Poem: बस इतना सा फर्क़ है
Poem: बस इतना सा फर्क़ है
न्यूज इंप्रेशन
Lucknow: बस इतना सा फर्क़ है
हमारी और तुम्हारी सोच का
हमें कोई मलाल नही
तुम्हारी मखमली चादर, कालीन से
फिर क्यों आती है बू तुम्हें
मेरे मिट्टी से सने पैरों से
फिर भी मुझे ही देते हो उपदेश
समग्रता और रचनात्मक भावना की
हमेशा ही हमने किया है आग्रह
समता और भ्रातृत्व भाव का
पुरातन दुराग्रह के प्रतिकार को
तुमने मान लिया मेरा विग्रह
दोष तुम्हारा है कटघरे में
खड़ा कर दिया हमें
कब तक इंसान बनने से
रहेगा नफ़रत तुम्हें
इंसान बनना क्या है इतना दुरूह
सोच से ही कांप जाती है तुम्हारी रूह
हम न्याय को देते हैं तरजीह
तुम्हारा डीएनए है तांडव का शमशीर
इसे ही कहते हो ब्राह्मज्ञान
थू! ऐतराज है हमें।
(गौतम राणे सागर)