OBC News: ओबीसी वर्ग के पिछड़ेपन का कारण और निवारण                                      

OBC News: ओबीसी वर्ग के पिछड़ेपन के कारण का सवाल है, आम से लेकर खास विद्वान तक इस बात से एकमत हैं कि इसके लिए जिम्मेवार वह वर्ण- व्यवस्था रही, जिसके द्वारा सहस्रों साल से भारत का हिन्दू समाज परिचालित होता रहा है.

लेखक एच एल दुसाध 

न्यूज इंप्रेशन 

Delhi: पिछले साल- डेढ़ साल से जिस तरह राहुल गांधी लगातार कहे जा रहे हैं कि देश में जो 500 बड़ी कम्पनियाँ हैं, निजी विश्वविद्यालय हैं; हास्पिटल, अखबार और मीडिया संस्थान इत्यादि हैं उनमे कितनों के मालिक और मैनेजर दलित, आदिवासी, पिछड़ों के हैं ? हमारा उद्देश्य आर्थिक और सामाजिक न्याय सुनिश्चित कराना है और जाति जनगणना इस दिशा में पहला कदम है. इस क्रम में वह ज्यादा जोर ओबीसी की वंचना पर दे रहे हैं. हाल ही में 25 जुलाई को बहुचर्चित ओबीसी भागीदारी न्याय सम्मलेन में उन्होंने कहा,‘ मैं 2004 से राजनीति कर रहा हूँ. जब अपना मूल्यांकन करता हूँ तो पाता हूँ कि कहीं अच्छा काम किया तो कहीं कमी रह गई… आदिवासियों , दलितों और अल्पसंख्यकों की बात हो, मुझे अच्छे नंबर मिलने चाहिए. लेकिन मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो एक बात स्पष्ट दिखती है कि एक चीज में कमी रह गई थी . यह एक गलती मैंने की , वह यह कि ओबीसी वर्ग के हितों की रक्षा जिस तरह से करनी चाहिए थी वो मैंने नहीं की.इसका कारण यह है कि आपके मुद्दे मुझे उस समय तक गहराई से समझ में नहीं आए थे.. दलितों की कठिनाई को समझना आसान है , आदिवासियों के मुद्दे भी आसानी से समझ में आ जाते हैं. लेकिन ओबीसी की मुश्किलें या मुद्दे आसानी से नहीं दिखते.मुझे अगर आपके हिस्ट्री की जानकारी होती , मैं कबका जाति जनगणना करा दिया होता,’ जननायक राहुल गांधी द्वारा ओबीसी की वंचना पर लगातार चिंता जाहिर करने से इस वर्ग की समस्या चर्चा के केंद्र में आ गई है. राजनीतिक विश्लेषक और बुद्धिजीवी इस वर्ग के पिछड़ेपन के कारणों की तफ्तीश करने व निवारण का उपाय सुझाने में जुट गए हैं.

ओबीसी के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेवार: हिन्दू आरक्षण

जहां तक ओबीसी वर्ग के पिछड़ेपन के कारण का सवाल है, आम से लेकर खास विद्वान तक इस बात से एकमत हैं कि इसके लिए जिम्मेवार वह वर्ण- व्यवस्था रही, जिसके द्वारा सहस्रों साल से भारत का हिन्दू समाज परिचालित होता रहा है और जब वर्ण- व्यवस्था ही इनके दुर्दशा का कारण रही तब हमें यह देखना होगा कि यह कैसे पिछड़े वर्गों के लिए अहितकर हो गई. इसे जानने के लिए कर्म आधारित वर्ण- व्यवस्था की विशेषता जान लेना जरुरी है. दैवीय- सृष्ट वर्ण- व्यवस्था उस हिन्दू धर्म का प्राणाधार रही और जिसे हिन्दू धर्म धर्म कहा जाता है , उसका अनुपालन कर्म आधारित वर्ण – व्यवस्था के जरिये ही होता रहा है. हिन्दू धर्म का प्राण वर्ण- व्यवस्था मूलतः शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक , शैक्षिक और धार्मिक – के बंटवारे की व्यवस्था रही. शक्ति के स्रोतों का बंटवारा चार वर्णों- ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र(ओबीसी) अतिशूद्रों(अस्पृश्यों) – के लिए निर्दिष्ट पेशे/ कर्मों के जरिये किया गया. विभिन्न वर्णों के लिए निदिष्ट कर्म ही उनके धर्म रहे. वर्ण – व्यवस्था में ब्राह्मण का धर्म(कर्म ) अध्ययन- अध्यापन , राज्य संचालन में मंत्रणा- दान और पौरोहित्य रहा. क्षत्रिय का धर्म भूस्वामित्व, सैन्य- वृत्ति एवं राज्य –संचालन रहा , जबकि वैश्य का कर्म(धर्म) पशुपालन एवं व्यवसाय- वाणिज्य रहा. शुद्रातिशूद्रों का धर्म(कर्म) रहा तीन उच्चतर वर्णों(ब्राह्मण- क्षत्रिय और वैश्यों) की निष्काम सेवा. वर्ण- धर्म में पेशों की विचलनशीलता निषिद्ध रही , क्योंकि इससे कर्म- संकरता की सृष्टि होती और कर्म-संकरता धर्मशास्त्रों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध रही. कर्म-संकरता की सृष्टि होने पर इहलोक में राजदंड तो परलोक में नरक का सामना करना पड़ता. धर्मशास्त्रों द्वारा पेशे/ कर्मों के विचलनशीलता की निषेधाज्ञा के फलस्वरूप वर्ण- व्यवस्था ने एक आरक्षण –व्यवस्था: हिन्दू आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया , जिसमें भिन्न- भिन्न वर्णों के निर्दिष्ट पेशे/कर्म , उनके लिए अपरिवर्तित रूप से चिरकाल के लिए आरक्षित होकर रह गए. इस क्रम में हिन्दू आरक्षण में ब्राह्मणों के लिए पौरोहित्य व बौद्धिक पेशे तो क्षत्रियों के लिए भूस्वामित्व , राज्य संचालन और सैन्य-कार्य तो वैश्यों के लिए पशु-पालन व व्यवसाय- वाणिज्य के कार्य चिरकाल के लिए आरक्षित होकर रह गये.हिन्दू आरक्षण में शुद्रातिशूद्रों के हिस्से में शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक , धार्मिक – एक कतरा भी नहीं आया.

वर्ण – व्यवस्था के वितरणवादी चरित्र के कारण ही आज पिछड़े-अतिपिछडे की 3,743 जातियों में विभाजित ओबीसी वर्ग चिरकाल के लिए पिछड़ा और अशक्त समुदाय में तब्दील होने के लिए अभिशप्त हुआ !इस व्यवस्था में उनके लिए लिखना पढना अधर्म रहा. अधर्म रहा राज- काज में भाग लेना और हथियार स्पर्श करना. अधर्म रहा मोक्ष और परलौकिक सुख के लिए अध्यात्मानुशीलन: इसी अधर्म के कारण शुद्र ऋषि शम्बूक का सिर कलम हुआ. वर्ण- व्यवस्था में ओबीसी के लिए अधर्म रहा पशुपालन और व्यवसाय- वाणिज्य का कार्य! उनका धर्म(कर्म) रहा , सिर्फ तीन उच्च वर्णों की सेवा, वह भी पारिश्रमिक रहित. शस्त्रों और शास्त्रों के जरिये इसी धर्म पालन के लिए बाध्य किये जाने के कारण ओबीसी वर्ग के लोग हजारों साल से शक्ति के समस्त स्रोतों से पूरी बुरी तरह बहिष्कृत रहे और स्वाधीन भारत में संविधान द्वारा कुछ रक्षोपाय किये जाने के बावजूद आज भी वे बदहाली के दलदल में बुरी तरह फंसे हुए हैं. वर्ण- व्यवस्था उर्फ़ हिन्दू आरक्षण – व्यवस्था के गहन अध्ययन से साफ़ नजर आता है कि इसका प्रवर्तन सिर्फ चिरकाल काल के लिए सुपरिकल्पित रूप से शक्ति के समस्त स्रोत हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग(मुख- बाहु- जंघे) से जन्मे लोगों को आरक्षित करने के मकसद से किया गया था. यहां यह भी गौर करना जरुरी है कि इसमें आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक अधिकार सिर्फ उच्च वर्णों के पुरषों के लिए आरक्षित हुए : उनकी आधी आबादी शुद्रातिशूद्रों की भांति ही शक्ति के स्रोतों से प्रायः पूरी तरह बहिष्कृत रही.इससे साफ़ नजर आयेगा कि वर्ण- व्यवस्थाधारित हिन्दू धर्म का पूरा ताना- बाना उच्च वर्णों के रूप में हिन्दुओं की अत्यंत अल्पसंख्यक आबादी को , जिनकी संख्या आज की तारीख में बमुश्किल 7.5% हो सकती है, स्थाई तौर पर शक्ति के समस्त स्रोतों से लैस करने को ध्यान में रखकर बुना गया था.

वर्ण-व्यवस्था के निर्माण के पीछे साम्राज्यवादी सोच

बहरहाल वर्ण-व्यवस्था का एक विशेष आरक्षण- व्यवस्था (हिन्दू आरक्षण- व्यवस्था) के रूप में तब्दील होना महज संयोग नहीं रहा. इसे बहुत ही सुपरिकल्पित तरीके से एक आरक्षण व्यवस्था का रूप दिया गया , इस तथ्य का सुराग जवाहरलाल नेहरु द्वारा वर्ण व्यवस्था के निर्माण के पीछे की गई इस टिपण्णी को पकड़ कर पा जाते हैं.’ वर्ण – भेद , जिसका मकसद आर्यों को अनार्यों से जुदा करना था, अब खुद आर्यों पर अपना यह असर लाया कि ज्यों-ज्यों धंधे बढे और इनका आपस में बंटवारा हुआ, त्यों-त्यों नए वर्गों ने वर्ण या जाति की शक्ल ले ली. इस तरह ,एक ऐसे जमाने में, जब फ़तेह करने वालों का कायदा रहा कि हारे हुए लोगों को या तो गुलाम बना लेने , या उन्हें बिलकुल मिटा देते थे , वर्ण व्यवस्था ने एक शान्ति वाला हल पेश किया और धंधों के बंटवारे की जरुरत से इसमें वैश्य बने, जिनमें किसान, कारीगर और व्यापारी लोग थे ; क्षत्रिय हुए जो हुकुमत करते या युद्ध करते ; ब्राह्मण बने जो पुरोहिती करते थे , विचारक थे , जिनके हाथ में नीति की बागडोर थी और जिनसे यह उम्मीद की थी कि वे जाति के आदर्शों की रक्षा करेंगे. इन तीनों से नीचे शुद्र थे , जो मजदूरी करते , जिनमे खास जानकारी की जरुरत नहीं होती और जो किसान से अलग थे . कदीम वाशिंदों से भी बहुत से इन समाजों में मिला लिए गए और उन्हें शूद्रों के साथ इस समाज व्यवस्था में सबसे नीचे का दर्जा दिया गया.‘

वास्तव में आर्यों ने वर्ण-व्यवस्था को जो आरक्षण का रूप दिया, उसे विजेताओं का धर्म भी कहा जा सकता है. इतिहास के हर काल में विदेशागत विजेताओं ने पराधीन बनाये गए मूलनिवासियों के देश की संपदा – संसाधनों का उपयोग स्व- वर्ग के हित में करने और उनको अपना दास बनाने के लिए विशेष व्यवस्था का निर्माण किया . विजेताओं की वही विशेष सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था धर्माधारित वर्ण-व्यवस्था के रूप में वजूद में आई! साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व कब्ज़ा भारत- भूमि पर कब्ज़ा जमाये आर्यों ने विजेताओं की स्वाभाविक आकांक्षा के वशीभूत होकर अपनी वर्तमान और भविष्य की पीढी के हित में वर्ण-व्यवस्था का निर्माण किया , जिसके फलस्वरूप शक्ति के समस्त चिरकाल के लिए हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्में लोगों के लिए आरक्षित होकर रह गए. वास्तव में शक्ति के समस्त स्रोतों पर चिरकाल के लिए एकाधिकार जमाये रखने के लिए आर्यों के लिए वर्ण-व्यवस्था से बेहतर कोई व्यवस्था हो नहीं सकती थी . इसी कारण हजारो साल से भारत का अर्थतंत्र उस वर्ण- व्यवस्था में प्रवाहमान होता रहा , जो मूलतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था के रूप में क्रियाशील रही है!

हिन्दू आरक्षण के खिलाफ बहुजन नायकों का ऐतिहासिक संग्राम

दुनिया के महान समाज विज्ञानी कार्ल मार्क्स के अनुसार दुनिया का इतिहास अगर वर्ग संघर्ष का इतिहास है तो भारत में वह आरक्षण में क्रियाशील रहा . कारण, वितरणवादी वर्ण-व्यवस्था से भारत में प्रभुत्वशाली और सर्वहारा : उन दो वर्गों का निर्माण हुआ, जो मार्क्स के अनुसार उत्पादन के साधनों के असमान वितरण के मुद्दे पर दुनिया के हर देश और हर काल में परस्पर संघर्षरत रहे. वर्ण – व्यवस्था द्वारा सर्वस्व- हारा में तब्दील किये गए मूलनिवासी हजारों साल से शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी के लिए हिन्दू आरक्षणवादियों के खिलाफ संघर्षरत रहे. मध्ययुग में अगर इस संघर्ष को रैदास , कबीर, चोखामेला इत्यादि संतों ने नेतृत्व दिया तो आधुनिक भारत में फुले , शाहूजी , पेरियार इत्यादि शूद्रों के साथ दलित बाबा साहेब नेतृत्व दिया. सबसे पहले भारत समाज को आर्य – आर्येतर दो भागों बंटने वाले ज्योतिराव फुले कांटे से कांटा निकालने की योजना के तहत 1873 में अपनी महानतम रचना ‘गुलामगिरी’ में आरक्षण रूपी हथियार को सामने लाया. बाद में इसी हथियार का इस्तेमाल करते हुए उनके योग्य अनुसरणकारी शाहूजी महाराज ने 26 जुलाई , 1902 को कोल्हापुर में पिछड़ों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण लागू कर हिन्दू आरक्षण के खिलाफ एक क्रांति ही घटित कर दिया. दो दशकों के अंतराल के बाद इसी हिन्दू आरक्षण के खिलाफ संघर्ष चला कर ‘दक्षिण एशिया के सुकरात’ पेरियार ने दक्षिण भारत का इतिहास ही बदल दिया. उन्होंने जस्टिस पार्टी के तत्वावधान में 27 दिसंबर, 1929 को पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 70 प्रतिशत आरक्षण का अध्यादेश ही जारी करवा दिया. यह अध्यादेश तमिलनाडु में ‘कम्युनल जीओ’ के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हुआ, जिसमें सभी जाति- धर्मों के लोगों के लिए उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान था. भारत में कानूनन आरक्षण की वह पहली व्यवस्था थी .लेकिन कानूनन आरक्षण को बड़ा विस्तार तब मिला , जब डॉ. आंबेडकर संघर्षों के फलस्वरूप पूना पैक्ट के जरिये दलित- आदिवासियों को आरक्षण मिला,जिसमें सरकारी नौकारियों के साथ संसद/ विधासभा की सीटों में भी आरक्षण का प्रावधान था. बाद में उन्होंने संविधान की धारा 335 के अनुसार एससी – एसटी के लिए सरकारी नौकरियों में सीटें आरक्षित करने का प्रधान किया, तो धारा 334 केन्द्रीय संसद एवं प्रत्येक राज्य की विधानसभाओं में निर्दिष्ट संख्यक सीटें आरक्षित करने का प्रावधान रचा. इसी संविधान में जो धारा 340 का प्रावधान रचा उससे परवर्ती काल में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार ओबीसी को भी आरक्षण मिला!

मंडल की घोषणा होते ही खुलकर शुरू हो गया था : आरक्षण पर वर्ग संघर्ष

हजारों साल से भारत के विशेषाधिकारयुक्त जन्मजात सुविधाभोगी और वंचित बहुजन समाज: दो वर्गों के मध्य आरक्षण पर जो अनवरत संघर्ष जारी रहा, उसमें 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद एक नया मोड़ आ गया. इसके बाद शुरू हुआ आरक्षण पर संघर्ष का एक नया दौर. मंडलवादी आरक्षण ने परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित एवं राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील कर दिया. ऐसे में सुविधाभोगी वर्ग के तमाम तबके – छात्र और उनके अभिभावक, लेखक और पत्रकार , साधु-संत और धन्ना सेठ तथा राजनीतिक दल – अपने –अपने स्तर पर आरक्षण के खात्मे और वर्ग-शत्रुओं को फिनिश करने में मुस्तैद हो गए. बहरहाल मंडल के बाद वर्ग शत्रुओं को फिनिश करने में जुटा भारत का जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग भाग्यवान था जो उसे जल्द ही ‘नवउदारीकरण’ का हथियार मिल गया, जिसे नरसिंह राव ने सोत्साह वरण कर लिया. इसी नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर राव ने हजारों साल के सुविधाभोगी वर्ग के वर्चस्व को नए सिरे से स्थापित करने की बुनियाद रखी, जिसपर महल खड़ा करने की जिम्मेवारी परवर्तीकाल में अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आई. इनमें डॉ.मनमोहन सिंह अ-हिंदू होने के कारण बहुजनों के प्रति वर्ग- मित्र की भूमिका अदा करते हुए नवउदारीकरण की नीतियों को कुछ हद मानवीय चेहरा प्रदान करने का प्रयास किये. इसी क्रम में ओबीसी को उच्च शिक्षा में आरक्षण मिलने के साथ बहुजनों को उद्यमिता के क्षेत्र में कुछ-कुछ बढ़ावा दिया. किन्तु वाजपेयी और मोदी हिन्दू होने के साथ उस संघ प्रशिक्षित पीएम रहे, जो संघ हिन्दू धर्मशास्त्रों में अपार आस्था रखने के कारण गैर- सवर्णों को शक्ति के स्रोतों के भोग का अनाधिकारी समझता है . मार्क्स ने वर्ग संघर्ष के इतिहास की व्याख्या करते हुए यह अप्रिय सचाई बताया है कि वर्ग संघर्ष में प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है. मंडल के बाद भारत में जो नए सिरे से वर्ग संघर्ष शुरू हुआ, उसमें शासक वर्ग के हित-पोषण के लिए वाजपेयी और मोदी ने जिस निर्ममता से राज्य का इस्तेमाल अपने वर्ग शत्रुओं अर्थात बहुजनों के खिलाफ किया,उसकी मिसाल वर्ग संघर्ष के इतिहास में मिलनी मुश्किल है. मंडल से हुई क्षति की भरपाई के लिए ही उन्होंने अंधाधुन सरकारी उपक्रमों को बेचने जैसा विशुद्ध देश-विरोधी काम अंजाम देने में सर्वशक्ति लगाया ताकि आरक्षण से मूलनिवासी बहुजनों को महरूम किया जा सके. इस मामले में जिस मोदी ने वाजपेयी तक को बौना बनाया, उस मोदी के शासन में आरक्षण के खात्मे तथा जन्मजात सर्वस्वहारा वर्ग की खुशिया छीनने की कुत्सित योजना के तहत श्रम कानूनों को निरन्तर कमजोर करने तथा नियमित मजदूरी की जगह ठेकेदारी-प्रथा को बढ़ावा देने में राज्य का अभूतपूर्व उपयोग हुआ. आरक्षण के खात्मे की योजना के तहत ही सुरक्षा तक से जुड़े उपक्रमों में 100 प्रतिशत एफडीआई को मंजूरी दी गयी. पिछड़ों के साथ दलित- आदिवासियों को आरक्षण से महरूम करने के लिए ही हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों , हास्पिटलों इत्यादि को निजीक्षेत्र में देने लिए राज्य का इस्तेमाल हो रहा है. वर्ग शत्रुओं को गुलामों की स्थिति में पहुचाने की दूरगामी योजना के तहत विनिवेशीकरण, निजीकरण के साथ लैटरल इंट्री में राज्य का अंधाधुंन उपयोग हो रहा है. जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में सबकुछ सौपने के खतरनाक इरादे से ही दुनिया के सबसे बड़े जन्मजात शोषकों को ईडब्ल्यूएस के तहत 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया. कुल मिलाकर मंडलवादी आरक्षण के खिलाफ गोलबंद हुए प्रभुत्वशाली वर्ग की ओर से राज्य के निर्मम उपयोग के फलस्वरूप भारत का सर्वस्व-हारा वर्ग उस स्टेज में पहुंचा दिया गया है, जिस स्टेज में पहुँच कर सारी दुनिया में ही वंचितों को शासकों के खिलाफ स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा. इसी स्टेज में पहुचने पर इंडियन लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई छेड़नी पड़ी थी .

अब क्या करें : ओबीसी बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट!

बहरहाल अब लाख टके का सवाल है मंडलोत्तर काल में भारत के प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा छेड़े गए इकतरफा वर्ग संघर्ष के फलस्वरूप जो जन्मजात सर्वस्वहारा वर्ग(पिछड़ों के साथ दलित , आदिवासी ) गुलामों की स्थिति में पहुच गया है, उसको आजाद कैसे किया जाय ! कारण , इस दैविक सर्वहारा वर्ग को अपनी गुलामी का इल्म ही नहीं है. उसे राष्ट्रवाद के नशे में इस तरह मतवाला बना दिया गया है कि वह धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की बदहाली देखकर अपनी बर्बादी भूल गया है. ऐसे में जन्मजात शोषितों को लिबरेट करना दूसरे देशों के गुलामों के मुकाबले कई गुना चुनौतीपूर्ण काम बन चुका है. लेकिन चुनौतीपूर्ण होने के बावजूद दो उपायों से पिछड़ों सहित वर्ण-व्यवस्था के सभी वंचित समूहों को लिबरेट किया जा सकता है. और वे दो उपाय हैं : बहुजनों में सापेक्षिक भावना का प्रसार और संघ- भाजपा के बरक्स उनको शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी का वैकल्पिक एजेंडा देना !

काबिले गौर है कि संघ प्रशिक्षित मोदी के ए टू जेड : हर पॉलिटिकल मूव का चरम लक्ष्य हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे 7.5 % आबादी के स्वामी सवर्णों के हाथ में शक्ति के समस्त स्रोत- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक – सौंपना है, जिसमें वह काफी हद तक सफल भी हो गए हैं. लेकिन शक्ति के स्रोतों पर वर्ण – व्यवस्था के सुविधाभोगी वर्ग के बेपनाह कब्जे के कारण वे पूरे गैर- सवर्ण समाज पर खौफ पैदा करने में जरुर कामयाब हो गए हैं पर, यही वर्चस्व उनके ध्वंस का कारण भी बन गया है, इसका उन्हें इल्म ही नहीं है. और इल्म इसलिए नहीं है क्योंकि शक्ति के स्रोतों पर उनके बेहिसाब वर्चस्व से, जो सापेक्षिक वंचना क्रांति की आग में घी का काम करती है, उस के तुंग पर पहुचने लायक हालात भारत में पैदा हो चुके हैं. अज्ञानतावश वंचित समुदायों के नेता और बुद्धिजीवी उसका सद्व्यवहार करने के लिए आगे ही नहीं बढ़ रहे हैं. यदि वंचित समुदायों के नेता उच्च वर्ण वर्चस्व से उपजे हालात का सद्व्यवहार करने के लिए आगे बढ़ते हैं तो पता चलेगा कि जो सापेक्षिक वंचना क्रांति की आग में घी का काम करती है, उसके तुंग पर पहुचने लायक जो हालात वर्तमान भारत में हैं , वैसे हालात फ़्रांसिसी क्रांति पूर्व न तो फ़्रांस में रहे और न ही वोल्सेविक क्रांति पूर्व रूस में. आज शक्ति के स्रोतों पर अपर कास्ट का जैसा वर्चस्व भारत में है, वैसा ही वर्चस्व नब्बे के दशक के पूर्व दक्षिण अफ्रीका में था , जिसके फलस्वरूप मंडेला के लोगों में सापेक्षिक वंचना का ऐसा उभार हुआ कि बंदूक के बल पर लम्बे समय से कायम गोरों की सत्ता हमेशा के लिए ख़त्म हो गई और आज वे दक्षिण अफ्रीका से भागकर दूसरे देशों में शरण लेने के लिए विवश हैं. शक्ति के स्रोतों पर वर्चस्व के मामले में भारत के सुविधाभोगी वर्ग और दक्षिण अफ्रीका के गोरों में कितनी साम्यता रही , इसका अनुमान 2024 के मई में आई ‘वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब’ की रिपोर्ट से लगाया जा सकता है,जिसमें बताया गया था कि देश की धन- दौलत पर सामान्य वर्ग का 89 % कब्जा है ,जबकि विशाल ओबीसी आबादी 9 % तो दलित 2. 8 % धन-दौलत पर गुजारा करने के लिए विवश हैं. इसके पहले 2006 से वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम की ओर से प्रकाशित हो रही ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट: 2020 से लगातार बता रही है कि भारत के आधी आबादी की स्थिति नेपाल, म्यांमार, पकिस्तान , बांग्लादेश, श्रीलंका इत्यादि से बदतर है और उसे आर्थिक रूप से भारत के पुरुषों की बराबरी में पहुंचने में 250 साल से भी अधिक लग जाएंगे. कुल मिलाकर हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे लोगों के हाथों में शक्ति के समस्त स्रोत सौंपने के चक्कर में मोदी सरकार से जो बड़ी चूक हुई है,उससे दलित , आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यकों और आधी आबादी में सापेक्षिक वंचना का भाव पनपने का मंडेला के लोगों से भी बेहतर अवसर मिल गया है. ऐसे में भारत के बहुजन नेता, बुद्धिजीवी और छात्र यदि मंडेला के लोगों से प्रेरणा लेकर सापेक्षिक वंचना के भाव को शिखर पहुँचाने का सम्यक प्रयास करें तो वर्ण- व्यवस्था के सुविधाभोगी भी दक्षिण अफ्रीका के गोरों जैसी विकट स्थिति का सामना करने के लिए विवश हो जायेंगे!

जन- जन तक पहुंचाना होगा: राहुल गांधी का ‘जितनी आबादी – उतना हक़’ का संदेश

लेकिन बात सिर्फ बहुजनों में सापेक्षिक वंचना वंचना को शिखर पर पहुँचाने से ही नहीं बनेगी. सापेक्षिक वंचना का अहसास भरने के साथ उनको भाजपा के बरक्स शक्ति के समस्त स्रोतों में हिस्सेदारी का वैकल्पिक एजेंडा देना होगा. इस काम में राहुल गांधी का सामाजिक न्यायवादी एजेंडा काफी कारगर हो सकता है. भारत के इतिहास में एक महान जननायक के रूप में उभर चुके राहुल गांधी आज हिन्दू राष्ट्र की राह में एवरेस्ट बनकर खड़े हो गए. हिंदुत्ववादी भाजपा के कारण भारत के इतिहास में सामाजिक अन्याय का जो विशाल अध्याय रचित हुआ, उसकी उपलब्धि करते हुए उन्होंने घोषणा कर दिया है कि सामाजिक और आर्थिक अन्याय सबसे बड़ी समस्या है और सामाजिक न्याय लागू करके ही भारत को सुन्दर और समतामूलक बनाया जा सकता है. सामाजिक न्याय की उनकी योजना 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पांच न्याय और 25 गारंटियों और तीन शताधिक वादों से युक्त न्याय- पत्र के रूप में सामने आ चुकी है, जिसमें संघ के हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को छिन्न-भिन्न करने के भरपूर सामान रहे.हिन्दू राष्ट्र के जरिए संघ का सपना शक्ति के समस्त स्रोत साढ़े सात प्रतिशत अपार कास्ट के पुरुषों के हाथ सौंपना में रहा है . न्याय पत्र में आधी आबादी को सरकारी नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण देने व 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा खत्म करने का सपना देकर राहुल गांधी ने संघ के सपनों में पलीता लगा दिया था. मोदी ने सिर्फ उच्च वर्णों के गरीबों के लिए जो 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस आरक्षण का प्रावधान किया था, उसमें कांग्रेस के न्याय- पत्र में सभी समुदायों के गरीबों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की घोषणा कर दिया गया था. यही नहीं न्याय – पत्र में “जितनी आबादी- उतना हक” के एलान से यह तय हो गया था कि अब देश का सारा धन- संपदा और तमाम अवसर : भारत के विविध समुदायों की संख्यानुपात में बँटेगा तथा समतामूलक भारत समाज आकार लेगा. यह हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना पर सबसे बड़ा आघात रहा . वाजपेयी से लेकर मोदी ने औने- पौने दामों में देश की सारी कंपनियां उच्च वर्णों के हाथों में देने का जो काम किया, सत्ता में आने पर उनकी जांच कराई जाएगी, ऐसा न्याय पत्र में कहा गया था . कांग्रेस के न्याय-पत्र ने देश के वंचितों को व्यापक तौर पर स्पर्श किया और मोदी हार की कगार पर पहुँच गए थे. आज राहुल गांधी ने वोट चोरी का जो एटम बम फोड़ा है, उससे साफ़ हो गया है कि वह केचुआ के साथ साथ-गाँठ करके वोटों की चोरी नहीं, डकैती के जरिये ही अपनी सत्ता बचाए थे. राहुल गांधी ने अब 2024 के न्याय पत्र से आगे बढ़ते हुए अब पॉवर स्ट्रक्चर में जितनी आबादी- उतना हक़ का सिद्धांत लागू करने का मन बना लिया है.इससे भविष्य में अगर निष्पक्ष चुनाव होता है तो सामाजिक अन्याय की समर्थक सरकार की विदाई सुनिश्चित हो जाएगी , ऐसा हर किसी को लगता है. और अगर ऐसा होता है तो संघ परिवार वर्ण-व्यवस्था के जरिये अपने सपनों की जो सामाजिक – आर्थिक व्यवस्था देश पर थोपना चाहता है, वह खतरा चिरकाल के लिए तो नहीं पर ,लम्बे समय के लिए टल जायेगा !

(लेखक डाइवर्सिटी फॉर इक्वालिटी ट्रस्ट के संस्थापक अध्यक्ष हैं)

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