मैं खुद से शर्मिंदा हूं, गलतियां रोज़ वही करता हूं

मैं खुद से शर्मिंदा हूं, गलतियां रोज़ वही करता हूं

 

क्रांति श्रीवास्तव

न्यूज इंप्रेशन

Bokaro: जानते हो!

मैं खुद से शर्मिंदा हूं,

हर सुबह सोचता हूं

हाय! मैं आज भी जिंदा हूं।

गलतियां रोज़ वही करता हूं,

भूल जाता हूं कि चश्मा कहां रखता हूं,

चाहता नहीं

फिर भी हाथ से कप छूट ही जाता है ,

कांच के कप के साथ-साथ रिश्ते का तार भी टूट जाता है।

भूल जाता हूं

इस बात पर तिरस्कार हुआ था कल,

आज फिर उन्हीं गलती पर

वैसे ही डांट खाता हूं।

टहलने रोज़ निकलता हूं

गले में लटके आईडी कार्ड के सहारे

घर का पता ढूंढ ही लेता हूं।

सच कहूं,

दूसरों से बात करने में डरने लगा हूं

रोज हर पल मरने लगा हूं,

सांसें हैं जो रुकती नहीं

जिंदगी चल रही है

पर हंसती नहीं।

गीला बिस्तर देख

खुद पर शर्माता हूं,

अपनों के बीच

अपने को अनजान पाता हूं।

जिन बच्चों से प्यार है अथाह

उनकी ऊंची आवाज से अब सहम जाता हूं।

रोज़ सुबह उठकर यही सोचता हूं,

फिर वही तिरस्कार सहूंगा,

फिर वही गलतियां करूंगा,

जिस पर मेरा बस नहीं

और बड़ी निर्लज्जता से सांस लेता

जीता रहूंगा।

 

नोट:- उम्र के साथ बढ़ती है क्या बीमारी, एक बुजुर्ग के लिए कितनी बड़ी त्रासदी है यह, शायद कोई महसूस नहीं कर सकता।

यह कविता उनकी भावनाओं को आपके सामने रखने एक प्रयास है।

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