चलेगा’; ‘तिलक तराजू और तलवार..’तथा ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ का नारा उछाला : सर्वोपरि इसी मकसद से उन्हों ने ‘जाति चेतना के राजनीतिकरण’ का अभियान चलाया.‘ सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के दौरान उन्होंने मनुवाद और मनुवादी शब्द का इतना इस्तेमाल किया कि ये दो शब्द राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आ गए! उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उनकी नज़रों में मनुवाद और मनुवादी ही सामाजिक परिवर्तन की राह में सबसे बड़ी बाधा थे.कैसे बाधा थे इसे जानने के लिए विस्तार से इनका अर्थ जानना होगा ! जहाँ तक मनुवाद का प्रश्न है, यह ‘मनुस्मृति’ नामक प्राचीन ग्रंथ पर आधारित एक राजनीतिक और सामाजिक दर्शन है. इसमें भिन्न-भिन्न जाति/ वर्णों के अधिकार और कर्तव्य निर्दिष्ट किये गए हैं. मनुवाद में विश्वास करने वालों को ही मनुवादी कहा जाता है. मनुवादी, मनुस्मृति पर आधारित राजनीतिक दर्शन के समर्थक होते हैं. वे वेदों के अनुरूप और मानवीय कर्तव्यों पर ज़ोर देने वाली एक व्यवस्था में विश्वास रखते हैं, जिसे कुछ लोग समाज के संचालन के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण मानते हैं. हालांकि, इस शब्द का उपयोग अक्सर उन लोगों के संदर्भ में किया जाता है जो जातिगत पदानुक्रम और सामाजिक भेदभाव जैसी मान्यताओं का समर्थन करते हैं. आमतौर पर, ‘मनुवादी’ शब्द का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो जाति व्यवस्था, ऊँच-नीच और महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण विचारों को बढ़ावा देते हैं. मूलतः हिन्दू धर्माधारित व्यवस्था के पोषक व विश्वासी ही मनुवादी कहलाते है. बहुत से लोगों की धारणा है कि मनुवाद, हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद में अंतर है. नहीं,कुछ अंतर दिखने के बावजूद भी इनमे मौलिक प्रभेद नहीं है. मनुवाद मनुस्मृति पर आधारित एक राजनीतिक दर्शन है जो जाति-आधारित सामाजिक व्यवस्था का समर्थन करता है; ब्राह्मणवाद वैदिक धर्म और कर्मकांड पर आधारित वह विचारधारा है जो ब्राह्मणों को विशेष दर्जा देती है, और इसे ऐतिहासिक रूप से हिंदू धर्म से जोड़ा गया है, जबकि हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जो हिंदू पहचान पर केंद्रित है और इसमें ब्राह्मणवादी और गैर-ब्राह्मणवादी परंपराएं शामिल हो सकती हैं! किन्तु पूर्व पंक्तियों में कहा गया है कि इनमे मौलिक प्रभेद नहीं है! सच में मौलिक प्रभेद इसलिए नहीं है क्योंकि तीनों ही हिन्दू धर्म का प्राणाधार उस वर्ण – व्यवस्था के पोषक हैं, जो मूलतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था के रूप में क्रियाशील रही. हजारों साल से कर्म आधारित जिस वर्ण व्यवस्था के द्वारा भारत समाज परिचालित होता रहा है, उस वर्ण- व्यवस्था में दलित , आदिवासी , पिछड़ों और महिलाओं के लिए शक्ति के स्रोतों का भोग पूरी तरह अधर्म घोषित रहा ! शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत होने के कारण ही इन्हें लिखने-पढने, राजनीति में भाग लेने, व्यवसाय-वाणिज्यादि के साथ अध्यात्मानुशीलन का कोई अवसर नहीं रहा. इनकी स्थिति में बदलाव लाने के लिए ही ज्योतिबा फुले, शाहू जी महाराज, रामासामी पेरियार, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने अपने-अपने स्तर पर संग्राम चलाया. उन्हीं का अनुसरण करते हुए साहेब कांशीराम ने सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन चलाया और जिसकी जितनी संख्या भारी का नारा उछाला, ताकि मनुवादी व्यवस्था के जन्मजात वंचितों को शक्ति के स्रोतों में उनके संख्यानुपात में हिस्सेदारी दिलाई जा सके!

अल्पसंख्यक आतंक के साए में जीने के लिए विवश है

लेकिन आज भारत की सबसे बड़ी मनुवादी पार्टी भाजपा ने फुले, शाहूजी, पेरियार बाबा साहेब इत्यादि बहुजन महापुरुषों से लगाए साहेब कांशीराम के सामाजिक परिवर्तन आन्दोलन को लगभग व्यर्थ कर दिया है. चूँकि मनुवादी व्यवस्था में दलित, आदिवासी ,पिछड़ों इत्यादि का शक्ति के स्रोतों का भोग अधर्म रहा इसलिए मनुवादी भाजपा ने उन सभी संस्थाओं को अंधाधुन बेचने में सर्वशक्ति लगाया है, जहाँ जॉब पाकर बहुजन अधर्म की सृष्टि करते रहे.आज मनुवादी भाजपा सरकार की नीतियों से अपर कास्ट शक्ति के समस्त स्रोतों पर 80-90% कब्जा हो गया है और लगता है भारत में सामाजिक परिवर्तन का चक्का विपरीत दिशा में घूमते हुए प्राचीन भारत में चला गया है. इस दौर में मनुवाद नंगा नाच रहा है और शुद्रातिशूद्र सहित अल्पसंख्यक आतंक के साए में जीने के लिए विवश है. मनुवाद का कहर पिछले एक सप्ताह में सबसे अधिक दलितों पर टूटा है. इस क्रम बसपा की रैली के तीन दिन दिन पूर्व सुप्रीम कोर्ट की भरी अदालत में जस्टिस गवई पर जूते से वार; रायबरेली में दलित हरिओम की पीट-पीट कर हत्या और हरियाणा के आईपीएस अधिकारी वाई पूरन कुमार को उच्च जाति के अधिकारियों द्वारा आत्महत्या के लिए बाध्य किये जाने जैसी घटनाएँ सामने आईं! मनुवाद के इस खौफनाक दौर में लखनऊ रैली में आए लोग इन घटनाओं पर मायावती जी मुख से कुछ सुनना चाहते थे, पर, उन्होंने इसकी जरुरत नहीं समझीं. जरुरत इस बात की भी थी कि जिस तरह मनुवादी मोदी सरकार ने मान्यवर के सामाजिक परिवर्तन का रथ- चक्र प्राचीन भारत की और मोड़ दिया है, उसे कैसे सही दिशा दिया जाय, इस वह मार्गदर्शन करतीं,पर इसकी भी जरुरत उन्होंने महसूस नहीं की. इसलिए रैली आए लोग अपनी पार्टी द्वारा प्रचंड शक्ति प्रदर्शन से खुश होने बावजूद निराश होकर लौटे! बहरहाल कांशीरामवादी अगर अपने साहेब को सच्ची श्रद्धांजलि देना चाहते तो उन्हें उनके उस सामाजिक परिवर्तन के रथ को सही दिशा देना होगा, जिसे मनुवादियों ने प्राचीनं युगीन दिशां में मोड़ दिया है. साहेब के परिवर्तन के रथ को सही दिशा देने के लिए शक्ति के स्रोतों में उनका भागीदारी दर्शन – जिसकी जितनी संख्या भारी- उसकी उतनी भागीदारी लागू करवाने का अक्लांत संग्राम छेड़ना होगा. इसके लिए समस्त आर्थिक गतिविधियों (सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों के साथ सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी , पार्किंग- परिवहन सहित विज्ञापन निधि इत्यादि); छोटे-बड़े तमाम शिक्षण संस्थानों के प्रवेश, टीचिंग और मैनेजमेंट स्टाफ; मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति; ग्राम पंचायत व शहरी निकाय , संसद – विधानसभा- राज्यसभा की सीटों सहित विभिन्न मंत्रालयों के कार्यबल में मान्यवर कांशीराम का भागीदारी सिद्धांत लागू करवाने का अविराम अभियान छेड़ना होगा. 

 (लेखक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस(ओबीसी विभाग)के एडवाइजरी कमेटी के सदस्य हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *