Ram Mandir: 500 वर्षों या चार दशकों के निरंतर संघर्ष का परिणाम !

Ram Mandir: राम मंदिर के लिए 500 सालों तक अनवरत संघर्ष चला है? इस इतिहास को लेकर विगत कुछ सप्ताहों में काफी कुछ लिखा गया है। इससे जो इतिहास सामने आया है, उससे पता चलता है कि 25 सितंबर, 1990 से राम जन्मभूमि मुक्ति के लिए भाजपा के लाल कृष्ण आडवाणीं ने जो रथ यात्रा निकाली, वहाँ से राम मंदिर निर्माण के अनवरत संघर्ष का सिलसिला शुरू होता है।

लेखक : एचएल दुसाध

(बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय)
न्यूज इंप्रेशन

Delhi:  अयोध्या में बहुप्रतीक्षित भव्य राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हो चुकी है। दुनिया मंदिर की भव्यता और दिव्यता के साथ रामलला की सम्मोहनकारी प्रतिमा देख कर विस्मित है। प्राण प्रतिष्ठा के दूसरे दिन यानी 23 जनवरी से आमजन को रामलला के दर्शन मिलने शुरू हो चुके हैं। श्रीरामलला का दर्शन पाने के लिए देश भर मे श्रद्धालुओं का तांता लगा हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक जनवरी के अंत तक 22 लाख से ज्यादा श्रद्धालु रामलला के दर्शन कर चुके हैं। मेट्रो शहरों से आने वाले लोगों का इस कदर तांता लगा हुआ है कि वहां पहुंचने वाली एयर इंडिया एक्सप्रेस व इंडिगो एयरलाइन की सभी फ्लाइटें पूरी क्षमता से भरी रहती हैं। हिंदुओं के साथ मुस्लिम भक्त भी रामलला के दर्शन के लिए लगातार आ रहे हैं। इस मामले मे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य एवं मुस्लिम राष्ट्रीय मंच संरक्षक डॉ इंद्रेश कुमार के मार्गदर्शन मे निकली मुस्लिम पदयात्रा में शामिल लोगों ने अयोध्या पहुंचकर श्री रामलला के दर्शनोपरांत जिस तरह श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट अध्यक्ष व मणिरामदास छावनी पीठाधीश्वर महंत नृत्यगोपाल दास से आशीर्वाद लिया, वह अलग से चर्चा का विषय बन गया है। पूरा प्रशासनिक अमला और श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट श्रद्धालुओं को सुविधा पूर्ण दर्शन कराने में जुटा हुआ है। श्रद्धालुओं को सुगंतापूर्ण ढंग से चल रहे दर्शन व रहने-खाने की व्यवस्था मे दिक्कत न आए , इसे देखते हुए पहली फरवरी को अयोध्या दर्शन के लिए आने वाली योगी कैबिनेट का प्रोग्राम दस दिनों के लिए स्थगित कर दिया गया है।
1990 से राम मंदिर निर्माण के संघर्ष का सिलसिला होता है शुरू
बहरहाल अयोध्या के राम मंदिर के विषय में तरह-तरह की सुखद व अद्भूत बातें सामने आ रही हैं, किन्तु उनमें जिन बातों को लेकर इस लेखक जैसे लोगों को गुरेज हैं, उनमें से एक यह है कि 500 वर्षों के निरंतर संघर्ष का परिणाम है वर्तमान रांम मंदिर। राम मंदिर 500 वर्षों के निरंतर संघर्ष का परिणाम है, यह बात तमाम साधु-संतों सहित भाजपा के बड़े-बड़े नेता और बुद्धिजीवी तक कहे जा रहे हैं। खुद भाजपा अध्यक्ष जेपी नड़ड़ा ने कहा है कि 500 से अधिक वर्षों के निरंतर संघर्ष के बाद आज यह पवित्र भावनाओं का क्षण आया है। लेकिन क्या सचमुच राम मंदिर के लिए 500 सालों तक अनवरत संघर्ष चला है? राम मंदिर के इतिहास को लेकर विगत कुछ सप्ताहों में काफी कुछ लिखा गया है। इससे जो इतिहास सामने आया है उससे पता चलता है कि 25 सितंबर, 1990 से राम जन्मभूमि मुक्ति के लिए भाजपा के लाल कृष्ण आडवाणीं ने जो रथ यात्रा निकाली, वहाँ से राम मंदिर निर्माण के अनवरत संघर्ष का सिलसिला शुरू होता है। इसके पहले राम मंदिर निर्माण आंदोलन में हिन्दू समाज की व्यापक भागीदारी नहीं रही। इसके लिए कुछ साधु संघ ही छिटफूट आंदोलन चलाते रहे।

बाबरी मस्जिद स्थल पर धार्मिक विवाद पहली बार 1853 में हुआ
हाल में विभिन्न विद्वानों ने इसके इतिहास का संधान करते हुए जो लेखन किया है, उससे पता चलता है कि मुगल सम्राट बाबर ने मस्जिद का निर्माण 1528 करवाया था। अवध के नवाब वाजिद शाह के हुकूमत के दौरान निर्मोही नामक एक हिन्दू संप्रदाय ने दावा किया कि मस्जिद के लिए रास्ता बनाने के लिए बाबर युग में एक हिन्दू मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया था। अयोध्या मे बाबरी मस्जिद स्थल पर धार्मिक विवाद पहली बार 1853 मे हुआ। इसके छह साल बाद अंग्रेजों ने साइट को दो हिस्सों मे बांटने के लिए बाड़ लगा दिया। मुसलमानों को मस्जिद के भीतर प्रार्थना करने की अनुमति दी गई, जबकि बाहरी परिसर को हिंदुओं को दे दिया गया। जनवरी, 1885 महंत रघुवीर दास ने फैजाबाद जिला अदालत में एक अनुरोध प्रस्तुत किया, जिसमें मस्जिद के बाहर स्थित एक ऊंचे मंच राम चबूतरा पर एक छतरी के निर्माण की मंजूरी मांगी गई। हालांकि याचिका खारिज कर दी गई। फिर एक लंबे अंतराल बाद इससे जुड़ी घटना 23 दिसंबर, 1949 को सामने आई जब बाबरी मस्जिद के अंदर रामलला की मूर्ति प्रकट हुई। उसके बाद गोपाल सिंह विशारद नामक व्यक्ति ने वहाँ पूजा करने के लिए फैजाबाद अदालत में याचिका दायर की। इसके खिलाफ अयोध्या निवासी हाशिम अंसारी नामक व्यक्ति ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और कहा कि मूर्ति को हटा दिया जाना चाहिए और इसे मस्जिद ही रहने दिया जाना चाहिए। सरकार ने उस स्थान पर ताला लगा दिया, लेकिन हिंदुओं को बाहर से रामलला की पूजा करने की अनुमति दे दिया।

22 जनवरी, 2024 को पीएम ने प्राण प्रतिष्ठा करने का गौरव प्रदान किया
यहाँ से मुकदमों का सिलसिला शुरू हुआ। हिन्दू पक्ष से दिगम्बर अखाड़ा के प्रतिनिधियों ने 1950 में और इसके बाद निर्मोही अखाड़ा ने 1959 मे अदालत का दरवाजा खटखटाया। 1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने मस्जिद और उसके आसपास के कब्रिस्तान पर दावा किया। फिर जुलाई 1989 में, रामलला विराजमान ने जस्टिस अग्रवाल के माध्यम से खुद अदालत का दरवाजा खटखटाया, जहां उन्होंने मस्जिद को हटाने और विवादित जमीन वापस मांगी। इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर से रामलला के दावे को आंशिक रूप से स्वीकार करने और उन्हें निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को 2.77 एकड़ जमीन का एक तिहाई हिस्सा देने से पहले कई साल बीत गए। अंत में, सुप्रीम कोर्ट ने 9 नवंबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट के पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने 2.77 एकड़ की विवादित जमीन को एक ट्रस्ट को ट्रांसफर करने का आदेश दिया। इस ट्रस्ट को राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के लिए भारत सरकार द्वारा स्थापित किया जाना था। इसके अतिरिक्त, अदालत ने सरकार को मस्जिद के निर्माण के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को एक अलग स्थान पर वैकल्पिक पाँच एकड़ जमीन आबंटित करने का निर्देश दिया। आदेश जारी करने वाले पाँच जजों की बेंच का नेतृत्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने किया था, जिन्हे बाद में 2020 मे मोदी सरकार की ओर से राज्यसभा मे नामित किया गया। उस समय सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज जस्टिस मदन बी लोकुर, जस्टिस एके पटनायक ,जस्टिस कुरियन ने जोसेफ और जस्टिस जे चेलमेश्वर ने उनकी नियुक्ति पर सवाल उठाते कहा था कि इसने आम लोगों के विश्वास को हिला दिया है। 9 नवंबर, 2019 को राम मंदिर पर फैसला देने वाले गोगोई 17 नवंबर को सेवानिवृत हो गए। राम मंदिर निर्माण के बनाए गए ट्रस्ट का नाम ‘श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र’ रखा गया, जिसमें 15 सदस्य शामिल हैं। बहरहाल 5 अगस्त, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर निर्माण की आधारशिला रखी। उस दिन उन्होंने एक पट्टिका का अनावरण करने के साथ एक स्मारक डाक टिकट भी जारी किया। इसे इतिहास का अद्भूत संयोग कहा जाएगा कि राम मंदिर निर्माण का शिलान्यास करने वाले प्रधानमंत्री मोदी को ही बाद में इतिहास ने 22 जनवरी, 2024 को इसकी प्राण प्रतिष्ठा करने का भी गौरव प्रदान किया।

आंदोलन में भाजपा की की इंट्री 1989 में
जिस राम मंदिर निर्माण में प्रधानमंत्री मोदी को ऐतिहासिक रोल अदा करने का अवसर मिला, उसके आंदोलन में उनकी पार्टी की इंट्री 1989 में हुए हिमाचल के पालमपुर सम्मेलन से हुई, जहां भाजपा ने घोषणा किया कि वह राम मंदिर आंदोलन मे शामिल हो रही है। तब पार्टी की ओर से कहा गया था अदालतें विश्वास का मामला तय नहीं कर सकतीं। उसके बाद राम मंदिर का मुद्दा भाजपा के घोषणापत्र का अहम हिस्सा बन गया। इससे पहले 1964 मे स्थापित आरएसएस की एक और शाखा विश्व हिन्दू परिषद इसकी अगुवाई कर रही थी, जिसके एजेंडे मे 1980 मे ही राम मंदिर आ गया था। जनवरी 1984 मे भाजपा के पितृ संगठन आरएसएस प्रमुख बाला साहब देवरस ने प्रयागराज माघ मेले मे एक संघ शिविर मे उपस्थित लोगों से पूछा था,’ राम जन्मभूमि कब तक बंद रहेगी ? उसके तीन महीने बाद, दिल्ली मे आयोजित एक धर्म संसद मे भाग लेने वाले संतों ने राम जन्मभूमि मुक्ति का मुद्दा उठाया। उसी वर्ष राम जन्मभूमि यज्ञ मुक्ति समिति का भी गठन किया गया और अयोध्या से लखनऊ तक की उनकी धर्म यात्रा ने उत्तर भारत, महाराष्ट्र और गुजरात के हिंदुओं की सामूहिक चेतना मे मंदिर के मुद्दे को आगे बढ़ाया। लेकिन विहिप के सौजन्य से राम मंदिर का जो मुद्दा गरमाया, उसके सद्व्यवहार के लिए भाजपा 25 सितंबर, 1990 को दीन दयाल उपाध्याय की जयंती के दिन मैदान में तब कूदी जब मण्डल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद देश में एक अलग किस्म का माहौल बन गया था। उस दिन लाल कृष्ण आडवाणी ने यह कहकर कि मण्डल से समाज बंट रहा है, गुलामी के सबसे बड़े प्रतीक राम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए सोमनाथ से अयोध्या तक के रथयात्रा शुरू कर दिया, जिसके बाद देश मे राम मंदिर के लिए जनोंन्माद शुरू हो गया। लेकिन इस जनोन्माद के पीछे राम के प्रति श्रद्धा कम दलित-आदिवासी और पिछड़ों के आरक्षण खात्मे की भावना की क्रियाशीलता बहुत-बहुत ज्यादे रही। और हिन्दू समाज के अग्रसर समुदायों की आरक्षण के खात्मे के लिए उमड़ी भावना का सदुपयोग करने मे भाजपा इसलिए देर नहीं लगाई क्योंकि उसका पितृ संगठन आरएसएस पूना पैक्ट के जमाने से ही इसके खात्मे की ताक में था।
भाजपा ने हिन्दू धर्म के ठेकेदार के रूप मे स्थापित कर ली
स्मरण रहे जो भाजपा आज खुद को हिन्दू धर्म के ठेकेदार के रूप में स्थापित कर ली है, सदियों से उस हिन्दू धर्म का प्राण, उस वर्ण-व्यवस्था में क्रियाशील रहा जो मुख्यतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही है. जिसे हिन्दू धर्म कहा जाता है, दरअसल वह वर्ण-धर्म है जिसमें प्रत्येक वर्ण के लिए पेशे/कर्म निर्दिष्ट रहे। ब्राह्मणों का पेशा/कर्म अध्ययन-अध्यापन, राज्य- संचालन में मंत्रणा दान, क्षत्रिय का राज्य और सैन्य संचालन के साथ भूस्वामित्व और वैश्यों का पेशा पशु-पालन व व्यवसाय-वाणिज्य रहा। इसमें स्व-धर्म पालन के लिए कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता और कर्म-संकरता की निषेधाज्ञा के फलस्वरूप वर्ण व्यवस्था ने एक आरक्षण-व्यवस्थाः हिन्दू-आरक्षण का रूप अख्तियार कर लिया। पेशे/कर्मों की विचलनशीलता की निषेधाज्ञा के कारण हिन्दू आरक्षण में चिरकाल के लिए शक्ति के समस्त तीन उच्च वर्णों के लिए आरक्षित हो गए। हिन्दू आरक्षण में शुद्रातिशूद्रों के हिस्से में आई सिर्फ तीन उच्च वर्णों की सेवा, वह भी पारश्रमिक रहित। इनके लिए अर्थीपार्जन, शिक्षार्जन सहित राजनीतिक गतिविधियां अधर्म व दंडनीय अपराध रहीं। मंदिरों का पुजारी बनना तो दूर इनके लिए अपने लौकिक और पारलौकिक सुख के लिए पूजा-पाठ तक अधर्म घोषित रहा। ये तीन उच्च वर्णों की पारिश्रमिक रहित सेवा मे मोक्ष का संधान करने के लिए अभिशप्त रहे। हिन्दू धर्म शास्त्रों द्वारा सुपरिकल्पित रूप से चिरकाल के लिए शक्ति के समस्त स्रोतों (आर्थिक- राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक) से बहिष्कार के कारण शुद्रातिशूद्र दैविक-सर्वस्वहारा बनने के लिए अभिशप्त हुए। उनकी स्थिति हिन्दू धर्म के गुलामों के रूप में रही। इनमें दलितों की स्थिति गुलामों के गुलाम के रूप में रही। वे शक्ति के समस्त स्रोतों से तो बहिष्कृत रहे ही, उन्हें अच्छा नाम रखने और मंदिरों में घुसकर ईश्वर के समक्ष अपने दुःख-मोचन के लिए प्रार्थना करने तक का अवसर नहीं रहा। हिन्दू समाज के इन्हीं गुलामों के गुलामों की मुक्ति का संकल्प बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने लिया और उन्हें आरक्षण के जरिए शक्ति के स्रोतों मे काफी हद तक हिस्सेदारी दिलाने में सफल हुए।

मंडलवादी आरक्षण के खिलाफ हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग
अम्बेडकरी आरक्षण से दलित-आदिवासी सांसद- विधायक, डॉक्टर, प्रोफ़ेसर, बाबू, मैनेजर इत्यादि बनने लगे। संघ परिवार के लिए यह असहनीय था, क्योंकि इससे हिन्दू धर्म-शास्त्र और ईश्वर भ्रांत लगने लगे। ऐसे में संघ बराबर आरक्षण के खात्मे के अवसर की तलाश में रहा। और जब 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, उसे यह अवसर मिल गया। मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही दलित, आदिवासी, पिछड़े व इनसे धर्मान्तरित तबके भ्रातृ-भाव लिए एक दूसरे के करीब आने लगे और उनके शासक वर्ग में उभरने के लक्षण दिखने लगे। तब मंडलवादी आरक्षण के खिलाफ हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के सभी तबकेः छात्र और उनके अभिभावक, साधु-संत, मीडिया कर्मी, लेखक इत्यादि लामबंद होकर आन्दोलन चलाने लगे। आरक्षण के खिलाफ उमड़ी हिन्दू समाज के अग्रसर तबके की भावना को आडवाणी ने अपनी रथ-यात्रा के जरिए गुलामी के सबसे बड़े प्रतीक राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन से जोड़ दिया। भाजपा के मंदिर अभियान से जो जनोंउन्माद उमड़ा, वह मुख्यतः आरक्षण के खात्मे से प्रेरित था। राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन में संघ परिवार ने बाबर की संतानों के प्रति वंचित जातियों में वर्षों से संचित अपार नफरत और राम के प्रति दुर्बलता का जमकर सद्व्यवहार किया।

राम मंदिर सामाजिक न्याय व दलित-पिछड़ों के अधिकार की कब्र पर हुआ विकसित
राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन के सहारे चुनाव दर चुनाव भाजपा राम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठाकर राजनीतिक सफलता के नए-नए अध्याय रचती गयी. चूंकि राम मंदिर के प्रति उमड़े जनों उन्माद के पीछे आरक्षण के खात्मे के भावना की क्रियाशीलता ज्यादे थी तथा संघ खुद भी पूना पैक्ट के जमाने से आरक्षण के खात्मे की ताक में रहा, इसलिए राम मंदिर से मिली राजसत्ता का इस्तेमाल संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्रियों ने मुख्यतः आरक्षण के खात्मे में किया। इस मामले में प्रधानमंत्री मोदी ने वर्ग-संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए बहुजनों को लगभग उस स्टेज में पहुंचा दिया है, जिस स्टेज में उन्हें रहने का निर्देश हिन्दू धर्म शास्त्र देते हैं। उन्होंने राम के नाम पर मिली सत्ता का इस्तेमाल श्रम कानूनों को शिथिल करने, लाभजनक दर्जनों सरकारी कंपनियों, रेलवे, हवाई अड्डो, बंदरगाहों, बस अड्डों, हास्पिटलों इत्यादि को निजी हाथों में देने में किया। इसके साथ ही उन्होंने सुपरिकल्पित रूप से उस संविधान को काफी हद तक व्यर्थ कर दिया है, जो लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुलभ करने का मार्ग प्रशस्त करता है। 22 जनवरी को जिस राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा हुई है, वह राम मंदिर सामाजिक न्याय और दलित-पिछड़ों के अधिकार की कब्र पर विकसित हुआ है। भारी विस्मय की बात है कि देश राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा से उमड़ी राम-भक्ति की दरिया जमकर डुबकी भी नहीं लगा पाया था कि भाजपा ज्ञानवापी और कृष्ण जन्मभूमि के मुक्ति को हवा देने में जुट गई प्रतीत होती है। और जिस तरह राहुल गांधी भारत जोड़ों न्याय यात्रा के जरिए लोगों संविधान में उल्लेखित तीन न्यायः सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुलभ कराने का मुद्दा उठा रहे हैं, उससे आर्थिक और सामाजिक न्याय सबसे बड़ा मुद्दा बनता दिख रहा है। ऐसे में लगता है राहुल गांधी के जरिए उठाते सामाजिक न्याय के सैलाब से पार पाने के लिए भाजपा काशी और मथुरा के जरिए फिर गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति का आंदोलन शुरू कर सकती है! उसके बुद्धिजीवी इस दिशा मे प्रयास शुरू भी कर दिए हैं।

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