Lok Sabha Second Phase Election: कांग्रेस ही है बहुजनों का वर्ग-मित्र !

Lok Sabha Second Phase Election: 26 मई को लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण का मतदान हो गया जिसमें 13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 88 सीटों पर वोटिंग हुई. इस बार का वोटिंग प्रतिशत पहले चरण के चुनाव से भी खराब रहा. पहले चरण में 21 राज्यों की 102 लोकसभा सीटों पर जहां 64 प्रतिशत वोट पड़े थे, वहीं दूसरे चरण में महज 63 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया.

 

लेखकः एचएल दुसाध
(बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय आध्यक्ष)

Lucknow: 26 मई को लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण का मतदान हो गया जिसमें 13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 88 सीटों पर वोटिंग हुई. इस बार का वोटिंग प्रतिशत पहले चरण के चुनाव से भी खराब रहा. पहले चरण में 21 राज्यों की 102 लोकसभा सीटों पर जहां 64 प्रतिशत वोट पड़े थे, वही दूसरे चरण में महज 63 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. वोट करने के लिए लोगों के घरों से बाहर नहीं निकलने को लेकर राजनीतिक दलों के साथ-साथ चुनाव आयोग की चिन्ता भी बढ़ा दी है. बहरहाल दूसरे चरण के बाद कौन आगे चल रहा है, इस सवाल के जवाब में अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक ही एक स्वर में कांग्रेस नीत इंडिया को ही आगे बता रहे हैं. बहुतों ने खुलकर कह दिया है कि दो चरणों के चुनाव के बाद मोदी के झोला उठाकर भागने का समय आ गया है. अधिकांश विश्लेषकों के मुताबिक एकाधिक कारणों से भाजपा समर्थक वोटरों में उदासीनता घर कर गई है, जिससे वे वोट करने के लिए घरों से नहीं निकले, जबकि दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुसलमान संविधान और आरक्षण बचाने के लिए भीषण गर्मी की उपेक्षा करके भी मतदान केंद्रों तक पहुंचे. वैसे तो कुछ विश्लेषकों के हिसाब से अठारहवीं लोकसभा चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है। किन्तु अधिकांश का मानना है कि कुछ भाजपा नेताओं द्वारा 400 पार के पीछे संविधान बदलने की मंशा जाहिर किए जाने के बाद संविधान और आरक्षण बचाना चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है, जिस कारण आरक्षित वर्ग गर्मी की परवाह किए बिना वोट देने के लिए निकल रहा है!

संविधान व आरक्षण बचाना चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा
इसमें कोई शक नहीं कि संविधान और आरक्षण बचाना इस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है. इस मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए ही नरेंद्र मोदी मटन-मछली-मुगल और मंगलसूत्र को मुद्दा बनने की दिशा मे आगे बढ़ेः बावजूद इसके इससे वंचित वर्गों का ध्यान नहीं हट रहा है. ध्यान न हटने का कारण यह भी है कि विभिन्न अंचलों से भाजपा नेता अब भी संकेत किए जा रहे हैं कि पार्टी सत्ता में आने पर आरक्षण खत्म कर देगी. इससे ऐसा लग रहा है कि चुनाव के शेष चरण तक आरक्षण ही सबसे बड़ा मुद्दा रहेगा. इस बात को को ध्यान में रखते हुए दूसरे चरण के चुनाव के अगले दिन राहुल गांधी ने ‘एक्स’ पर पोस्ट किया। बीजेपी के कई नेताओं और प्रधानमंत्री मोदी के करीबियों के बयानों से स्पष्ट हो गया है कि उनका मकसद संविधान बदल कर देश का लोकतंत्र तबाह करने और दलितों, पिछड़ों एवं आदिवासियों का आरक्षण छीन कर देश चलाने में उनकी भागीदारी खत्म करना है. संविधान और आरक्षण की रक्षा के लिए कांग्रेस चट्टान की तरह भाजपा की राह में खड़ी है. जब तक कांग्रेस है वंचितों से उनका आरक्षण दुनिया की कोई ताकत नहीं छीन सकती।‘ बहरहाल कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अगर आरक्षण की रक्षा का दावा करते हैं तो उस पर अविश्वास नहीं किया सकता. कारण, कांग्रेस ने एकाधिक बार प्रमाणित किया है भाजपा की तरह ही सवर्णवादी दल होने के बावजूद उस की भूमिका बहुजनों के विशुद्ध वर्ग मित्र के रूप में रही है. इसे समझने के लिए जरा भारत में वर्ग संघर्ष के इतिहास का सिंहावलोकन कर लेना पड़ेगा. महान समाज विज्ञानी मार्क्स ने कहा है अब तक के विद्यमान समाजों का लिखित इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है. एक वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व है अर्थात जिसका शक्ति के स्रोतों-आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और धार्मिक दृ पर कब्ज़ा है और दूसरा वह है, जो शारीरिक श्रम पर निर्भर है अर्थात शक्ति के स्रोतों से दूर व बहिष्कृत है. पहला वर्ग सदैव ही दूसरे का शोषण करता रहा है. मार्क्स के अनुसार समाज के शोषक और शोषितः ये दो वर्ग सदा ही आपस में संघर्षरत रहे और इनमें कभी भी समझौता नहीं हो सकता. नागर समाज में विभिन्न व्यक्तियों और वर्गों के बीच होने वाली होड़ का विस्तार राज्य तक होता है. प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है.’ जहां तक भारत में वर्ग संघर्ष का प्रश्न है, यह सदियों से वर्ण-व्यवस्था रूपी आरक्षण दृव्यवस्था में क्रियाशील रहा, जिसमें 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपर्ट प्रकाशित होते ही एक नया मोड़ आ गया. क्योंकि इससे सदियों से शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार जमाये विशेषाधिकारयुक्त तबकों का वर्चस्व टूटने की स्थिति पैदा हो गयी. मंडल ने जहां सुविधाभोगी सवर्णों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित कर दिया, वहीं इससे दलित, आदिवासी, पिछड़ों की जाति चेतना का ऐसा लम्बवत विकास हुआ कि सवर्ण राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील हो गए. कुल मिलाकर मंडल से एक ऐसी स्थिति का उद्भव हुआ जिससे वंचित वर्गों की स्थिति अभूतपूर्व रूप से बेहतर होने की सम्भावना उजागर हो गयी और ऐसा होते ही सुविधाभोगी वर्ग के बुद्धिजीवी, मीडिया, साधु-संत, छात्र और उनके अभिभावक तथा राजनीतिक दल अपना-अपना कर्तव्य स्थिर कर लिए. उसी मंडलवादी आरक्षण के खिलाफ मंदिर आन्दोलन चलाकर भाजपा सत्ता में पहुंची और अप्रतिरोध्य बन गयी.

शोषक व शोषितों के मध्य आज मोदी राज जैसा फर्क विश्व में और कहीं नहीं

बहरहाल मंडल से त्रस्त सवर्ण समाज भाग्यवान था जो उसे जल्द ही ‘नवउदारीकरण’ का हथियार मिल गया, जिसे 24 जुलाई, 1991 को नरसिंह राव ने सोत्साह वरण कर लिया था. इसी नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर नरसिंह राव ने मंडल उत्तरकाल में हजारों साल के सुविधाभोगी वर्ग के वर्चस्व को नए सिरे से स्थापित करने की बुनियाद रखी, जिस पर महल खड़ा करने की जिम्मेवारी परवर्तीकाल में अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी पर आई. नरसिंह राव के बाद सुविधाभोगी वर्ग को बेहतर हालात में ले जाने की जिम्मेवारी जिनपर आई, उनमें डॉ. मनमोहन सिंह हिन्दू होने और कांग्रेस के सिद्धांतों में गहरे विश्वास के कारण बहुजन वर्ग के प्रति पर्याप्त सदय रहे, इसलिए उनके राज में उच्च शिक्षा में ओबीसी को आरक्षण मिलने के साथ बहुजनों को उद्यमिता के क्षेत्र में भी कुछ बढ़ावा मिला. किन्तु अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी हिंदुत्ववादी होने के साथ उस संघ से प्रशिक्षित पीएम रहे, जिसका एकमेव लक्ष्य हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग (मुख-बाहु-जंघे) से जन्मे लोगों का हित-पोषण रहा है. अतः संघ प्रशिक्षित इन दोनों प्रधानमंत्रियों ने सवर्ण वर्चस्व को स्थापित करने में देश-हित तक की बलि चढ़ा दी. इन दोनों ने आरक्षण पर निर्भर अपने वर्ग शत्रुओं (बहुजनों) के सफाए के लिए राज्य का भयावह इस्तेमाल किया. संघ प्रशिक्षित वाजपेयी और मोदी ने अपने वर्ग शत्रुओं को तबाह करने के लिए जो गुल खिलाया, उसके फलस्वरूप आज देश काफी हद तक बिक कर निजी हाथों में चला गया है और बहुजन विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुँच चुके हैं. कारण, जिस आरक्षण पर बहुजनों की उन्नति व प्रगति निर्भर है, भाजपा राज में वह लगभग कागजों की शोभा बना दिया गया है. बहुजनों के विपरीत जिस जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हित पर संघ परिवार की सारी गतिविधिया केन्द्रित रहती हैं, मोदी राज में उनका धर्म और ज्ञान-सत्ता के साथ राज और अर्थ-सत्ता पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा हो चुका है. शोषक और शोषितों के मध्य आज मोदी राज जैसा फर्क विश्व में और कहीं नहीं है.

भाजपा की भूमिका बहुजनों के वर्ग शत्रु के रूप में रही

बहरहाल यदि वर्ग संघर्ष के लिहाज से भाजपा की भूमिका बहुजनों के वर्ग शत्रु के रूप में रही तो कांग्रेस की वर्ग मित्र के रूप मे, यह मण्डल उत्तरकाल का इतिहास आँख में अंगुली डालकर बताता है. मण्डल उत्तरकाल में अटल बिहारी वाजपेयी के आठ साल के शासन के बाद देश की बागडोर कांग्रेस के डॉ. मनमोहन सिंह के हाथ मई आई और उन्होंने 10 सालों तक देश चलाया, किन्तु उन्होंने कभी भी अटल बिहारी वाजपेयी या आज के मोदी की भांति नवउदारीकरण को बहुजनों के खिलाफ हथियार नहीं बनायाः वह बराबर इसे मानवीय चेहरा देने के लिए प्रयासरत रहे. 2004 में सत्ता में आने के संग-संग विनिवेश पर अंकुश लगाने वाले मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल में नवउदारवादी अर्थनीति से हुए विकास में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों इत्यादि को वाजिब भागीदारी न मिलने को लेकर समय-समय पर चिंता ही जाहिर नहीं किया, बल्कि विकास में वंचितों को वाजिब शेयर मिले इसके लिए अर्थशास्त्रियों के समक्ष रचनात्मक सोच का परिचय देने की अपील तक किया. डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही 2006 में उच्च शिक्षण संस्थानों के प्रवेश में पिछड़ों को आरक्षण मिला ,जिससे उच्च शिक्षा में उनके लिए सम्भावना के नए द्वार खुले, जिसे आज मोदी सरकार ने अदालतों का सहारा लेकर बंद करने में सर्व-शक्ति लगा दी. उन्हीं के राज में राजीव गांधी फेलोशिप की शुरुआत हुई, जिसके जरिए वंचित जातियों के लाखों युवाओं को कॉलेज और विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर बनने का अवसर मिला. डॉ. मनमोहन सिंह ने प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण लागू करवाने का जो प्रयास किया वैसा, अन्य कोई न कर सका. उन्ही के कार्यकाल में मंनरेगा शुरू हुआ. यह निश्चय ही कोई क्रातिकारी कदम नहीं था, किन्तु इससे वंचित वर्गों को भारी राहत मिली. मनरेगा इस बात का सूचक था कि भारत के शासक वर्ग में वंचितों के प्रति मन के किसी कोने में करुणा है. मनमोहन सिंह के शासन में 2012 में पिछड़ों को पेट्रोल पंपों के आवंटन में 27 प्रतिशत आरक्षण मिला.चूँकि भारत का इतिहास आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है, इस लिहाज से यदि भाजपा से कांग्रेस की तुलना करें तो मात्रात्मक फर्क नजर आएगा. संघी वाजपेयी से लेकर नरेंद्र मोदी के कार्यकाल तक आरक्षण पर यदि कुछ हुआ है तो सिर्फ और सिर्फ इसका खात्मा हुआ हैः जोड़ा कुछ भी नहीं गया है. इस मामले में कांग्रेस चाहे तो गर्व कर कर सकती है.

संविधान व आरक्षण बचाने के लिए राहुल के पीछे लामबंद होता नजर रहा

कांग्रेस के नेतृत्व में लड़े गए स्वाधीनता संग्राम के बाद जब देश आजाद हुआ तो उसके संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया. इसी कांग्रेस की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के कथित कुख्यात इमरजेंसी काल में एससी/एसटी के लिए मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढाई के प्रवेश में आरक्षण लागू हुआ. बाद में नवउदारवादी अर्थनीति के दौर में मनमोहन सिंह के पहले दिग्विजय सिंह डाइवर्सिटी केन्द्रित भोपाल घोषणापत्र के जरिये सर्वव्यापी आरक्षण का एक ऐसा नया दरवाजा खोला जिसके कारण बहुजनों में नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों इत्यादि समस्त क्षेत्रों में आरक्षण की चाह पनपी,जिसके क्रांतिकारी परिणाम आने के लक्षण अब दिखने लगे हैं. लेकिन मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह द्वारा शुरू की गयी सप्लायर डाइवर्सिटी को सत्ता में आते ही भाजपा की उमा भारती ने ख़त्म कर दिया. कुल मिलाकर मंडल उत्तरकाल में भाजपा से तुलना करने पर कांग्रेस की भूमिका बहुजनों के वर्ग मित्र के रूप में स्पष्ट नजर आती है. और समय-समय पर वर्ग मित्र का परिचय देने वाली कांग्रेस नें 2024 के लोकसभा चुनाव में पाँच न्याय और 25 गारंटी युक्त अपना विशुद्ध क्रांतिकारी घोषणापत्र जारी कर आरक्षण के मामले में भाजपा ही नहीं, सामाजिक न्यायवादी दलों तक को बहुत पीछे छोड़ दिया है! न्याय पत्र के नाम से जारी घोषणापत्र में कांग्रेस ने आरक्षण का 50 प्रतिशत दायरा खत्म करने के साथ आधी आबादी के लिए सरकारी नौकरियों 50 प्रतिशत आरक्षण देने, ठेकों में बढ़ावा देने, अमेरिकर के डाइवर्सिटी कमीशन की भांति विविधता आयोग गठित करने जैसी कई क्रांतिकारी घोषणाएं हैं. यही कारण है आजाद भारत के चुनावी इतिहास के केंद्र मे पहली बार कोई घोषणापत्र आ गया है. आरक्षण केंद्रित कांग्रेस के न्याय पत्र नें भाजपा के हिन्दू राष्ट्र के सपने को चिन्न-भिन्न करके रख दिया है. ऐसे में जब न्याय-पत्र के शिल्पकार राहुल गांधी दावा कर रहे है कि जब तक कांग्रेस है वंचितों से उनका आरक्षण दुनिया की कोई ताकत नहीं छीन सकती तो आरक्षित वर्गों मे अविश्वास नहीं पनपता. यही कारण है पूरा आरक्षित वर्ग 2024 के लोकसभा चुनाव में संविधान और आरक्षण बचाने के लिए राहुल गांधी के पीछे लामबंद होता नजर रहा है.

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