Rahul Gandhi speech :प्रतिनिधित्व से ज्यादा जरूरी : शक्ति के स्रोतों में भागीदारी
Rahul Gandhi speech : चर्चा में राहुल गांधी के भाषण: कहने वाले यहाँ तक कह रहे हैं कि उनमें पण्डित नेहरू, इंदिरा गांधी, सरदार पटेल, राजीव गांधी, अंबेडकर, कांशीराम की आत्मा एकाकार हो गई है. उनमें लोगों को भारतीय राजनीति पर युगांतरकारी प्रभाव छोड़ने वाली इन ऐतिहासिक शख्सियतों का कॉकटेल नजर आने लगा है.
एचएल दुसाध
न्यूज इंप्रेशन, संवाददाता
Delhi: भारतीय राजनीति पर राहुल गांधी की छाया दीर्घ से दीर्घतर होती जा रही है. पहले इक्के-दुक्के लोग कहते थे, अब सभी लोग एक स्वर में कहने लगे हैं कि संघ पर हमला बोलने में वह सबको पीछे छोड़ दिए हैं: यहाँ तक कि पण्डित नेहरू को भी. इसी तरह ऐसा मानने वालों की संख्या और ते़जी से बढ़ती जा रही है कि वह भारतीय राजनीति में पण्डित नेहरू से भी लंबी लकीर खीँच सकते हैं. कहने वाले यहाँ तक कह रहे हैं कि उनमें पण्डित नेहरू, इंदिरा गांधी , सरदार पटेल, राजीव गांधी, अंबेडकर, कांशीराम की आत्मा एकाकार हो गई है. उनमें लोगों को भारतीय राजनीति पर युगांतरकारी प्रभाव छोड़ने वाली इन ऐतिहासिक शख्सियतों का कॉकटेल नजर आने लगा है.उनका जादू लोगों के सिर चढ़कर इस कदर बोलने लगा है कि उनका हर भाषण भी लोगों को ऐतिहासिक लगने लगा है. यही कारण है दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान 13 जनवरी को सीलमपुर में, 27 जनवरी को महू में दिए गए उनके भाषण की खूब चर्चा हुई.इन पक्तियों के लिखे जाने के दौरान 3 फरवरी को संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान नेता विपक्ष के रुप में उनके संबोधन में वाकपटुता, संजीदगी और आक्रामकता का समावेश देखकर राजनीति के बड़े – बड़े जानकारों में उन्हें दलगत स्वार्थ से उपर उठा एक राजनीतिक दार्शनिक बताने की होड़ मच गई है.अब जहाँ तक भाषणों का सवाल है, हाल के दिनों में दिये गए उनके भाषणों में सर्वाधिक चर्चा में रहा है 30 जनवरी को महात्मा गांधी के शहादत दिवस पर दलित इंफ्लूएंसर्स द्वारा आयोजित ‘ वंचित समाज : दशा और दिशा ‘ कार्यक्रम में दिया गया उनका भाषण!
संघ के सत्ता में आने का सबब बना :कांग्रेस द्वारा दलित-पिछड़ों का भरोसा खोना
दिल्ली में दलित इंफ्लूएंसर्स के समारोह में दिए गए उनके भाषण को अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों ने अबतक के उनके टॉप के तीन भाषणों में जगह दिया है, जिस पर चर्चा का दौर आज भी जारी है. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि उसमें उनके द्वारा कही गई बातों में भारतीय राजनीति में युगांतरकारी परिवर्तन के ढेरों तत्व रहे. यदि दलित वंचित उसे अपनी मुक्ति के मंत्र के रुप में ग्रहण कर लें तथा कांग्रेस उस पर अमल करे तो उसका असर शर्तिया तौर पर युगांतरकारी हो सकता है.वैसे तो उन्होंने दलित इंफ्लूएंसर्स के मध्य ढेरों बातें कही, पर तीन बातें बहुत महत्वपूर्ण रहीं, जिनमें दो खुद उनकी पार्टी से जुड़ी थीं. अपनी पार्टी से जुड़ी जो सबसे बड़ी बात कही, वह खुद उनकी अपनी ही पार्टी की आत्मालोचना से जुड़ी थी. इस पर रोशनी डालते समय उन्होंने खुद कहा कि इससे मुझे नुकसान हो सकता है. लेकिन पार्टी के नुकसान की संभावना को दरकिनार करते हुए उन्होंने कहा,’ इंदिरा गांधी के कार्यकाल कें दौरान कांग्रेस को दलितों , अल्पसंख्यकों , पिछड़ों की पार्टी माना जाता था . इन समुदायों का पूरा भरोसा हम पर था . लेकिन 1990 के दशक मॆं दिक्कतें आईँ और यह किसी से छिपा नहीं है. पिछले 10-15 वर्षों में कांग्रेस पार्टी ने वह नहीं किया, जो उसे करना चाहिए था . अगर मैं यह नहीं कहता तो , मैं झूठ बोलूंगा. अगर कांग्रेस पार्टी ने दलितों, पिछड़ों का समर्थन और विश्वास बनाए रखा होता तो आरएसएस कभी भी सत्ता में नहीं आ सकता था.’ उनकी इस स्वीकारोक्ति की अधिकाश लोगों ने सराहना की तो कुछ ने यह कहकर उन्हें निशाने पर लिया कि ऐसा कहकर उन्होंने कांग्रेस की सारी कमियों का ठीकरा नरसिंह राव पर फोड़ दिया जो उनके परिवार से नहीं थे. लेकिन यह आरोप सही नहीं है, उन्होंने इस कथन के दायरे में खुद अपने और अपनी मां सोनिया गांधी को भी लिया, जिनका 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह सरकार में पार्टी पर पूरा नियंत्रण रहा.लेकिन इस दौरान तुलनामूलक रुप से गैर- कांग्रेसी दलों, विशेषकर भाजपा के मुकाबले बेहतर काम करने के बावजूद कांग्रेस दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का पर्याप्त भरोसा जीतने में व्यर्थ रही. वास्तव में नई सदी में 2004 –2014 तक मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस का काम भाजपा और सामाजिक न्यायवादी दलों के मुकाबले इतना बेहतर रहा, जिस पर कांग्रेस को गर्व होना चाहिए पर, इमानदारी से पार्टी की कमियां कबूलने के क्रम में राहुल गांधी उसकी भी अनदेखी कर गए.
नई सदी में कांग्रेस के दस साल बनाम भाजपा के 14 साल
1990 में मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद दलित, पिछड़ों में अधिकार चेतना का जो लम्बवत विकास हुआ, उससे सामाजिक न्यायवादी दलों के केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने का आसार उज्ज्वल हो गए. इससे वर्चस्वशाली वर्गों के नेता तक सामाजिक न्यायवादी नेताओं के शरणागत होने लगे. दलित-बहुजनों से मिले प्रबल समर्थन का लाभ उठाकर ये नेता चाहते तो उनके जीवन में सुखद बदलाव लाने लायक ठोस काम कर केंद्रीय सत्ता पर स्थाई कब्जा जमा सकते थे पर, पीएम- सीएम बनने की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पूरा करने के चक्कर में वे स्वर्णिम गंवा दिए और आज ये बहुजनों के समर्थन की बुनियाद पर विकसित अपना– अपना साम्राज्य बचाने में व्यस्त हैं. सामाजिक न्यायवादी दलों की कमियों के कारण नई सदी में भारतीय राजनीति पर जिस हिंदुत्ववादी भाजपा का वर्चस्व कायम हुआ, उसने राजसत्ता का अधिकतम उपयोग कांग्रेस सरकारों द्वारा खड़े किए उन संस्थानों को निजी हाथों में बेचने में किया, जहाँ आरक्षण पाकर हिंदू धर्म के जन्मजात शोषितों : दलित, आदिवासी, पिछड़ों के जीवन में सुखद बदलाव आ रहा था. हिंदुत्ववादी सत्ता में सिर्फ और सिर्फ हिंदू धर्म के सुविधाभोगी वर्ग का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार बढ़ा : दलित, आदिवासी और पिछड़े उस स्थिति में पहुँचते गए, जिस स्थिति में उन्हें बने रहने का निर्देश हिंदू धर्म शास्त्र देते हैं .इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे ने आरोप लगाया है कि आईआईटी और आईआईएम में सामान्य वर्ग का 80- 90 प्रतिशत कब्जा हो गया है. यह कब्जा सिर्फ उच्च शिक्षा में ही नहीं , बल्कि शक्ति के समस्त स्रोतो(आर्थिक , राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक) पर ही कायम हो चुका है. 15 जून, 2024 को प्रकाशित ‘वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब’ की रिपोर्ट के मुताबिक देश की धन- दौलत पर सामान्य वर्ग का 89% कब्जा हो गया है.ये तथ्य बतलाते हैं कि नई सदी में बहुजनवादी और हिंदुत्ववादी दलों ने दलित ,आदिवासी, पिछड़ों को बुरी तरह निराश किया है. इनकी तुलना में यदि 2004 से 2014 तक: दस वर्षों के कांग्रेस राज का आँकलन किया जाय तो साफ दिखेगा कि नई सदी में दलित , आदिवासी , पिछड़ों के हित में थोड़ा – बहुत जो भी सकारात्मक काम हुआ , वह कांग्रेस के ही कार्यकाल में हुआ है, जिसमें प्रधानमंत्री तो रहे डॉ. मनमोहन सिंह पर, कांग्रेस पार्टी पर नियंत्रण राहुल गांधी और उनकी मां सोनिया गाँधी का ही रहा.
नई सदी में भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वर्णिम काल रहा: मनमोहन सिंह के दस साल
2004 में सत्ता में आने के साथ ही डॉ. मनमोहन सिंह ने हिंदुत्ववादी अटल बिहारी वाजपेयी के उस विनिवेश नीति पर अंकुश लगाया, जिसके सहारे वह चरम अंबेडकर विरोधी अरुण शौरी को संगी बनाकर दलित – बहुजनों को गुलामों की स्थिति में पहुँचाने के लिए निर्ममता से देश बेच रहे थे. मनमोहन सिंह ने सिर्फ देश बेचने के वाजपेयी के मंसूबों पर ही पानी नहीं फेरा , बल्कि दलित- वंचितों के हित में अपने कार्यकाल में लगभग डेढ़ दर्जन नए पीएसयू भी खड़े किए. उन्हीं के कार्यकाल में 2006 में मंडल –2 का दौर देश ने देखा , जब वर्चस्वशाली वर्ग के प्रबल विरोध के मध्य उच्च शिक्षा में पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू हुआ. उन्हीं के राज में 2012 में दलित, आदिवासियों की पेट्रोलियम प्रोडक्ट के डीलरशिप में पिछड़ों को भी आरक्षण मिला. इस दौर में मनमोहन सिंह ने जो राजीव गांधी फेलोशिप लागू किया , उससे कई हजार दलित – आदिवासियों का कॉलेज – विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर बनने का सपना पूरा हुआ. 2004 से 2014 तक के दस वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था के स्वर्णिम काल रहे. इस ऐतिहासिक दशक में जीडीपी औसतन 8.1% की दर से बढ़ी. 2006- 07 में वास्तविक जीडीपी वृद्धि रिकॉर्ड 10. 08 % तक पहुंच गयी, जो आजाद भारत के इतिहास में तब तक की दूसरी बड़ी जीडीपी के रुप में रिकॉर्ड बनाई जो 1988-89 में राजीव गांधी के कार्यकाल मके दौरान हासिल की गयी 10.2% के पीछे है.
2004 – 14 के दस वर्षों में डॉ . सिंह के प्रधानमंत्रित्व में 271 मिलियन लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकालना एक महान उपलब्धि रही. इसके अतिरिक्त कुछ और ऐस काम किये , जिनके समक्ष नई सदी में बहुजन हित के मामले में भाजपा सरकारें कांग्रेस के मुकाबले बौनी दिखती हैं. उन दस वर्षों में 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम),2009 में भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीआई), महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम , 2005 में मनरेगा, बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम , 2009 में आरटीआई, 2011 में शहरों में गरीबों और बेघरों को आवास प्रदान करने वाली राजीव आवास योजना (आरएवाई ) , 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 , भूमि अधिग्रहण , पुनर्वास और पुनर्वास में उचित मुआवजे और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम 2013 सहित सूचना का अधिकार अधिनियम जैसे कई काम ऐसे रहे,जिसे याद कर दूसरे दलों में इर्ष्या उठती होगी. नई सदी में कांग्रेसी दिग्विजय सिंह ने 2002 के 12-13 जनवरी तक भोपाल सम्मेलन के जरिये भारत कें राजनीतिक क्षितिज पर अमेरिका में लागू डायवर्सिटी को स्थापित करने का जो काम किया , उसके सुदूर प्रसारी परिणाम अब सामने आने लगे है. 27 अगस्त , 2002 को उन्होंने सप्लायर डायवर्सिटी लागू किया , उससे दलित –अदिवासियों में नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप , ठेकेदारी, फिल्म- मीडिया इत्यादि में हिस्सेदारी की चाह पनपी और कई सरकारें इस चाह का सम्मान करने के लिए आगे भी आईं. डॉ. मनमोहन सिंह अमेरिका के डायवर्सिटी पैटर्न पर निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए जो प्रयास किया, वह एक ऐतिहासिक महत्व का काम रहा.
कांग्रेस में भाजपा के स्लीपर सेल
कुल मिलाकर नई सदी में जिस भाजपा ने अपने 14 साल के कार्यकाल में दलित, आदिवासी , पिछड़ों को आरक्षण से वंचित करने के लिए देश बेचने में खुद को मुस्तैद रखा तथा देश में नफ़रत का सैलाब पैदा किया, उससे कांग्रेस के समक्ष दलित, आदिवासी, पिछड़ों का भरोसा खोने जैस हालात नहीं पनपना चाहिए था पर, पनपा तो उसके लिए जिम्मेवार रहे कांग्रेस संगठन पर काबिज उच्च वर्ण के लोग जो तन से तो कांग्रेस में रहे ,पर मन उनका भाजपा मे रमता रहा. अगर वे वाजपेयी के बाद मोदी के चरम बहुजन विरोधी कामों को ठीक से वंचितों के बीच ले गए होते तो कांग्रेस इतनी दुर्बल न दिखती. लेकिन वह ऐसा इसलिए न कर सके ,क्योंकि मोदी ने जिस तरह वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए शक्ति के समस्त स्रोतों पर सवर्ण प्रभुत्व स्थापित करने का उपक्रम चलाया, उससे आम सवर्णों के साथ कांग्रेस में शामिल सवर्ण भी भाजपा के साथ अपना भविष्य जोड़ लिये और कांग्रेस में रहते हुए भाजपा के ‘ स्लीपर सेल’ का काम करने लगे. यह परीक्षित सत्य है कि चुनाव को यदि सामाजिक न्याय पर केंद्रित किया जाय तों भाजपा कभी जीत ही नहीं सकती . इस बात को ध्यान मॆं रखते हुए कांग्रेस ने फरवरी 2023 में रायपुर के अपने 85 वें अधिवेशन में खुद में आमूल परिवर्तन करते अपनी राजनीति सामाजिक न्याय पर केंद्रित किया, जिसका सुफल उसे कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मिला. कर्नाटक चुनाव में जिस तरह दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक कांग्रेस से जुड़े पार्टी ने 2024 के लोकसभा चुनाव को सामाजिक न्याय पर केंद्रित करने का मन बनाया . इसके बाद सामाजिक न्याय के नए आइकॉन के रुप में उभरे राहुल गांधी ने 14 जनवरी से शुरु ‘भारत जोड़ों न्याय यात्रा’ से लेकर लोकसभा चुनाव के आखिरी दिन सामाजिक न्याय पर जोर दिया उससे चुनावी फिजा पूरी तरह बदल गई. लेकिन इस प्रयास में राहुल गांधी सिर्फ मोदी के 400 पार के मंसूबों पर पानी फेरने व पार्टी की सीटें 100 तक पहुँचाने में कामयाब रहे. चुनाव में भारी संभावना जगाकर भी पार्टी को केंद्र की सत्ता पर काबिज कराने में इसलिये विफल रहे क्योंकि उनके दल में शामिल सवर्ण नेताओं ने उनके सुर में सुर मिलाते हुए सामाजिक न्याय के एजेंडे को जन- जन तक पहुँचाने में नहीं के बराबर रुचि लिया . परिणामस्वरुप सवर्ण हितों के चैंपियन मोदी किसी तरह फिर सत्ता में आ गए. लेकिन नेता विपक्ष के रुप में राहुल गांधी ने जिस तरह मोदी को निस्तेज किया, उससे लगा भाजपा का अंत शुरु हो गया है. पर, लोकसभा चुनाव बाद हुए विधानसभा चुनावों ने इस भ्रम को तोड़ दिया. भाजपा विस्मित करते हुए जहाँ अप्रत्याशित सफलता हासिल की , वहीं मोदी भी धीरे-धीरे अपना खंडित आत्मविश्वास हासिल करने लगे. इसके पृष्ठ में राजनीतिक विश्लेषकों ने जो एकाधिक कारण चिन्हित किए , उनमें एक रहा कांग्रेस में सक्रिय भाजपा के स्लीपर सेल का खेल!
राहुल गांधी का आंतरिक क्रांति का आह्वान
लोगों को विस्मय हो रह था कि भाजपा के स्लीपर सेल कि भूमिका को देखते हुए भी राहुल गांधी चुप क्यों हैं. लेकिन वह चुप नहीं थे , लम्बे समय से मोदी द्वारा इनके सफाई का इंतजार करते हुए वह सही मौके की तलाश में थे, जिसका इज़हार उन्होंने दलित इंफ्लूएंसर्स के मध्य कर दिया! उन्होने 30 जनवरी को उनके मध्य कह दिया ,’ इसका मतलब है कि पार्टी में आंतरिक क्रांति होनी चाहिय, जिसमें वंचित लोगों को शामिल किया जाना चाहिए और इसमें हम आपको घुसाएंगे. जनता के बीच फूट डालकर बीजेपी और आरएसएस राज कर रहे हैं. जिस दिन हम एकजुट हो जाएंगे, वे भाग जाएंगे. जिस दिन कांग्रेस पार्टी का मूल आधार एकजुट हो जाएगा बीजेपी , आरएसएस भाग जायेंगे. हमें दलितों , पिछड़ों , अति-पिछड़ों , अल्पसंख्यकों को सुनना होगा और उन्हें आगे बढ़ाना होगा, लेकिन मुझे लगता है इसमें कुछ साल लगेंगे.’ तमाम लोग अरसे से कह रहे थे कि उन्होंने दलित, पिछड़ों को जोड़ने के लिये सब कुछ किया है, पर पार्टी को बहुजन चेहरा प्रदान करने के लिए, रायपुर अधिवेशन में घोषणा के बावजूद संगठन में दलित पिछड़ों को जगह देने के लिए कोई ठोस काम नहीं हो रहा था. राहुल गांधी की आंतरिक क्रांति की घोषणा के बाद लगता है पार्टी का चेहरा बहुजनवादी हो जायेगा और कांग्रेस अपना खोया जनाधार पा लेगी !
सत्ता से जरुरी है : शक्ति के स्रोतों में भागीदारी
दलित इंफ्लूएंसर्स के समारोह में आंतरिक क्रांति की घोषणा के बाद राहुल गांधी नेइ जो सबसे महत्वपूर्ण संदेश दिया , वह यह कि सत्ता से जरूरी है पॉवर स्ट्रचर में हिस्सेदारी. उन्होंने कहा,’ आप राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात करते हैं और कांशीराम ने इसके लिए लड़ाई लड़ीं .लेकिन उन्होंने राजनीतिक प्रतिनिधित्व को अप्रासंगिक बना दिया है. हमें संस्थानों में हिस्सा हासिल करना होगा. चाहे वह शिक्षा हो या कार्पोरेट इंडिया या न्यायपालिका : हर जगह हमारी भागीदारी होनी चाहिए. क्योंकि आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व में में बड़ा अंतर है. मैंने संसद में कहा था कि पिछड़ों की 50 प्रतिशत आबादी है लेकिन सत्ता का हिस्सा केवल 5 प्रतिशत है. दलितों की 15 प्रतिशत आबादी है, लेकिन सत्ता का हिस्सा केवल एक प्रतिशत है. अगला सवाल सत्ता और संपत्ति का है.’राहुल गांधी का सत्ता और संपत्ति में हिस्सेदारी का अह्वान बेहद क्रांतिकारी एलान है. ऐसा एलान अबतक दलित- वंचितों के हित की बात करने वाले किसी ने नहीं की : सबका जोर सत्ता में भागीदारी तक रहा.सत्ता से आगे बढ़े तो कोई जमीन में हिस्सेदारी देने की बात उठाया , तो किसी ने निजी क्षेत्र ,प्रमोशन , न्यायपालिका में आरक्षण की बात उठाया, लेकिन किसी ने भी राहुल गांधी की तरह दलित पिछड़ों को निजी क्षेत्र की कंपनियों , विश्वविद्यालयों, मीडिया में हिस्सेदारी की बात नहीं उठाया . अब जब राहुल गांधी यह सब उठा रहे हैं, उससे निश्चय ही दलित, पिछड़ों की साइक में बड़ा बदलाव आयेगा. दलित ,आदिवासी , पिछड़ों इत्यादि की सबसे बडी़ समस्या यह है कि जिस तरह हिंदू धर्म के प्रावधानों के तहत इन्हें शक्ति के समस्त स्रोतों से सदियों से सदूर रखा गया,इनके अंदर की महत्वाकांक्षा कपूर की भांति सदा के लिये उड़ गई. इनमें चन्द्र्गुप्त मौर्य जैसा राजा, टाटा– बिडला जैसा उद्योगपति, या किसी धाम का शंकराचार्य बनने की महत्वाकांक्षा न पनप सकी . अवश्य ही कांशीराम के प्रयासों से इनमें शासक बनने भावना तो पनपी पर, उद्योगपति , व्यापारी , शंकराचार्य बनने की महत्वकांक्षा नहीं. लेकिन राहुल गांधी के प्रयास से यह पनपेगी और वे राजनीति से आगे बढ़कर समस्त क्षेत्रों हिस्सेदारी लेने की मानसिकता से पुष्ट होंगे, ऐसा लगने लगा है और जिस दिन ऐसा हुआ, देश की शक्ल बदल जायेगी!
( लेखक बहुजन डायवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)