Message Of Loksabha 2024: सामाजिक न्यायवादी विजन के जोर से स्थापित होने जा रहा हैः कांग्रेस का वर्चस्व!

Message Of Loksabha 2024: लोकसभा चुनाव 2024 का परिणाम आ चुका है और महाबली मोदी बैसाखियों के सहारे फिर से सरकार बनाए हैं। स्वाधीनोत्तर भारत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण चुनाव में विपक्ष ने कैसे अप्रतिरोध्य भाजपा के खिलाफ हैरतंगेज प्रदर्शन किया। कांग्रेस को सवर्णों के वोट से मोहमुक्त होने की मानसिकता विकसित करनी चाहिए।

लेखक एचएल दुसाध
(बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। संपर्क- 9654816191)

न्यूज इंप्रेशन

Lucknow:  2023 में ही एक किताब में उजागर कर दी गई थी 2024 के लोकसभा चुनाव परिणाम की संभावना। लोकसभा चुनाव 2024 का परिणाम आ चुका है और महाबली मोदी बैसाखियों के सहारे फिर से सरकार बनाने में सफल जा रहे हैं। स्वाधीनोत्तर भारत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण चुनाव में विपक्ष ने कैसे अप्रतिरोध्य भाजपा के खिलाफ हैरतंगेज प्रदर्शन किया, इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका और आगे भी यह क्रम जारी रहने की उम्मीद है। जहां मेरा सवाल है मैंने इस चुनाव परिणाम का संकेत 2023 में कांग्रेस के पक्ष में तैयार अपनी आधा दर्जन किताबों में से एक, ’सामाजिक न्याय की राजनीति के नए आइकॉन : राहुल गांधी’ में ही कर दिया था! 27 अगस्त, 2023 को रिलीज हुई इस किताब के पृष्ठ 39 पर निष्कर्ष स्वरूप लिखा था- ‘मण्डल के खिलाफ उभरे आंदोलन के जरिए नफरत की राजनीति को तुंग पर पहुँचा कर अप्रतिरोध्य बनी भाजपा के नरेंद्र मोदी ने जिस तरह वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए राजसत्ता का इस्तेमाल हजारों साल के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हित में किया, वह नई सदी में वर्ग संघर्ष के इतिहास की अनोखी घटना है। इसी सुविधाभोगी वर्ग के हित में उन्होंने जिस तरह विनिवेश नीति को हथियार बनाकर सरकारी संस्थाओं एवं परिसंपत्तियों को निजी हाथों में बेचा; इसी वर्ग के हित में जिस तरह संविधान को व्यर्थ करने के साथ बहुजनों के आरक्षण को कागजों की शोभा बनाया है; इसी वर्ग के हित में जिस तरह संविधान की अनदेखी करते हुए आनन-फानन में ईडब्लूएस के नाम पर सवर्णों को आरक्षण सुलभ कराने के साथ जिस तरह लैटरल इंट्री के जरिए अपात्र सवर्णों को आईएएस जैसे उच्च पदों पर बिठाने का प्रावधान रचा है, उससे यह मानकर चलना चाहिए कि सवर्ण आगामी 25 वर्षों तक अपना वोट भाजपा को छोड़कर किसी भी सूरत में अन्य किसी दल को नहीं देने जा रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस को सवर्णों के वोट से मोहमुक्त होने की मानसिकता विकसित करनी चाहिए।
संघ के असंख्य संगठनों, साधु-संतों, मीडिया और धन्ना सेठों के समर्थन से दुनिया की सबसे शक्तिशाली पार्टी बनी भाजपा को हराने जैसा आसान पॉलिटिकाल टास्क कोई नहीं, बशर्ते विपक्ष उसे चुनावों में सामाजिक न्याय की पिच पर खेलने के लिए बाध्य करने के साथ मोदी की नीतियों से उभरे सापेक्षिक वंचना के हालात का खुलकर सद्व्यवहार करें! ऐसे में कांग्रेस यदि 2024 में भाजपा को सामाजिक न्याय के पिच पर खिलाने का सफल उपक्रम करे तो भाजपा की विदाई और इंडिया की सत्ता में वापसी तय है। अगर कांग्रेस सामाजिक न्याय को हथियार बनाकर 2024 में भाजपा को मात देने के प्रति गंभीर है तो भारत जोड़ों यात्रा की भांति राहुल गांधी ‘जिसकी जितनी आबादी-उसकी उतनी भागीदारी’ का संदेश देने के लिए एक और भारतंमय यात्रा करें। ऐसा करने पर शर्तिया तौर पर इंडिया की जीत हो जाएगी और राहुल गांधी सामाजिक न्याय के नए आइकॉन के रूप मे अपनी छवि चिरस्थाई कर लेंगे!’बहरहाल 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस भाजपा को सामाजिक न्याय के पिच पर खिलाने का उपक्रम चला सकती है और राहुल गांधी चुनाव बाद सामाजिक न्याय के नए आइकॉन के रूप में अपनी छवि चिरस्थायी कर सकते हैं, इसका दावा अगस्त, 2023 में आई अपनी किताब में यूं ही नहीं किया था : इसका आधार रायपुर अधिवेशन से निकले सामाजिक न्याय केंद्रित प्रस्ताव और उसके बाद सामने आई कांग्रेस की स्ट्रेटजी ने सुलभ कर दिया था।

रायपुर में एक सवर्णवादी पार्टी से सामाजिक न्यायवादी दल के रूप में तब्दील हो गई कांग्रेस
कन्याकुमारी से कश्मीर तक चली जिस भारत जोड़ों यात्रा नें भाजपा द्वारा हजारों करोड़ खर्च करके राहुल गांधी की अगंभीर, बेपरवाह, कमअक्ल और पार्ट टाइम पॉलिटिशियन के रूप में बनाई गई छवि को खंड-खंड कर नए जमाने के गांधी के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया था, उस के समापन के बमुश्किल तीन सप्ताह बाद ही लोकसभा चुनाव 2024 की पृष्ठभूमि में 24-26 फरवरी, 2023 तक रायपुर में कांग्रेस का 85वां अधिवेशन आयोजित हुआ, जहां पार्टी ने पहली बार सामाजिक न्याय का पिटारा खोलकर देश और दुनिया को चौका दिया था। कोई सोच नहीं सकता था कि कांग्रेस जैसी सवर्णवादी पार्टी सामाजिक न्याय से जुड़े क्रांतिकारी प्रस्ताव पास कराने में एक इतिहास रच देगी। किन्तु रायपुर अधिवेशन में कांग्रेस नें खुद में आमूल परिवर्तन करते हुए स्थाई तौर पर सवर्णवादी से एक सामाजिक न्यायवादी दल के रूप में तब्दील कर लिया, जिसे समझने में आज भी अधिकांश बुद्धिजीवी व्यर्थ हैं। अपने 85 वें राष्ट्रीय अधिवेशन में कांग्रेस ने सामाजिक न्याय से जुड़े जो प्रस्ताव पारित किए, उसी को आधार बनाकर उसने आगे का चुनावी एजेंडा स्थिर किया, जो 2024 के लोकसभा चुनाव में भी दिखा। रायसीना हिल्स पर कब्जा जमाने की दूरगामी रणनीति के तहत कांग्रेस ने रायपुर मे सामाजिक न्याय से जुड़े जो प्रस्ताव पारित किए थे, उसका पहला परीक्षण उसने 2023 मे अनुष्ठित कर्नाटक विधानसभा चुनाव को सामाजिक न्याय पर केंद्रित करके किया। चूंकि भारतीय राजनीति की यह परीक्षित सच्चाई है कि चुनाव के सामाजिक न्याय पर केंद्रित होने से भाजपा हार वरण करने के लिए विवश रहती है, इसलिए वह हेट पॉलिटिक्स को हिमालय सरीखी ऊंचाई देकर भी कर्नाटक चुनाव हार गई। उसी कर्नाटक चुनाव में राहुल गांधी ने कोलार में-जितनी जिसकी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी- का नारा उछालकर दुनिया को न सिर्फ हैरान दिया, बल्कि दीर्घ काल के लिए ‘जितनी आबादी-उतना हक’ को अपनी राजनीति का मूलमंत्र भी बना लिया था। कर्नाटक में जिस शिद्दत के साथ चुनाव को सामाजिक न्याय पर केंद्रित करते हुए राहुल गांधी ने ऐतिहासिक सफलता अर्जित की, उसे देखते हुए दलित बुद्धिजीवियों ने उन्हे सामाजिक न्याय के नए आइकॉन के रूप में वरण किया। रायपुर से निकले सामाजिक न्याय के एजेंडे का कर्नाटक में सफल प्रयोग के बाद कांग्रेस ने उस प्रयोग को 2023 के प्रायः शेष में 5 राज्यों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम दृ के विधानसभा चुनाव में आजमाने का मन बनाया। किन्तु 3 दिसंबर को जब चुनाव परिणाम आया देखा गया कि तेलंगाना को छोड़कार बाकी राज्यों में भारी संभावना जगाकर भी वह कर्नाटक की सफलता को दोहराने मे विफल रही। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ में तमाम विश्लेषकों ने कांग्रेस के जीत की भविष्यवाणी कर दी थी ,पर भीतरघात के चलते पार्टी की नैया किनारे जाकर डूब गई। किन्तु, राहुल गांधी इससे हताश होने के बजाय रायपुर से निकले विचार को आगे बढ़ाने के लिए दूने उत्साह के साथ 14 जनवरी, 2024 से फिर भारत जोड़ों यात्रा पर निकल पड़े। पर, इस बार भारत जोड़ों के साथ ‘न्याय यात्रा’ जोड़ लिए।

भारत जोड़ों न्याय यात्रा में आर्थिक और सामाजिक न्याय बना सबसे बड़ा मुद्दा
14 जनवरी को मणिपुर से शुरू होकर 16 मार्च को मुंबई में समाप्त हुई 63 दिवसीय ‘भारत जोड़ों न्याय यात्रा’ में राहुल गांधी का अधिकतम जोर रायपुर से निकले सामाजिक न्याय के बुनियादी विचार को विस्तार देने पर रहा। आर्थिक और सामाजिक न्याय सबसे बड़ा मुद्दा है, यह बात राहुल गांधी भारत जोड़ों न्याय यात्रा के दौरान लगातार उठाते रहे। आर्थिक और सामाजिक न्याय सबसे बड़ा मुद्दा है, यह आजाद भारत में किसी भी नेता ने राहुल जैसी स्पष्टता और शिद्दत के साथ नहीं उठाया। ऐसा करते हुए राहुल गांधी ने बाबा साहब डॉ. आंबेडकर की याद दिलाते रहे। यह डॉ. आंबेडकर थे, जिन्होंने भारत का संविधान राष्ट्र को सौंपने के एक दिन पूर्व 25 नवंबर, 1949 को संसद के सेंट्रल हॉल से चेतावनी देते हुए कहा था कि हमें निकटतम समय के मध्य आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा कर लेना होगा नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढांचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने बहुत मेहनत से बनाया है। किन्तु अपनी वर्णवादी सोच के हाथों मजबूर होकर स्वाधीन भारत के शासकों ने इस दिशा में ठोस कदम उठाया ही नहीं और विषमता की खाई उत्तरोत्तर बढ़ती रही। आज आर्थिक और सामाजिक विषमता के मामले मे भारत टॉप के देशों मे जगह बना लिया है, पर देश के नेता ही नहीं, बुद्धिजीवी तक इस पर मुंह खोलने से बचते रहे हैं। जहां तक सामाजिक न्याय का सवाल है अधिकांश नेता और बुद्धिजीवी इसे सरकारी नौकरी, शिक्षा और प्रमोशन में आरक्षण इत्यादि तक सीमित रखे। किन्तु राहुल गांधी ने भारत जोड़ों न्याय यात्रा के दौरान इसे नौकारियों से आगे बढ़कर धन- संपदा और संस्थाओं के बंटवारे तक प्रसारित करने का प्रयास किया। वह सड़कों पर लाखों की तादाद में उमड़ी वंचित जनता से लगातार पूछते रहे कि देश में जो टॉप की 500 कंपनियां हैं उनमें कितनों के मालिक और मैनेजर दलित, आदिवासी और पिछड़े हैं? कितने हॉस्पिटल, अखबार और मीडिया संस्थान इत्यादि दलित, आदिवासी और पिछड़ों के हैं? आजाद भारत के इतिहास में जनता के बीच जाकर ऐसे सवाल उनसे पूर्व किसी ने नहीं उठाए थे। पर, राहुल गांधी उठाए तो इसलिए कि उनके रोम-रोम में यह बात समा चुकी है कि आर्थिक और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करा कर ही भारत को बेहतर देश बनाया जा सकता है। इसलिए जब उन्होनें यह कहा दृ हमारा उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक : दोनों तरह का न्याय सुनिश्चित कराना है और जाति जनगणना इस दिशा में पहला कदम है-तो सामाजिक अन्याय के सदियों के शिकार तबकों ने उनपर विश्वास किया। आर्थिक और सामाजिक न्याय सुनिश्चित कराने के क्रम में भारत जोड़ों न्याय यात्रा के शेष होते-होते पांच न्याय और 25 गारंटियों का विचार सामने आया जिसका परिष्कृत रूप 5 अप्रैल को 5 न्याय , 25 गारंटी और 300 वादों से युक्त ‘न्याय पत्र’ के नाम से जारी कांग्रेस के 48 पृष्ठीय घोषणापत्र मे सामने आया!

सामाजिक न्याय का परमाणु बम साबित हुआः कांग्रेस का घोषणापत्र

5 अप्रैल को जारी हुआ कांग्रेस का घोषणापत्र रातों-रात चुनावी फिजा में छा गया।तमाम राजनीतिक विश्लेषकों ने एक स्वर मे इसे क्रांतिकारी करार देते हुए माना कि ऐसा घोषणापत्र इससे पहले कभी नहीं आया। जो लोग यह मानकर चल रहे थे कि यह चुनाव महज एक औपचारिकता है और मोदी के नेतृत्व में एनडीए 400 पार कर लेगा, ऐसे लोगों की धारणा में कांग्रेस के घोषणापत्र ने रातोंरात बदलाव ला दिया। वास्तव में कांग्रेस का घोषणापत्र सामाजिक न्याय का परमाणु बम था, जिसकी अनुगूँज पूरे देश में सुनाई पड़ी और भाजपा दहल गई। आरक्षण का 50 प्रतिशत दायरा तोड़ने, महिलाओं को नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण देने, अमेरिका की भांति ही भारत मे डाइवर्सिटी कमीशन (विविधता आयोग) गठित करने, राष्ट्रव्यापी आर्थिक-सामाजिक जनगणना कराने, एससी, एसटी, ओबीसी के लिए आरक्षित सभी रिक्त पदों को एक साल मे भरने, सरकारी और सार्वजनिक उपक्रमों में संविदा की जगह स्थायी नौकरी देने, एससी, एसटी वर्ग के ठेकेदारों को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक खरीद का दायरा बढ़ाने, सामाजिक न्याय का संदेश फैलाने के लिए बहुजन समाज सुधारकों की जीवनी और उनके कार्यों को विद्यालयों के पाठ्यक्रम मे शामिल करने, शैक्षणिक परिसरों में पसरे भेदभाव को खत्म करने के लिए रोहित वेमुला अधिनियम बनाने सहित ढेरों ऐसी बातें कांग्रेस के घोषणापत्र में थीं, जिससे चुनाव अभूतपूर्व रूप से सामाजिक न्याय पर केंद्रित हो गयाः ऊपर से राहुल गांधी द्वारा संविधान और आरक्षण बचाने की घोषणा ने सामाजिक न्याय के मुद्दे को और ऊंचाई दे दी। मोदी राज में इससे पहले दो बार चुनाव सामाजिक न्याय पर केंद्रित हुआ थाः 2015 में बिहार और 2023 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में और दोनों ही बार भाजपा हारने के लिए विवश रही। लेकिन 2024 का लोकसभा चुनाव 2015 के बिहार और 2023 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव से भी ज्यादा जोरदार तरीके से सामाजिक न्याय पर केंद्रित हुआ। इसकी काट ढूँढने मे मोदी पूरी तरह व्यर्थ रहे। लोगों को उम्मीद थी कि भाजपा के घोषणापत्र में कांग्रेस के न्याय पत्र का योग्य जवाब मिलेगा, किन्तु संकल्प-पत्र के रूप में आया भाजपा का घोषणापत्र खोदा पहाड़ निकली चूहिया साबित हुआ। मोदी इसकी काट न ढूंढ पा कर उद्भ्रांत ही नहीं हुए, ऐसा लगता है उनका मानसिक संतुलन ही बिगड़ गया। इसी मानसिक स्थिति ने उन्हे मुसलमान, मंगलसूत्र, मटन, मछली, मुजरा की ओर बढ़ने के लिए विवश कर दिया। इस चुनाव में वह बुरी तरह एक्सपोज होकर जाहिलों की जमात मे शामिल हो गए तो उसके लिए जिम्मेवार सामाजिक न्याय का परमाणु बम बना कांग्रेस का घोषणापत्र ही रहा। प्रधानमंत्री की बौखलाहट ने साबित कर दिया कि विपक्ष यदि चुनाव को सामाजिक न्याय पर खड़ा कर दे तो भाजपा असहाय बनने के सिवाय कुछ कर ही नहीं सकती। कांग्रेस के घोषणापत्र ने जहां मोदी-शाह-योगी को बुरी तरह बौखला कर रख दिया, वहीं इसने इंडिया गठबंधन मे नई जान फूँक दी। सभी ने माना है कि इस चुनाव मे जनता साधनविहीन इंडिया की ओर से लड़ रही थी और ऐसा हुआ भी। ज्यों-ज्यों घोषणापत्र का कंटेन्ट जनता तक पहुंचते गया, जनता इंडिया की सभाओं में अधिक से अधिक मात्रा में जुटने लगी। अगर चुनाव के आखिरी दो तीन चरणों में भीड़ भाजपा के गढ़ उत्तर प्रदेश मे बैरिकेड तोड़ कर राहुल गांधी और अखिलेश यादव के पास पहुचने का प्रयास करने लगी तो उसके पीछे सामाजिक न्याय की कर्मसूचियों से लबालब भरा कांग्रेस का घोषणापत्र ही था। इस भीड़ को देखकर बहुतों ने सवाल उठाया कि क्या यह वोट में तब्दील होगी? लेकिन सवाल उठाने वालों को भ्रांत प्रमाणित करते हुए यह भीड़ इस कदर वोट में तब्दील हुई कि हिन्दुत्व की हृदय स्थली यूपी में भाजपा की कमर ही टूट गई। यदि यहां जांच एजेंसियों, केचुआ और खासकर मायावती की बसपा का ठीक से सपोर्ट नहीं मिलता तो भाजपा 10-12 पर सिमट जाती और देश में इंडिया गठबंधन की सरकार नजर आती। अब सवाल सवाल पैदा होता है लोकसभा 2024 का चुनाव तो खत्म हो गया और भाजपा ने गठबंधन की सरकार भी बना ली, पर आगे क्या होगा!

अब आगे क्या होगा!

हां तक भविष्य की राजनीति का सवाल है जिस तरह कांग्रेस पार्टी ने अपनी पूरी राजनीति सामाजिक न्याय पर केंद्रित की है ,उससे आने वाले दिनों में ब्राह्मणों को छोड़कर उसके कोर वोटरः दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक एक बार फिर नए उत्साह से उसके साथ जुड़ेंगे। ब्राह्मणों की जगह पिछड़े भी उसके साथ लामबंद होंगे। फलतः इसका नए सिरे भारतीय राजनीति पर उसी तरह वर्चस्व स्थापित होगा, जैसा आजादी के बाद के दशकों में हुआ। यह वर्चस्व लम्बा इसलिए खींचेगा क्योंकि कांग्रेस की सामाजिक न्यायवादी राजनीति तबतक सर्वशक्ति से क्रियाशील रहेंगी जबतक हिन्दू धर्म के जन्मजात वंचित तबकों की कंपनियों, शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों, मीडिया, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी इत्यादि हर जगह में वाजिब हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं हो जाती। चूंकि ऐसा होने में समय लगेगा, इसलिए वंचित उसे लंबे समय तक सत्ता में बने रहने का अवसर देते रह सकते हैं। इस चुनाव के शेष होते-होते जो राहुल गांधी प्रधानमंत्री के रूप मे जनता की पसंद के मामले में मोदी को पछाड़ चुके है, वह कर्नाटक के बाद इस चुनाव में पार्टी की सफलता से उत्साहित होकर कांग्रेस मे घोषणापत्र में आए सामाजिक न्याय के एजेंडे को एक-एक व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए देश के चप्पे दृ चप्पे को नापेंगे। इससे स्वतंत्र बहुजन राजनीति का उभार बाधित होगा और एमके स्टालिन ,अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन इत्यादि सहित बाकी सामाजिक न्यायवादी नेता कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता मे भागीदारी की दिशा में आगे बढ़ेंगे।मायावती भी अपनी पार्टी का वजूद बचाने के लिए कांग्रेस के साथ जुड़ने के लिए बाध्य हो सकती हैं। कुल मिलाकर आने वाले वर्षों में राहुल गांधी के नेतृत्व में देश में आर्थिक-सामाजिक क्रांति घटित होने जा रही है। चूंकि यह परीक्षित सच्चाई है कि क्रांति के साथ प्रतिक्रांति भी होती है, इसलिए आने वाले दिनों में भारत में प्रतिक्रांति भी होगी, जिसका नेतृत्व करेगी भाजपा!

कांग्रेस संगठन में जितनी आबादी-उतना हक का सिद्धांत लागू करना होगा!

क्रांतियों का इतिहास बताता है कि जब क्रांतिकारी परिवर्तन के हालात बनते हैं तो मौजूद वयवस्था से लाभान्वित तबका उस पर रोक लगाने के लिए लामबंद होता है। ऐसा तबका नितांत रूप से रूढ़िवादी होता है और यथास्थितिवाद को बनाये रखने के लिए यह धर्म और परंपराओं को हथियार बनाता है। भारत में भाजपा इसकी मिसाल कायम कर चुकी है! 7 अगस्त, 1990 को प्रकाशित मण्डल रिपोर्ट के जरिए जब वर्ण-व्यवस्था के वंचितों-दलित, आदिवासी और पिछड़ों- के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव के हालात बने, वह रांमजन्मभूमि मुक्ति के नाम पर धर्म और परंपराओं को बचाने का आंदोलन छेड़ दी, जिसमें उसके संगी बने सुविधाभोगी वर्ग के छात्र और उनके अभिभावक, लाखों साधु-संत, लेखक- पत्रकार और धन्ना सेठ। उसी आंदोलन के जोर से वह न सिर्फ सत्ता पर काबिज होकर अप्रतिरोध्य बनी, बल्कि उससे मिली राजसत्ता का इस्तेमाल उसने दलित-बहुजनों को उस स्टेज में पहुंचाने में किया, जिसमें बने रहने का निदेश हिन्दू धर्मशास्त्र देते हैं। तो मण्डल उत्तरकाल में प्रतिक्रांति के जोर से सत्ता पर एकाधिकार का भोग कर चुकी भाजपा आने वाले दिनों में राहुल के अभियान के खिलाफ फिर से धर्माधारित आंदोलन खड़ा करने की दिशा में अग्रसर हो सकती है, जिसमें उसके संगी बन सकते है केजरीवाल, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक इत्यादि जैसे तमाम सवर्ण नेता! इस क्रम में भाजपा अयोध्या के बाद काशी-मथुरा सहित गुलामी के अन्य प्रतीकों की मुक्ति का आंदोलन छेड़ने के दिशा में आगे बढ़ सकती है, लेकिन वह सफल नहीं होगी। जिस तरह इस चुनाव में कांग्रेस के सामाजिक न्यायवादी घोषणापत्र के समक्ष नरेंद्र मोदी उद्भ्रांत हुए हैं, आगे भी वही होगा। बहरहाल आने वाले दिनों में जिस तरह सामाजिक न्याय की राजनीति के जोर से कांग्रेस का वर्चस्व स्थापित होने जा रहा है, वह तभी सफलीभूत होगा जब वह अपने संगठन को सवर्ण वर्चस्व से मुक्त करें। उसके संगठन मे प्रदेश से लेकर जिले तक सवर्ण छाए हुए हैं। इस चुनाव में उस का घोषणापत्र जारी होने के बाद उनके अंदर का क्रियाशील प्रतिक्रियावादी तत्व पूरी तरह सक्रिय हो गया और उन्होंने इसके कंटेन्ट को जनता तक पहुचाने में नहीं के बराबर रुचि लिया। अगर कांग्रेस का प्रदेश और जिला नेतृत्व कांग्रेस के घोषणापत्र के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने में 50 प्रतिशत भी रुचि लिया होता, चुनाव परिणाम कुछ और होता। चुनाव के दौरान जो ढेरों सवर्ण नेता भाजपा में शामिल होकर पार्टी का मनोबल तोड़ने का काम किए, उसके पृष्ठ में उनके अंदर क्रियाशील प्रतिक्रियावादीवादी तत्व ही मुख्य रूप से जिम्मेवार रहा। आने वाले दिनों में राहुल गांधी जिस एजेंडे को लेकर आगे बढ़ने जा रहे हैं, उसमें न्यायप्रिय व विवेकवान सवर्ण नेता ही पार्टी का साथ दें सकते हैं और ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम है। ऐसे में राहुल गांधी यदि सामाजिक न्याय की राजनीति की जोर से महात्मा गांधी, आंबेडकर, नेहरू इत्यादि के समतामूलक भारत निर्माण के सपनों को आकार देना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले कांग्रेस संगठन में ‘जितनी आबादी-उतना हक’ का सिद्धांत लागू करना होगा!

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