Republic Day Special Report : आंबेडकर के सपनों का समतामूलक भारत निर्माण की उम्मीदें, अब राहुल गांधी पर

Republic Day Special Report : दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के रूप चिन्हित भारत विश्व के सबसे असमान देशों में से एक है. ऐसी असमानता शायद ही कहीं और हो. किसी भी डेमोक्रेटिक कंट्री में परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न तथा वंचित तबकों के मध्य आर्थिक- राजनीतिक शैक्षिक-धार्मिक और सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में अवसरों के बटवारे में भारत जैसी असमानता नहीं है. इस असमानता ने देश को ‘अतुल्य’ और ‘बहुजन’-भारत में बांटकर रख दिया है,

 

लेखक : एचएल दुसाध
(डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ इंडिया के रूप में मशहूर ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ के संस्थापक अध्यक्ष)

न्यूज इंप्रेशन

Delhi : दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के रूप चिन्हित भारत विश्व के सबसे असमान देशों में से एक है. ऐसी असमानता शायद ही कहीं और हो. किसी भी डेमोक्रेटिक कंट्री में परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न तथा वंचित तबकों के मध्य आर्थिक- राजनीतिक शैक्षिक-धार्मिक और सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में अवसरों के बटवारे में भारत जैसी असमानता नहीं है. इस असमानता ने देश को ‘अतुल्य’ और ‘बहुजन’-भारत में बांटकर रख दिया है, वर्षों से अर्थशास्त्रियों द्वारा किया जा रहा इस किस्म का दावा एक बार फिर अप्रिय सचाई बनकर सामने आया है. दो वर्ष लुकास चांसल द्वारा लिखित और चर्चित अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटि, इमैनुएल सेज और गैब्रियल जुकमैन द्वारा समन्वित जो ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022’ प्रकाशित हुई है, उसमें फिर भारत में वह भयावह असमानता सामने आई, जिससे उबरने की चेतावनी बड़े-बड़े अर्थशास्त्री वर्षों से देते रहे हैं. रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक है, जहाँ एक ओर गरीबी बढ़ रही है तो दूसरी ओर एक समृद्ध अभिजात वर्ग और ऊपर हो रहा है. रिपोर्ट के मुताबिक भारत के शीर्ष 10 फीसदी अमीर लोगों की आय 57 फीसदी है, जबकि शीर्ष 1 प्रतिशत अमीर देश की कुल कमाई में 22 फीसदी हिस्सा रखते हैं. इसके विपरीत नीचे के 50 फीसदी लोगों की कुल आय का योगदान घटकर महज 13 फ़ीसदी पर रह गया है. रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष 10 फीसदी व्यस्क औसतन 11,66,520 रूपये कमाते हैं. यह आंकड़ा नीचे की 50 फीसदी वार्षिक आय से 20 गुना अधिक है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में एक परिवार के पास औसतन 9,83,010 रूपये की संपत्ति है, लेकिन नीचे के 50 प्रतिशत से अधिक की औसत संपत्ति लगभग नगण्य या 66,280 रूपये या भारतीय औसत का सिर्फ 6 प्रतिशत है. जो बात विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 में उभर कर आई है, वहीं बात पिछले कई सालों से ऑक्सफ़ाम की रिपोर्ट में कही जाती रही है. ऑक्सफाम के 2019 की रिपोर्ट में कहा गया था कि टॉप की 10 फीसदी आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 77.4 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि नीचे की 60 प्रतिशत आबादी के पास नेशनल वेल्थ का सिर्फ 4.8 फीसद हिस्सा है. इसी तरह ऑक्सफाम की 2020 के रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय संपत्ति में नीचे की 50 प्रतिशत आबादी का हिस्सा मात्र 6 प्रतिशत रहा.

आर्थिक और सामाजिक विषमता का सर्वाधिक शिकारः आधी आबादी!

आर्थिक और सामाजिक विषमता का सर्वाधिक दुष्परिणाम जिस तबके को भोगना पड़ रहा है, वह है भारत की आधी आबादी! वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा 2006 से हर वर्ष जो ‘वैश्विक लैंगिक अन्तराल रिपोर्ट’ प्रकाशित हो रही है, उसमें साफ़ पता चलता है कि भारत में महिलाओं की स्थिति करुण से करुणतर हुए जा रही है. इसमें आर्थिक भागीदारी और अवसर, शिक्षा का अवसर, राजनीतिक भागीदारी स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता : 4 आधारों पर लैंगिक समानता का मूल्यांकन किया जाता है. इसकी 2021 में जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, उसमें 156 देशों में भारत का स्थान 140वें पर रहा. रिपोर्ट के मुताबिक लैंगिक समानता के मोर्चे भारत बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, चीन से पीछे रहा. वैश्विक लैंगिक अन्तराल 2022 के मुताबिक़ भारत 146 देशों में 135 वें स्थान पर रहा, जबकि 2020 में 153 देशों में 112 वें स्थान पर रहा, जो इस बात का संकेतक है कि लैंगिक समानता के मोर्चे पर भारत की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. इसकी करुणतर स्थिति देखते हुए ‘वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्टः 2020’ में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि भारत में महिलाओं को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लग सकते हैं. अब यदि आधी आबादी को पुरुषों के बराबर समानता पाने में ढाई सौ साल से अधिक लग सकते हैं तो मानना पड़ेगा कि भारत में आर्थिक और सामाजिक विषमता की स्थिति अत्यंत भयावह है.

गरीबी की राजधानी भारत !
दो वर्ष पूर्व भारत को दुनिया के प्रोवरी कैप्टिल अर्थात ‘गरीबी की राजधानी’ का खिताब भी मिल चुका है. ‘बिजिनेस इनसाइडर अफ्रीका’ में छपी खबर के मुताबिक़ अबतक अफ़्रीकी देश नाइजीरिया को दुनिया का पावर्टी कैपिटल माना जाता था, जहाँ सबसे ज्यादा गरीबों की संख्या थी. वर्ल्ड पावर्टी क्लॉक के नए आंकड़े से पता चलता है कि भारत ने नाइजीरिया को पीछे छोड़ दिया है. इससे पता चलता है कि नाइजीरिया में 8,30,05,482 लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं, जबकि भारत में यह संख्या 8,30,68,597 है. दुनिया में गरीब जनता का सबसे ज्यादा प्रतिशत लोग नाइजीरिया के साथ भारत में हैं, जिनका प्रतिशत 12.2 है. इस स्थिति से भारत को पार पाने के लिए प्रति दो सेकेण्ड में पांच लोगों को गरीबी रेखा से बाहर लाने की जरुरत है, जबकि यह रफ़्तार प्रति सेकेण्ड एक व्यक्ति है, जो साबित करता है कि गरीबी से लड़ने के मोर्चे पर भारत बहुत बुरी तरह पिछड़ता जा रहा है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2021 में भारत का रैंक 116 देशों मे 101 है जो 2020 में 94 था. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2021 के अनुसार भारत का स्कोर 27. 5 है, जो बहुत ही ख़राब स्थिति का संकेतक है. बहरहाल ‘विश्व असमानता’, ‘वैश्विक लैंगिक अन्तराल’ और ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ की हाल के वर्षों की रिपोर्टों ने आँख में अंगुली करके दिखा दिया है कि आर्थिक और सामाजिक विषमता के मामले में भारत की स्थिति बहुत ही ख़राब है जो बद से बदतर होती जा रही हैः सुधार का कोई लक्षण दिख नहीं रहा है. इन रपटों से लोकतंत्र पर गहराते खतरे ने संविधान निर्माता डॉक्टर बी आर आंबेडकर की चेतावनी को फिर एक बार स्मरण करने के लिए विवश कर दिया है.
बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर की चेतावनी!
स्मरण रहे बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर ने संविधान सौंपने के पूर्व 25 नवम्बर, 1949 को राष्ट्र को सतर्क करते हुए एक अतिमूल्यवान सुझाव दिया था. उन्होंने कहा था-’26 जनवरी 1950 को हमलोग एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति के क्षेत्र में हमलोग समानता का भोग करेंगे किन्तु, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में मिलेगी भीषण असमानता. राजनीति के क्षेत्र में हमलोग एक नागरिक को एक वोट एवं प्रत्येक वोट के लिए एक ही मूल्य की नीति को स्वीकृति देने जा रहे हैं.हमलोगों को निकटतम समय के मध्य इस विपरीतता को दूर कर लेना होगा, अन्यथा यह असंगति कायम रही तो असमानता से पीड़ित जनता इस राजनैतिक गणतंत्र की व्यवस्था को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है. ऐसी चेतावनी देने वाले बाबा साहेब ने भी शायद कल्पना नही किया होगा कि भारतीय लोकतंत्र की उम्र छः दशक पूरी होते-होते विषमता से पीड़ित लोगों का एक तबका उसे विस्फोटित करने पर आमादा हो जायेगा. नक्सली 2050 के पहले ही सरकार को उखाड़ फेकेंगे! स्मरण रहे 7 मार्च, 2010 को माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ़ किशन जी ने घोषणा कर दिया था कि‘ हम 2050 के बहुत पहले भारत में तख्ता पलट देंगे. हमारे पास अपनी पूरी फौज है’. उनकी उस घोषणा पर तत्कालीन गृह सचिव जीके पिल्लई ने कह दिया था,’ माओवादी यह स्वप्न देखते रहें, आखिर सपना देखने का अधिकार सबको है!’( दैनिक जागरण, 8 मार्च,2010). 8 मार्च, 2010 को ही इसी खबर को नवभारत टाइम्स ने ‘जो चाहें ख्वाब देखते रहें’ शीर्षक से यूँ प्रकाशित किया था,’ सन 2050 तक भारत सरकार को उखाड़ फेंकने के नक्सलियों के दावे को नजरंदाज़ करते हुए सरकार ने कहा है कि वे ख्वाब देखने के लिए आजाद हैं. नक्सलियों से बात तभी की जाएगी जब वे हिंसा छोड़ेंगे. नक्सली नेता किशन जी के बयान पर कमेन्ट करते हुए तब होम सेक्रेटरी जीके पिल्लई ने कहा था,’ डेमोक्रेसी में सपने देखने का अधिकार सभी को है. सरकार का रुख एकदम साफ़ है. होम मिनिस्टर कह चुके हैं कि नक्सलियों को बातचीत से पहले हिंसा छोड़नी
होगी. उनका बयान मिल जाने के बाद हम बातचीत करेंगे, सरकार के इस रुख में कोई बदलाव नहीं हुआ है. किशनजी ने पिछले दिनों कहा है कि नक्सली 2050 के पहले ही सरकार को उखाड़ फेकेंगे.’ नक्सलवाद की भयावहता को उजागर करते हुए 7 मार्च, 2010 को दैनिक जागरण ने अपनी संपादकीय में लिखा था,’ ध्यान रहे वर्ष 2009 में नक्सलियों ने 900 से अधिक लोगों को मारा है. यह शासन में बैठे लोगों के शुतुरमुर्गी रवैये का प्रमाण है कि नक्सली धीरे-धीरे तालीबान सरीखी ताकत में तब्दील हो रहे हैं. क्या यह सामान्य बात है कि नक्सलियों ने करीब 40 हजार वर्ग किमी इलाके पर कब्ज़ा जमा लिया है और वे अवैध तरीके से 14 सौ करोड़ रूपये सालाना कमाई कर रहे हैं!’ विगत 12 वर्षों में क्या ऐसा कुछ हुआ है जिससे आशावादी हुआ जा सके कि नक्सलवाद के खतरे से देश मुक्त हो गया है!

हमारा शासक वर्ग क्या स्वभावतः लोकतंत्र विरोधी रहा!
बहरहाल यह अप्रिय स्थिति सामने आ चुकी है तो इसलिए कि आजाद भारत के हमारे शासकों ने संविधान निर्माता की सावधानवाणी की पूरी तरह अनदेखी कर दिया.वे स्वभावतः लोकतंत्र विरोधी थे. अगर लोकतंत्र प्रेमी होते तो केंद्र से लेकर राज्यों तक में काबिज हर सरकारों की कर्मसूचियाँ मुख्यतः आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे पर केन्द्रित होतीं.तब आर्थिक और सामाजिक विषमता का वह भयावह मंजर कतई हमारे सामने नहीं होता जिसके कारण हमारा लोकतंत्र विस्फोटित होने की ओर अग्रसर है. इस लिहाज से देश के उत्थान में असाधारण योगदान करने वाले पंडित नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गाँधी, नरसिंह राव तक भूमिका भी प्रश्नातीत नहीं रही. ज़ब आजादी के बाद भारत के नवनिर्माण अविस्मरनीय योगदान करने वाले कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों की भूमिका प्रश्नातीत नहीं रही तो देश बेचने वाले संघी प्रधानमंत्रियोंः अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी पर कुछ कहना ही व्यर्थ है.अगर इन्होंने डॉ.आंबेडकर की चेतावनी को ध्यान में रखकर आर्थिक और सामाजिक विषमता के त्वरित गति से ख़त्म होने लायक नीतियाँ अख्तियार की होतीं, तब क्या असमानता का वह शर्मनाक और भयावह चित्र सामने आता जो विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 में उभरा है! राजनीति के हमारे महानायकों ने ‘गरीबी-हटाओ’, ’लोकतंत्र बचाओ’, ’भ्रष्टाचार हटाओ’ ’राम मंदिर बनाओ’इत्यादि जैसे आकर्षक नारे देकर महज शानदार तरीके से सत्ता दखल किया, किन्तु उस राज-सत्ता का इस्तेमाल लोकतंत्र के सलामती की दिशा में बुनियादी काम करने में नहीं किया. इनके आभामंडल के सामने भारत में मानव-जाति की सबसे बड़ी समस्या-आर्थिक और सामाजिक विषमता-पूरी तरह उपेक्षित रही. इस देश की वर्णवादी मीडिया और बुद्धिजीवियों को इनकी बड़ी-बड़ी जीतों में लोकतंत्र की जीत दिखाई पड़ी, पर, लोकतंत्र पर गहराता संकट नहीं दिखा. दरअसल इस देश के बुद्धिजीवियों के लिए इतना ही काफी रहा है कि पड़ोस के देशों की भांति भारत में सत्ता परिवर्तन बुलेट, नहीं बैलेट से होता रहा है. सिर्फ इसी बिला पर भारत के लोकतंत्र पर गर्व करनेवालों बुद्धिजीवियों की कमी नहीं रही. बहरहाल हमारे राष्ट्र नायकों से कहां चूक हो गयी जिससे विश्व में सर्वाधिक असमानता का साम्राज्य भारत में व्याप्त हुआ और जिसके कारण ही विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज बेहद संकटग्रस्त हो चुका है!

विषमता की उत्पत्ति के पीछे :शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का असमान प्रतिबिंब
एक तो ऐसा हो सकता है कि गांधीवादी और राष्ट्रवादी विचारधारा से जुड़े स्वाधीन भारत के हमारे तमाम राष्ट्र नायक ही समग्र वर्ग की चेतना से समृद्ध न होने के कारण ऐसी नीतियां ही बनाये जिससे परम्परागत सुविधासंपन्न तबके का वर्चस्व अटूट रहे. दूसरी, यह कि उन्होंने आर्थिक और सामाजिक विषमता की उत्पत्ति के कारणों को ठीक से जाना नहीं, इसलिए निवारण का सम्यक उपाय न कर सके. प्रबल सम्भावना यही दिखती है कि उन्होंने ठीक से उपलब्धि ही नहीं किया कि सदियों से ही सारी दुनिया में आर्थिक और सामाजिक असमानता , जो कि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है, की सृष्टि शक्ति के स्रोतो ं(आर्थिक-राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक) में सामाजिक और लैंगिक विविधता के असमान पतिबिंब के कारण होती रही है. अर्थात लोगों के विभन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- गतिविधियों का असमान बंटवारा कराकर ही सारी दुनिया के शासक असमानता की स्थिति पैदा करते रहे हैं. बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से इसकी सत्योपलब्धि कर ही अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस,आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड इत्यादि जैसे लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व देशों ने अपने-अपने देशों में शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, ज्ञान उद्योग, फिल्म-टीवी-मिडिया इत्यादि हर क्षेत्र ही सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन की नीति पर काम किया और असमानता की समस्या से पार पाया तथा अपने लोकतंत्र को सुदृढ़ किया. पर, उपरोक्त देशों से लोकतंत्र का प्राइमरी पाठ पढने सहित कला-संस्कृति-फैशन-टेक्नोलॉजी इत्यादि सब कुछ ही उधार लेनेवाले हमारे शासकों ने उनकी विविधता नीति (डाइवर्सिटी पॉलिसी) से पूरी तरह परहेज़ किया. किन्तु ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि, आजाद भारत के शासकों से भी विदेशियों की तरह ‘डाइवर्सिटी पॉलिसी’ अख्तियार करने की प्रत्याशा थी, ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है.इस विषय में विपिन चंद्रा-मृदुला मुखर्जी और आदित्य मुखर्जी की‘ आजादी के बाद का भारत’ नामक ग्रन्थ में की गयी यह टिपण्णी काफी महत्वपूर्ण है ‘1947 में देश ने अपने आर्थिक पिछड़ेपन, भयंकर गरीबी, करीब-करीब निरक्षरता,व्यापक तौर पर फैली महामारी, भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लम्बी यात्रा की शुरुआत की थी. 15 अगस्त पहला पड़ाव था, यह उपनिवेशिक राजनीतिक नियंत्रण में पहला विराम थाः शताब्दियों के पिछड़ेपन को अब समाप्त किया जाना था, स्वतंत्रता संघर्ष के वादों को पूरा किया जाना था और जनता की आशाओं पर खरा उतरना था.भारतीय राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना, राष्ट्रीय राजसत्ता को सामाजिक रूपांतरण के उपकरण के रूप में विकसित एवं सुरक्षित रखना
सबसे महत्वपूर्ण काम था. यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय एकता को आंख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए. इसे मजबूत करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत में अत्यधिक क्षेत्रीय, भाषाई,जातीय एवं धार्मिक विविधताएँ मौजूद हैं. भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते एवं जगह देते हुए तथा देश के विभिन्न भागों और लोगों के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ में पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को और मजबूत किया जाना था.’

भारत में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतीकात्मक प्रतिबिंब
इतिहासकारों की उपरोक्त टिपण्णी बताती है कि हमारे शासकों को इस बात का इल्म जरुर था कि राजसत्ता का इस्तेमाल हर क्षेत्र में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन में करना है .यही कारण है उन्होंने किया भी, मगर प्रतीकात्मक. जैसे हाल के वर्षो में हमने लोकतंत्र के मंदिर में अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री, महिला राष्ट्रपति, मुसलमान उप-राष्ट्रपति, दलित लोकसभा स्पीकर, आदिवासी डिप्टी स्पीकर के रूप सामाजिक और लैंगिक विवधता का शानदार नमूना देखा. मोदी राज में रामनाथ कोविंद के बाद द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति पद को सुशोभित करना इसी श्रेणी में आएगा. बहरहाल राज सत्ता की भांति विविधता का यह नमूना ज्ञान, धर्म और अर्थ सत्ता की सभी संस्थाओंः सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग-परिवहन,मिडिया दृफिल्म-टीवी, शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश-अध्यापन, पौरोहित्य इत्यादि में पेश नहीं किया गया. वोट खरीदने के लिए राहत और भीखनुमा घोषणाओं पर निर्भर हमारे राजनीतिक दल हमारे स्वाधीन भारत के शासक स्व-वर्णीय हित के हाथों विवश होकर या आर्थिक-सामाजिक असमानता की सृष्टि के कारणों से अनभिज्ञ रहने के कारण शक्ति के स्रोतों का लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य बंटवारे की सम्यक नीति न ग्रहण कर सके.उन्होंने आर्थिक-सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए भागीदारीमूलक योजनाओं की जगह ‘गरीबी-उन्मूलन’ को प्राथमिकता देते हुए राहत और भीखनुमा योजनाओं पर काम किया जिसकी 80-85 प्रतिशत राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती रही. शासक दलों की शक्ति के स्रोतों के सम्यक बंटवारा-विरोधी नीति के फलस्वरूप बहुसंख्यक समाज इतना अशक्त हुआ कि वह शक्ति के स्रोतों में अपनी हिस्सेदारी की बातें भूलकर विषमता बढानेवाली राहत व भीखनुमा घोषणाओं के पीछे अपना कीमती वोट लुटाने लगा. राजनीतिक दलों ने भी उसकी लाचारी को भांपते हुए लोकलुभावन घोषणायें करने में एक दूसरे से होड़ लगाना शुरू कर दिया.

बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे से मिल सकता है चमत्कारिक परिणाम!
बहरहाल विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 में उभरे असमानता के भयावह चित्र से यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत का शासक वर्ग देश में बढती असमानता से पूरी तरह निर्लिप्त रहने की मानसिकता विकसित कर लिया है. इसलिए समय आ गया है कि लोकतंत्रप्रेमी ताकतें कुछ बड़ा कदम उठाने के लिए आगे बढ़ें. चूँकि यह बात शीशे की तरह साफ़ हो चुकी है कि शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का वाजिब प्रतिबिम्बन न होने अर्थात विविधतामय भारत के प्रमुख समाजों-सवर्ण, ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों- के स्त्री और पुरुषों के मध्य आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक क्षेत्र में सृजित होने वाले अवसरों के असमान बंटवारे से ही असमानता की भयावह स्थिति पैदा हुई है, इसलिए यदि लोकतंत्र की सलामती सहित असमानता- जन्य अन्यान्य खतरों से भारत को बचाना है तो देश के बुद्धिजीवी और एक्टिविस्टो को बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे को लागू करवाने के लिए शासक दलों पर दबाव बनाने का युद्ध स्तर पर अभियान छेड़ना पड़ेगा. 15 मार्च, 2007 को वजूद में आया बीडीएम (बहुजन डाइवर्सिटी मिशन) वंचित वर्गों के लेखकों का संगठन, जिसकी गतिविधियाँ पूरी तरह आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे पर केन्द्रित है. आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए यह संगठन मुख्यतः साहित्य पर निर्भर होकर नौकरियों से आगे बढ़कर अर्थोपार्जन की समस्त गतिविधियों; राजसत्ता की सभी संस्थाओं और ज्ञान तथा धर्म सत्ता में विविध समुदायों के स्त्री-पुरषों के वाजिब बंटवारे की हिमायत करता है. इसके लिए यह निम्न क्षेत्रों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने का वैचारिक अभियान छेड़े हुए है.

1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों अर्थात पौरोहित्य।
2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप।
3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी।
4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग,परिवहन।
5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन,प्रवेश व अध्यापन।
6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों,उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि।
7-देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को दी जानेवाली धनराशि।
8-प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों।
9-रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खाली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो।
10-ग्राम- पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा; राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि में लागू हो सामाजिक और लैंगिक विविधता.

आर्थिक व सामाजिक विषमता के खात्मे लिए विश्व असमानता रिपोर्ट-2022 का सुझाव!
आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए विविधता केन्द्रित बीडीएम का उपरोक्त दस सूत्रीय एजेंडा कितना कारगर है, इसका आंकलन लुकास चांसल द्वारा लिखित ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022’ द्वारा में भारत में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक विषमता की भयावह से पार पाने के लिए सुझाये गए उपायों के अध्ययन से किया जा सकता है. विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 में आर्थिक और सामाजिक विषमता से पार पाने के लिए सर्वाधिक जोर ‘नॉर्डिक इकॉनोमिक मॉडल’ अपनाने पर दिया गया है. इस विषय में रिपोर्ट में कहा गया है कि धन के वर्तमान पुनर्वितरण को अधिक न्यायसंगत बनाने के लिये वर्तमान नव-उदारवादी मॉडल को; नॉर्डिक इकोनॉमिक मॉडल द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है. इस मॉडल में सभी के लिये प्रभावी
कल्याणकारी सुरक्षा, भ्रष्टाचार मुक्त शासन, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा का मौलिक अधिकार, अमीरों के लिये उच्च कराधान आदि शामिल हैं. नॉर्डिक इकॉनोमिक मॉडल के बाद रिपोर्ट में धन के पुनर्वितरण के लिए एक सुझाव अरबपतियों पर एक उपयुक्त/प्रगतिशील संपत्ति कर अधिरोपित करने का दिया गया है. वंचितों के राजनीतिक सशक्तिकरण पर जोर देते हुए कहा गया है कि यह निर्धनता उन्मूलन का पहला प्रमुख घटक है. राजनीतिक सक्षमता वाले लोग बेहतर शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा की माँग कर सकेंगे और इसे प्राप्त कर सकेंगे. यह समाज में व्याप्त संरचनात्मक असमानता और सांप्रदायिक विभाजन को भी मिटाएगा. स्टैंडअप इंडिया की धनराशि में इजाफा कर एससी/एसटी में उद्यमिता को बढ़ावा देना भी इसके महत्वपूर्ण सुझावों में एक है. विषमता के खात्मे के लिए असमानता रिपोर्ट में रोज़गार सृजन और स्वास्थ्य एवं शिक्षा में निवेश को बढ़ावा देकर महिलाओं में उद्यमिता की वृद्धि करने का भी हिदायत दी है. इनके अतिरक्त
सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा लाभ, रोज़गार गारंटी योजनाओं जैसी सार्वजनिक वित्तपोषित उच्च गुणवत्तायुक्त सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित कर असमानता को काफी हद तक कम किया जा सकता है, ऐसा असमानता रिपोर्ट 2022 का कहना है.
नॉर्डिक मॉडल के बजाय बीडीएम का दस सूत्रीय एजेंडा अपनाना क्यों है जरुरी !
बहरहाल भारत से भयावह असमानता के खात्मे के लिए विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 में उपाय बताये गए हैं, उनमें नॉर्डिक इकॉनोमिक मॉडल’ के अतिरिक्त जितने भी उपाय बताएं हैं, सरकारें कमोवेश उनको अमल में लाने का प्रयास करती ही रही हैं, बावजूद इसके यह स्थिति है कि जहाँ नीचे की 50-60 प्रतिशत आबादी औसतन 6 प्रतिशत धन-दौलत पर गुजर-वसर करने के लिए विवश है, वहीँ आधी आबादी को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में ढाई सौ से तीन सौ लगना तय सा दिख रहा है. अब जहाँ तक ‘नॉर्डिक इकॉनोमिक
मॉडल’ को लागू करने का सवाल है, भारत जैसे देश में इसको लागू करना एक सपना ही है. कारण, दुनिया के ढेरों अग्रसर देश, जिनमें अमेरिका भी है नॉर्डिक मॉडल अपनाने में व्यर्थ हो चुके हैं. भारत में यह मॉडल लागू करने में कहाँ है समस्या जरा इसका जायजा लिया जाय! डेनमार्क, फ़िनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, स्वीडेन, ग्रीनलैंड इत्यादि जैसे क्षेत्र मिलकर उत्तरी यूरोप में नॉर्डिक क्षेत्र बनाते हैं. बड़े भूमि क्षेत्र और तुलनात्मक रूप से समरूप आबादी वाले इन देशों को दुनिया के सबसे विकसित देशों में गिना जाता है. ये देश आर्थिक विकास, पर्यावरण और शांति के लिहाज से सर्वाधिक अग्रसर देशों में शुमार किये जाते हैं. इन देशों की अर्थव्यवस्था और शासन का मॉडल, जिसे नॉर्डिक मॉडल’ कहा जाता है, को बड़े पैमाने पर आर्थिक विकास और सामाजिक संतुष्टि के बीच आदर्श संतुलन के रूप में स्वीकार किया जाता है. नॉर्डिक मॉडल एक मिश्रित आर्थिक प्रणाली है जो मुक्त बाजार व्यवस्था को सामाजिक लाभों के साथ मिश्रित करती है. इनकी राजनीति एक वामपंथी दृष्टिकोण की ओर झुकती है, जिसका अर्थ है कि सरकार नॉर्डिक आबादी के मध्य धन और संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करना पसंद करती है. नॉर्डिक देश खुद को समाजवादी कहते हैं और वे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को अपनाते हैं. सरकार अपने नागरिकों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवा, मुफ्त शिक्षा, चाइल्ड केयर, गारंटीड पेंशन जैसी अच्छी गुणवत्ता वाली सेवाएँ प्रदान करती हैं. इस मॉडल में करों के माध्यम से धन-पुनर्वितरण के सरकार के प्रयासों के कारण नागरिक एक दूसरे के साथ आर्थिक जोखिम साझा करते हैं, इसलिए संकट के समय में सभी नागरिक एक समान सीमा तक प्रभावित होते हैं, न
कि एक समूह दूसरे की तुलना में अधिक प्रभावित होता है, जैसा कि अक्सर होता है. एक अन्य कारण जिससे हर कोई नॉर्डिक मॉडल के अपनाये जाने की कामना करता है, वह है प्रशासन में पारदर्शिता का स्तर. मसलन स्वीडिश कानून अपने सभी नागरिकों को सभी आधिकारिक दस्तावेजों तक पहुँच प्रदान करते हैं. सरकार के उच्च स्तर के विश्वास के कारण इन देशों के नागरिक स्वेच्छा से अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा करों और संघी निधियों से समाज में अधिक समृद्धि लाने के लिए योगदान करते हैंः बदले में सरकार इन निधियों का इस्तेमाल मुफ्त प्रशिक्षण,चाइल्ड केयर, मुक्त शिक्षा, पेंशन योजनाओं इत्यादि के लिए आवंटित करने में करती है. बहरहाल एक ड्रीम मॉडल होने के बावजूद बड़े-बड़े विकसित देशों के लिए जब नॉर्डिक मॉडल अपनाना मुश्किल है तो भारत में इसकी कितनी सम्भावना है!क्या भारत के नागरिक स्वेच्छा से अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा समाज में समृद्धि लाने के लिए करों के रूप में दे सकते हैं? क्या यहाँ का जमीन और जनसँख्या का असंतुलित अनुपात इस मॉडल को अपनाने के अनुकूल है? कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रायः पूरी तरह ध्वस्त कर चुकी वर्तमान सरकार क्या अपने नागरिकों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवा, मुफ्त शिक्षा, चाइल्ड केयर, गारंटीड पेंशन जैसी अच्छी गुणवत्ता वाली सेवाएँ प्रदान करने की मानसिकता से पुष्ट है? राष्ट्र की लाभजनक कंपनियों सहित रेल, बस और हवाई अड्डे, अस्पताल और शिक्षण संस्थान इत्यादि सारा कुछ निजी हाथो में देने पर आमादा वर्तमान हिन्दुत्ववादी सरकार में क्या समाजवादी चरित्र रह गया है ? 22 जनवरी , 2024 को राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाह जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने रामराज्य शुरू होने की घोषणा की है, उससे वंचित वर्गों के हित और सामाजिक-आर्थिक विषमता के खात्मे में शायद ही मोदी सरकार से कोई उम्मीद पालेगा. वर्तमान सरकार का चाल-चरित्र देखते हुए ऐसा लगता है कि अभूतपूर्व मजबूती से सत्ता पर काबिज यह सरकार वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए जहां एक ओर राजसता का इस्तेमाल शक्ति के समस्त स्रोत जन्मजात सुविधाभोगी हाथ में देने के लिए कर रही है, वहीँ दूसरी ओर यह सुपरिकल्पित तरीके से वंचित वर्गों को जीविकोपार्जन के समस्त अवसरों से दूर धकेल रही है. सरकार की इन नीतियों से बुरी तरह असमानता का शिकार बना बहुसंख्य वर्ग उस स्टेज में पहुँच गया है, जिस स्टेज में पहुचने पर सारी दुनिया के वंचितों को मुक्ति-संग्राम छेड़ना पड़ा! ऐसे हाल में क्या भारत में व्याप्त बेहिसाब विषमता का शमन करने में नॉर्डिक मॉडल सफल होगा? सारी बातों का उत्तर ‘ना’ है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि नॉर्डिक मॉडल के देशों के कल्याणकारी कार्यक्रम गरीबों पर लक्षित नहीं, बल्कि पूरी आबादी को कवर करने के लिए हैं, जबकि भारत में व्याप्त भीषणतम विषमता से पार पाने के लिए जरुरी है कि सरकारों का कार्यक्रम गरीबों : दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबको के साथ महिलाओं को लक्षित हो! इसके लिए जरुरी है कि हम नॉर्डिक मॉडल का मोह विसर्जित कर अमेरिका और खासतौर से दक्षिण अफ्रीका से प्रेरित बीडीएम के विविधता फार्मूले को अंगीकार करें!
अमेरिका व दक्षिण अफ्रीका के डाइवर्सिटी मॉडल से प्रेरित हैः बीडीएम का दस सूत्रीय एजेंडा!
नॉर्डिक मॉडल की जगह आर्थिक और सामाजिक विषमता से पार पाने के लिए बीडीएम के जिस दस सूत्रीय एजेंडे को अंगीकार करने की बात इस लेख में की जा रही है, उसका असर देश में परिलक्षित हो रहा है. इसके लिए इस संगठन की ओर से नौकरियों से आगे बढ़कर अर्थोपार्जन की समस्त गतिविधियों; राजसत्ता की सभी संस्थाओं और ज्ञान तथा धर्म-सत्ता में विविध समुदायों के स्त्री-पुरषों के वाजिब बंटवारे का जो अभियान चलाया गया, उसका असर दिखने लगा है. हाल के वर्षों में कई राज्यों की सरकारों ने परम्परागत आरक्षण से आगे
बढ़कर अपने-अपने राज्य के कुछ-कुछ विभागों के ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब, सप्लाई इत्यादि कई विभागों में आरक्षण देकर राष्ट्र को चौकाया है. कई राज्यों सरकारों ने आरक्षण का 50 प्रतिशत का दायरा तोड़ने के साथ निगमों, बोर्डो, सोसाइटियों में एससी/एसटी, ओबीसी को आरक्षण दिया : धार्मिक न्यासों में वंचित जाति के पुरुषों के साथ महिलाओं को शामिल करने का निर्णय लिया तो उसके पीछे बीडीएम का डाइवर्सिटी केन्द्रित वैचारिक
आन्दोलन ही है. दो साल पहले झारखण्ड की हेमत सोरेन सरकार ने 25 करोड़ तक के ठेकों में एसटी, एससी, ओबीसी को प्राथमिकता दिए जाने की घोषणा कर राष्ट्र को चौका दिया था. निश्चय ही सरकार के उस फैसले के पीछे डाइवर्सिटी के वैचारिक आन्दोलन की भूमिका रही. जून 2021 के दूसरे सप्ताह में तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने वहां के 36,000 मंदिरों में गैर-ब्राह्मणों और महिलाओं की पुजारी के रूप में नियुक्ति का ऐतिहासिक निर्णय लेकर राष्ट्र को चौका दिया है. स्टालिन सरकार के इस क्रान्तिकारी फैसले के पीछे अवश्य ही डाइवर्सिटी आन्दोलन की भूमिका है. बहरहाल नौकरियों से आगे बढ़कर सीमित पैमाने पर ही सही सप्लाई, ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब इत्यादि में बिना बहुजनों के सड़कों पर उतरे ही, सिर्फ डाइवर्सिटी समर्थक लेखकों की कलम के जोर से कई जगह आरक्षण मिल गया. नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, ठेकों इत्यादि में वंचित वर्गों के लिए आरक्षण के कुछ-कुछ दृष्टान्त साबित करते हैं कि डाइवर्सिटी अर्थात जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी की मांग सत्ता के कानों तक पहुंची और उसने ज्यादा तो नहीं, पर कुछ-कुछ अमल भी किया. लेकिन सबसे बड़ी बात है कि बीडीएम के एजेंडे को सत्ताधारी भाजपा सहित अन्य कई कई पार्टियों ने अपने घोषणापत्र में जगह दिया. आज वंचित वर्गों के ढेरों लोग अपने-अपने तरीके से शक्ति के स्रोतों मे वाजिब भागीदारी की मांग उठा रहे हैं, उसके पीछे बीडीएम के एजेंडे की ही प्रभावकारिता है. बहरहाल शक्ति के स्रोतों में विविधता लागू करने की जो बात बीडीएम द्वारा उठाई जा रही उसके पीछे अमेरिका और खासतौर से दक्षिण अफ्रीका में विषमता के खात्मे में डाइवर्सिटी मॉडल से मिली प्रेरणा है. इन दोनों देशों में आर्थिक और सामाजिक विषमता से पार पाने में विविधता नीति ने चमत्कारिक परिणाम दिया है.
अमेरिका व दक्षिण अफ्रीका में विविधता नीति का कमाल!
भीषण आर्थिक और सामाजिक विषमता के चलते जैसे भारत नक्सलवाद की चपेट में आने के लिए अभिशप्त हुआ, वैसे ही 1960 के दशक में विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली देश संयुक्त राज्य अमेरिका नस्लीय दंगों की चपेट में आया था. तब शिक्षा,आय, धन, स्वास्थ्य और न्याय की जबरदस्त असमानता के कारण अमेरिकी गोरे प्रभुवर्ग और अश्वेतों के मध्य दंगों का सिलसिला शुरू हो गया था. यूँ तो इस असमानता का शिकार अमेरिका के रेड इंडियन, हिस्पानिक्स, एशियन पैसेफिक मूल के तमाम अश्वेत रहे, किन्तु सर्वाधिक शिकार अफ्रीकी अमेरिकन (काले) थे. वे 1865 में अमानवीय दास-प्रथा के गुफा से निकलने के सौ साल बाद भी बहुत से नागरिक अधिकारों और अवसरों से वंचित थे. इन्हीं के अधिकारों के लिए मार्टिन लूथर किंग (जू.) ने 1954 से शांतिपूर्ण सिविल राइट्स मूवमेंट छेड़ा जो 1968 तक चला. किन्तु वंचना और शोषण जब हद से ज्यादे होने लगा काले उग्र हो गए और उन्होंने दंगों का सिलसिला शुरू कर दिया. इसी क्रम में आक्रोशित ब्लैक युवाओं ने अक्तूबर 1966 में ‘ब्लैक पैंथर’ जैसा एक बेहद उग्र संगठन खड़ा किया, जिसने दुनिया भर के वंचित युवाओं को उद्वेलित किया. इसी से प्रेरित होकर भारत में कवि नामदेव ढसाल और उनके युवा साथियों ने 1972 में ‘दलित पैंथर’ जैसा आक्रामक संगठन खड़ा किया. दंगों के सैलाब और ब्लैक पैंथर जैसे संगठन की स्थापना ने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन बी जॉनसन को चिंतित कर दिया. उन्होंने इस स्थिति से पार पाने के लिए 27 जुलाई, 1967 को कर्नर आयोग गठित किया, जिसने 2 मार्च, 1968 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था,’हमारा राष्ट्र दो समाजों में उभर रहा है : एक समृद्ध श्वेत दूसरा वंचित अश्वेत! दोनों एक दूसरे से अलग, एक दूसरे से असमान! इस दूरी को पाटे बिना शांति बहांल नहीं हो सकती और बिना शांति के अमेरिका समृद्ध राष्ट्र नहीं बन सकता.’ इस दूरी को पाटने के के लिए आयोग ने सिफारिश किया था,’ अमेरिकी संपदा, संस्थाओं, ज्ञान के क्षेत्र इत्यादि में कालों एवं अन्य वंचित नस्लीय समूहों की भागीदार बनाया
जाय!’ आयोग की सिफारिसों का सम्मान करते हुए राष्ट्रपति जॉनसन ने आह्वान किया,’ अमेरिका हर जगह दिखना चाहिए अर्थात अमेरिका की पूँजी, सरकारी एवं गैर-सरकारी नौकरियों, उद्योग-व्यापार, शिक्षण संस्थाओं, फिल्म-मीडिया इत्यादि में प्रत्येक नस्लीय समूह का प्रतिनिधित्व झलके. इसके लिए उन्होंने भारत की आरक्षण प्रणाली की आइडिया को उधार लेकर उसे नौकरियों से आगे बढ़कर प्रत्येक क्षेत्र में, प्रत्येक नस्लीय समूहों की भागीदारी तक प्रसारित कर दिया. उनकी उस विविधता नीति का उनके बाद के तमाम राष्ट्रपतियोंः निक्सन, कार्टर, रोनाल्ड रीगन इत्यादि ने भी अनुसरण किया. इसके तहत वहां अल्पसंख्यक रूप में गण्य डेढ़ प्रतिशत आबादी वाले रेड इंडियंस, 11.5 प्रतिशत वाले हिस्पानिक्स, 13 प्रतिशत वाले अफ्रीकन मूल के कालों और 3.5 प्रतिशत एशियन पैसेफिक मूल के लोगों को उनके संख्यानुपात में आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षिक, फिल्म-मीडिया इत्यादि तमाम क्षेत्र की प्रत्येक गतिविधियों में वाजिब प्रतिनिधित्व अर्थात आरक्षण मिलने का मार्ग प्रशस्त हुआ.अमेरिका शक्ति के समस्त स्रोतों में नस्लीय विविधता के प्रतिबिम्बन के प्रति इतना आग्रही है कि वह हर संस्थान को अपनी वार्षिक डाइवर्सिटी रिपोर्ट प्रकाशित करने के लिए बाध्य करता है.रिपोर्ट से यदि यह पता चलता है कि किसी संस्थान ने डाइवर्सिटी लागू करने अर्थात विभिन्न नस्लीय समूहों को संख्यानुपात में अवसर देने में कोताही बरती है तब उस पर इतना भारी आर्थिक-दंड लगा दिया जाता है, जिसे झेलना कठिन होता. इस दंड के भय से सभी संस्थाएं
डाइवर्सिटी लागू करती हैं. इसी डाइवर्सिटी पॉलिसी के सहारे अमेरिका आर्थिक और सामाजिक विषमता के साथ आंतरिक कलह से पार पाया, जो इसके सबसे शक्तिशाली राष्ट्र में विकसित होने का सबब बना. इसी डाइवर्सिटी पॉलिसी अर्थात जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी वाली नीति के गर्भ से जन्मे अफ़्रीकी मूल के कालों में से रास्पबेरी जैसे पत्रकार, ओप्राविन्फ्रे और एडी मर्फी जैसे टीवी ढेरों एंकर,रॉबर्ट एल जॉनसन, जैनिकस ब्रायंट जैसे कई बिलियनेयर उद्यमी, विल स्मिथ, ड़ेंजिल वाशिंग्टन, हैलेबेरी, हूँपी गोल्डबर्ग इत्यादि जैसे असंख्य ऑस्कर विजेता फिल्म सितारे, बराक ओबामा, कमला हैरिस जैसे राजनेता इत्यदि. इसी विविधता नीति से कल्पना चावला, इंदिरा नुई, सुन्दर पिचाई, फिल्मकार श्यामलन जैसे अनगिनत भारतीय अमेरिका में अपनी प्रतिभा का झंडा गाड़ने में सफल हुए. इसी विविधता नीति ने अमेरिका को दुनिया के बेहतरीन प्रतिभाओं को अपने राष्ट्र- हित में उपयोग करने का अवसर प्रदान किया, जिसके फलस्वरूप आज यह देश विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र बना है.
दक्षिण अफ्रीका में डाइवर्सिटी नीति का कमाल
बहरहाल अगर विविधता नीति ने दास दृ प्रथा के तहत पशुवत इस्तेमाल होने वाले कालों के भावी पीढी को आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, उद्योग-व्यापार और फिल्म-मीडिया में वाजिब हिस्सेदारी सुलभ कराया तो इसी नीति ने दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासी कालों की मुक्ति में चमत्कार घटित कर दिया ! दक्षिण अफ्रीका अमेरिका के भांति ही एक ऐसा विविधतामय देश है, जिसकी भारत से सर्वाधिक साम्यताएं है. भारत में जैसे एससी/एसटी, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यक और सवर्ण समुदाय हैं, वैसे ही दक्षिण अफ्रीका में चार समुदायः विदेशी मूल के गोरे ,कलर्ड अर्थात मिश्रित जाति समूह, एशियाई उपमहांद्वीप के लोगों और मूलनिवासी काले हैं, जिनका संख्यानुपात क्रमशः 8.1 प्रतिशत, 8.8 प्रतिशत, 2.5 और 80.6 प्रतिशत है. जिस तरह भारत में अंग्रेजों के शासन काल में सभी स्कूल, कॉलेज, होटल, क्लब,पॉश कालोनियां, रास्ते इत्यादि भारतीयों के लिए मुक्त नहीं रहे, उसी तरह विदेशी मूल के गोरों के शासन में मूलनिवासी कालों के लिए इनके उपयोग की सुविधाएँ निषिद्ध रही.गोरों के शासन में अपने ही देश में अधिकारविहीन मूलनिवासी काले शक्ति के समस्त स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रहे. अंततः भारतीयों की भांति ही वे लम्बे समय तक संघर्ष चला कर 1994 में रंगभेदी विदेशी मूल के गोरों की सत्ता से आजाद हुए. आजाद होने के बाद वर्ष 1996 मे एक गणतंत्र के रूप में स्वयं को पुनर्गठित करने के बाद दक्षिण अफ्रीका ने दो ऐसे महान विधान बनाये जो अन्य कोई देश न बना सका. वे विधान हैंः समानता को बढ़ावा और अनुचित भेदभाव की रोकथाम अधिनियम 2000 और रोजगार समानता अधिनियम 1998. इन कानूनों ने वहां चमत्कार घटित कर डाला. अनुचित भेदभाव रोकथाम अधिनियम 2000 ने गोरे शासन में सदियों से मूलनिवासी कालों और उनकी महिलाओं पर चले आ रहे भेदभावकारी कानूनों का सम्पूर्ण रूप से खात्मा कर दिया. जिस तरह दलित उत्पीड़न अधिनियम 1989 लागू होने के बावजूद आये दिन दलित उत्पीड़न की घटनाएं होती रहती हैं, अनुचित भेदभाव रोकथाम अधिनियम के चलते वैसा अब दक्षिण अफ्रीका में नहीं होताः जबकि गोरों के शासन में मूलनिवासी कालों की स्थिति भारत के दलितों से भी कहीं ज्यादा बदतर थी. अनुचित भेदभाव रोकथाम कानून 2000 की तरह ही ‘रोजगार समानता अधिनियम 1998’ एक ऐसा कठोर अधिनियम है ,जिसमे कहा गया है,’ रंगभेद के परिणामस्वरुप और अन्य भेदभाव कानूनों, व्यवहारों, के कारण राष्ट्रीय श्रम बाज़ार में रोजगार दृ धंधे व आय में असमानताएं हैं. ये असमानताएं कुछ निश्चित श्रेणियों के लोगों के लिए ऐसी कठिनाइयां उत्पन्न करती हैं, जिन्हें मात्र भेदभावपूर्ण कानूनों को समाप्त कर दूर नहीं किया जा सकता. इसलिए समानता के संवैधानिक अधिकार को बढ़ावा देने और वास्तविक प्रजातंत्र की स्थापना के लिए रोजगार के अनुचित भेदभाव को ख़त्म करना होगा : भेदभाव के प्रभावों को समाप्त करने के लिए रोजगार समानता सुनिश्चित करनी होगी और हमारे लोगों के प्रतिनिधित्व वाले विविध कार्यबल का निर्माण करना होगा ; कार्यबल में क्षमता और आर्थिक विकास को बढ़ावा देना होगा और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के सदस्य के रूप में गणतंत्र की अनिवार्यताओं को प्रभावशाली करना होगा.’ रोजगार-धंधे में असमानता को ख़त्म करने लिए मंडेला के देश में रोजगार समानता अधिनियम 1998 के जरिये जो प्रावधान किये गए, उसी के तहत वहां अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में विविधता नीति सामने आई, जिसके फलस्वरूप धनार्जन के स्रोतों में विविध समुदायों के साथ कालों को उनकी संख्यानुपात में हिस्सेदारी सुनिश्चित हुई. इससे जिन गोरों का धनोपार्जन
सहित अन्यान्य क्षेत्रों में 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा था, वे अपनी संख्यानुपात पर सिमटने लगे और उनके हिस्से का अतिरिक्त अवसर मूलनिवासी कालों में बंटने का मार्ग प्रशस्त हुआ. रोजगार समानता अधिनियम 1998 के बाद मूलनिवासी कालों के आर्थिक सशक्तिकरण में 2003 में पारित‘ ब्लैक इकॉनोमिक एम्पावरमेंट कानून (बीईई) ने भी बड़ा योगदान किया. बीईई दक्षिण अफ़्रीकी सरकार की एक ऐसी नीति है, जिसका उद्देश्य काले लोगों, द्वारा अर्थव्यवस्था में व्यापक भागीदारी की सुविधा प्रदान करना हैः विशेष रूप से रंगभेद निर्मित असमानता को दूर करने के लिए. यह उन व्यवसायों को प्रोत्साहन प्रदान करता है विशेष रूप से सरकारी खरीद प्रक्रियाओं में तरजीही उपचार-जो कई मापनीय मानदंडों के अनुसार काले आर्थिक सशक्तिकरण में योगदान करते हैं, जिसमें आंशिक या बहुसंख्य काले स्वामित्व वाले, काले कर्मचारियों को काम पर रखना और काले स्वामित्व वाले आपूर्तिकर्ताओं के साथ अनुबंध करना शामिल है. रोजगार-धंधों के अवसरों में अपने संख्यानुपात पर सिमटने के फलस्वरूप गोरों का वर्चस्व धवस्त होने लगा, यहाँ तक कि क्रिकेट व दूसरे खेलों में भी. वर्चस्व उनका कायम रहा तो सिर्फ भूमि पर. किन्तु कालांतर में यह वर्चस्व भी टूट गया. संसद के एक निर्णय के जोर से 27 फ़रवरी, 2018 को गोरों के हिस्से की 72 प्रतिशत जमीन छीनकर मूलनिवासियों में बंटने का प्रावधान कर दिया गया. इस तरह विविधता केन्द्रित ‘रोजगार समानता अधिनियम 1998’ और ‘ब्लैक इकॉनोमिक एम्पावरमेंट कानून (बीईई)’ के जरिये मूलनिवासी कालों को वर्कफ़ोर्स, सप्लाई, डीलरशिप इत्यादि व्यवसायिक गतिविधियों में 80 प्रतिशत अवसर सुलभ कराने का सबल प्रयास चल रहा है, जिससे दो सौ सालों से अधिक गोरों की गुलामी झेलने वाले मंडेला के लोग अब वास्तविक
आज़ादी का भोग कर रहे हैं और गोरे दक्षिण अफ्रीका छोड़ दूसरे देशों में शरण ले रहे हैं ! 1994 के बाद विभिन्न कठोर कानूनों के जरिये मूलनिवासी कालों के हित में आर्थिक-सामाजिक विषमता के खात्मे का जो सबल अभियान शुरू हुआ है, उसके फलस्वरूप 1995 से 2005 के मध्य दस लाख से अधिक गोरे दक्षिण अफ्रीका से पलायन करने के लिए बाध्य हुए. 2009 में जैकब जुमा के सत्ता में आने के बाद यह पलायन और तीव्रतर हुआ ! आंकड़ों में अगर आज भी दक्षिण अफ्रीका में भारी विषमता दिखती है है तो उसका कारण यह है कि 1994 के पूर्व रंगभेद नीति के दौर में गोरों ने कालों का शोषण कर बेहिसाब दौलत जमा कर रखी थी. पूर्व की संचित उसी दौलत के सहारे आज भी भारी संख्या में गोरे, कालों से बेहतर जीवन यापन कर रहे हैं. लेकिन पहले की संचित दौलत कितना दिन काम देगीः अब तो उनके लिए अवसर उनके संख्यानुपात तक सिकुड़ते जा रहे हैं!
अवसरों व संसाधनों के बंटवारे में लागू करनी होगी रिवर्स प्रणाली!
बहरहाल बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे को अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के विविधता नीति के सर्वोत्तम प्रावधानों का ही मिश्रित रूप कहा जा सकता है. इसे लागू कर आर्थिक और सामाजिक विषमता-जन्य तमाम समस्यायों से पार पाया जा सकता है. पर, ध्यान रहे भारत में विषमता की स्थिति अन्यान्य देशों से बहुत विकट है. इस देश में अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के गोरे प्रभुवर्ग की भांति जिनका वर्तमान में शक्ति के सोतों पर 80 से 85 प्रतिशत कब्ज़ा है, हिन्दू धर्म-संस्कृति के सौजन्य से उनका मानसिक गठन बहुत भिन्न है. अमेरिका में विविधता नीति इसलिए ज्यादे सफल हो गयी क्योंकि वहां के गोरे प्रभुवर्ग में डॉ. आंबेडकर के शब्दों में सामाजिक विवेक था, इसलिए उनमें दास- प्रथा के तहत पशुवत इस्तेमाल होने वाले कालों के प्रति एक प्रायश्चितबोध क्रियाशील रहा. इसी कारण उन्होंने दास-प्रथा के अवसान के मुद्दे पर लगभग चार सालों तक चले गृह-युद्ध में उठा लिया था बंदूक अपने ही उन भाइयों के खिलाफ, जिनमें वास कर रही थी उनके उन पुरुखों की आत्मा, जिन्होंने निज-हित में कालों का पशुवत इस्तेमाल कर मानवता को शर्मसार किया था. इसी प्रायश्चितबोध के कारण वे लम्बे समय से कालों के हित में भारी भरकम अर्थदान करने के साथ भूरि-भूरि साहित्य सृजन किये. इसी प्रायश्चितबोध के कारण जब कर्नर आयोग की संस्तुतियों का अनुसरण करते हुए राष्ट्रपति लिंडन बी जॉनसन ने विविधता नीति लागू करने का एलान किया, वहां का प्रभुवर्ग उसे सफल बनाने के लिए स्वतःस्फूर्त रूप से सामने आया. किन्तु कई हजार सालों से दलितों सहित अन्यान्य निम्न जातियों के
स्त्री-पुरुषों का स्व-हित में निर्मम इस्तेमाल करने वाले भारतीय प्रभुवर्ग में इनके प्रति रंच मात्र भी प्रायश्चित बोध नहीं है. चूँकि हिन्दू धर्म-शास्त्रों द्वारा इनको ही शक्ति के समस्त स्रोतों के भोग का धर्म सम्मत अधिकारी बताया गया है इसलिए ये खुद को इसका दैवीय अधिकारी वर्ग मानते हैं. धर्मशास्त्रों द्वारा निर्मित इस सोच के कारण वे ऐसा मानते हैं ये जातियां अपने पूर्व जन्मों के पापों के कारण गरीबी-अभावों में जीने के लिए अभिशप्त हैं. अपनी इस सोच के कारण यह वर्ग आरक्षण के जन्मकाल से ही इसके विरोध में रहा और जब 7 अगस्त,1990 को प्रकाशित मंडल की रिपोर्ट के जरिये आरक्षण का विस्तार हुआ, यह वर्ग आरक्षण के खात्मे में पूरी तरह मुस्तैद हो गया और आज भी है. इस वर्ग में इक्के-दुक्के लोग ही यह उपलब्धि कर पाए कि आरक्षण और कुछ नहीं शक्ति के स्रोतों से जबरन बहिष्कृत किये गए लोगों को शक्ति के स्रोतों में शेयर दिलाने का क़ानूनी प्रावधान मात्र है.राजसत्ता के साथ अर्थ-न्याय-ज्ञान और धर्म सत्ता पर एकाधिकार जमाये इस विशेष वर्ग की धर्मशास्त्रों द्वारा निर्मित सोच के कारण आरक्षण सहित वंचितों के हित में लागू तमाम प्रावधान अपेक्षित परिणाम न दे सके. ऐसे में यदि लगता है कि बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे को लागू कर भारत में व्याप्त भीषणतम विषमता से पार पाने के साथ आंबेडकर के सपनों का भारत निर्माण किया जा सकता है तो एकाधिक कारणों से अवसरों और संसाधनों के बंटवारे की मौजूदा प्रणाली को पूरी तरह पलट देना होगा. अवसरों के बंटवारे की अबतक की पद्धति यह रही है कि अवसर सबसे पहले सामान्य वर्ग के मध्य बांटा जाता रहा हैः आरक्षित वर्गों के लिए सामान्य के बाद अवसर रहा.इस कारण आरक्षण की उपयोगिता काफी हद तक प्रभावित हुई. शासन-प्रशासन में छाये प्रभुवर्ग के लोग तिकड़म कर विभिन्न विभागों में इस तरह सीटें निकालने लगे कि वहां आरक्षण प्रभावी न हो सका और आरक्षित वर्गों के ढेरों अवसर उनके हिस्से में चले गए. इसलिए यदि पुरानी पद्धति से विविधता नीति लागू होती है तो इसका लाभ नीचे की 50 प्रतिशत वंचित आबादी को मिलना दुष्कर हो जायेगा. ऐसे में विषमता का खात्मा करना है तो अवसरों के बंटवारे की प्रचलित प्रणाली को उलट कर प्राथमिकता नीचे की उस 50- 60 प्रतिशत आबादी को देनी होगी जिसको विगत कई वर्षों
से राष्ट्रीय संपत्ति में मात्र 5- 6 प्रतिशत हिस्सा सुलभ हो रहा है. अवसरों के बंटवारे में आधी आबादी को प्राथमिकता देकरः लड़ी जा सकती है विषमता के खिलाफ ठोस लड़ाई ! इसी आबादी की घोरतर वंचना के कारण भारत विश्व के ‘पावर्टी कैपिटल’ का खि़ताब पाने के लिए अभिशप्त हुआ. नीचे की 50- 60 प्रतिशत आबादी के महिलाओं की अतिवंचना के कारण ही भारतीय महिलाओं को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबरी में आने के लिए 257 साल लगने के अनुमान जाहिर किये जा रहे हैं. अतः यदि हम भयावह विषमता से पार पाना चाहते हैं तो ऐसा उपक्रम चलाना पड़ेगा, जिससे अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में नीचे की 50 से 60 प्रतिशत आबादी को पहले अवसर मिले. इस हिसाब से भारत के विविध समाजों में क्रमशः एससी/एसटी, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यकों और शेष में सामान्य वर्ग को अवसर प्रदान करने की पॉलिसी अख्तियार करनी होगी. चूँकि भारत में विषमता से सर्वाधिक प्रभावित आधी आबादी है. इसलिए विभिन्न समुदायों को उनके संख्यानुपात में बंटने वाले अवसरों में सबसे पहले 50 प्रतिशत अवसर इन समुदायों की महिलाओं को देना पड़ेगा. आधी आबादी को उनका हिस्सा सुनिश्चित करने के बाद ही बाकी हिस्सा उस समुदाय के पुरुषों में वितरित करना पड़ेगा. और बेहतर परिणाम पाने के लिए श्रेयस्कर होगा कि विविधतामय भारत के सभी समाजों को अग्रसर और अनग्रसर अर्थात अगड़ा-पिछड़ा : दो भागों में बाँट कर सबसे पहले मिलिट्री,पुलिस, न्यायायिक सेवा इत्यादि सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों, सप्लाई, डीलरशिप, पार्किंग-परिवहन, शिक्षण संस्थानों के प्रवेश, टीचिंग स्टाफ, ग्रामपंचायत-शहरी निकाय-संसद-विधानसभा की सीटों इत्यादि में 50 प्रतिशत अवसर इन समाजों के पिछड़े और अग्रसर तबके की स्त्रियों को दिया जाय फिर बाकी 50 प्रतिशत उनके पुरुषो के मध्य वितरित किया जाय.अर्थात सबसे पहले एससी/एसटी समुदाय के महिलाओं से शुरू करके शेष में सामान्य वर्ग की पहले पिछड़ी और और बाद में अगड़े समुदाय की महिलाओं को अवसर दिया जाय. महिलाओं के बाद इसी क्रम में तमाम क्षेत्रों में उनके पुरुषों को अवसर मिले. इस क्रम में यदि बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू होती है तो हम आर्थिक और सामाजिक विषमता की समस्या से पार पा ही लेंगे, इसी के साथ भारत की आधी आबादी को 257 साल के बजाय 57 सालों में ही पुरुषों के बराबर खड़ा करने सफल हो जायेंगे.ऐसा होने पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के रूप में चिन्हित भारत के लोकतंत्र की पहचान एक आदर्श लोकतंत्र के रूप में स्थापित हो जाएगी. बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे को सम्यक तरीके से लागू हम अपने लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण तथा लैंगिक समानता का तो लक्ष्य हासिल कर ही लेंगे, साथ में आर्थिक और सामाजिक विषमता-जन्य अन्य कई समस्या से भी निजात पा लेंगे!उपरोक्त क्षेत्रों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का सम्यक प्रतिबिम्बन होने पर हमारा लोकतंत्र उस खतरे से पूरी तरह उबर हो जायेगा, जिससे बचने के लिए संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर ने 25 नवम्बर, 1949 को सावधान किया था! ऐसा होने पर शर्तिया तौर पर आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा और लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया तीव्रतर होगीः साथ ही महिला सशक्तिकरण, अस्पृश्यों को हिन्दुओं के अत्याचार से बचाने, भ्रष्टाचार को कम करने, आरक्षण से उपजते गृहयुद्ध पर काबू पाने, सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली को खुशहाली में बदलने, नक्सलवाद के शमन और विविधता में एकता को सार्थकता प्रदान करने इत्यादि के मोर्चे पर भी चमत्कारिक परिणाम पा सकते हैं! राहुल गाँधी के नेतृत्व में लागू हो सकता है अमेरिका की भांति डाइवर्सिटी पॉलिसी भारत में आज जो भीषण आर्थिक और सामाजिक विषमता व्याप्त है, उससे निजात दिलाने में कोई व्यक्ति सक्षम दिख रहा है तो वह राहुल गांधी हैं! राहुल गांधी संभवतः स्वाधीन भारत के पहले नेता हैं जो धन के न्यायपूर्ण बंटवारे का सवाल उठा रहे हैं.अगर हमारे अबतक के प्रधानमंत्रियों ने राहुल गांधी की भांति धन के असमान बंटवारे को लेकर चिंता व्यक्त की होती, भारत का लोकतंत्र अबतक संकट-मुक्त हो चुका होता. वह जिस शिद्दत से जितनी आबादी- उतना हक़ की बात उठा रहे हैं, उसमे विविध समुदायों के मध्य शक्ति के स्रोतों (आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक) के बंटवारे के भरपूर तत्व हैं. वह जिस शिद्दत से आरक्षण के 50 प्रतिशत सीमा को हटा कर आरक्षित वर्गों के विभिन्न समुदायों को आबादी के अनुपात में आरक्षण देने की बात कर रहे हैं, उसमें भी डाइवर्सिटी के भरपूर तत्व है. यही नहीं जिस तरह कांग्रेस ने 24-26 फ़रवरी, 2023 तक रायपुर में अनुष्ठित अपने 85 वें अधिवेशन में सामाजिक न्याय का पिटारा खोला है; जिस तरह 9 अक्टूबर, 2023 को कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति में सामाजिक न्याय से जुड़े कई निर्णय लिए गए हैं; जिस तरह राहुल गांधी संविधान की उद्देश्यिका में उल्लिखित तीन न्यायः सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुलभ कराने के लिए पूरब से पश्चिम तक 6,500 किमी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ पर निकल पड़े हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उनके ही नेतृत्व में भारत में लागू हो सकती है अमेरिका की भांति डाइवर्सिटी पॉलिसी! ऐसे में कहा जा सकता है कि संविधान निर्माता बाबा साहेब आम्बेडकर ने आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के आह्वान के जरिये समतामूलक भारत निर्माण की जो जिम्मेवारी देश के हुक्मरानों पर सौंपी थी, उसे पूरा करने की उम्मीद अब राहुल गांधी से ही की जा सकती है.

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