International Women’s Day: भारत के राजनीतिक दल ध्यान में रखें ग्लोबल जेंडर गैप की रिपोर्ट!

International Women’s Day: ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट-2021 के अनुसार दक्षिण एशियाई देशों में भारत का प्रदर्शन सबसे खराब रहा। भारत रैंकिंग में 156 देशों में 140वें स्थान पर रहा, जबकि बांग्लादेश 65वें, नेपाल 106वें, पाकिस्तान 153वें, अफगानिस्तान 156वें, भूटान 130वें व श्रीलंका 116वें स्थान पर। नंबर एक पर आइसलैंड, दो पर फ़िनलैंड, तीसरे पर नार्वे, चौथे पर न्यूजीलैंड और 5 वें पर स्वीडेन रहा।

लेखक : एचएल दुसाध
(बहुजन डायवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय)

Lucknow : लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारियां जोरो पर हैं। इसमें शामिल होने वाले दल म्मीदवारों के चयन के साथ घोषणापत्र तैयार करने में जुट गए हैं। वे अपने घोषणापत्रों में विभिन्न समुदायों के साथ आधी आबादी की बेहतरी की बातें भी शामिल करेंगे। लेकिन ध्यान रहे विश्व में सर्वाधिक गहराई से व्याप्त आर्थिक और सामाजिक असमानता के साथ हमारे राजनीतिक दल लैंगिक असमानता की समस्या के प्रति भी सदा से ही उदासीन रहे। हमारे राजनीतिक दलों ने अबतक आधी आबादी के लिए जो कुछ किया है, उसका परिणाम इस रूप में आया है कि महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर भारत बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार इत्यादि अपने दुर्बल प्रतिवेशी देशों से भी पिछड़ता गया है और लगातार पिछड़ते-पिछड़ते आज इसकी स्थिति इतनी कारुणिक हो गयी है कि वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा अप्रैल 2021 में प्रकाशित ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट-2021 देखकर राष्ट्र स्तब्ध रह गया था। 2006 से प्रकाशित हो रही वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम (डब्ल्यूईई) रिपोर्ट में स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं और पुरुषों के मध्य सापेक्ष अंतराल में हुई प्रगति का आकलन किया जाता है। यह आंकलन चार आयामों-आर्थिक भागीदारी और अवसर, शिक्षा का अवसर, स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता और राजनीतिक सशक्तीकरण के आधार पर किया जाता है ताकि इस वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर प्रत्येक देश स्त्री और पुरुषों के मध्य बढती असमानता की खाई को पाटने का सम्यक कदम उठा सके। 2021 में जो रिपोर्ट आई थी उसमें दक्षिण एशियाई देशों में भारत का प्रदर्शन सबसे खराब रहा। भारत रैंकिंग में 156 देशों में 140वें स्थान पर रहा, जबकि बांग्लादेश 65वें, नेपाल 106वें, पाकिस्तान 153वें, अफगानिस्तान 156वें, भूटान 130वें और श्रीलंका 116वें स्थान पर। रिपोर्ट में नंबर एक पर आइसलैंड, दो पर फ़िनलैंड, तीसरे पर नार्वे, चौथे पर न्यूजीलैंड और 5 वें पर स्वीडेन रहा। इससे पहले 2020 में भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर था।

भारत का जेंडर गैप 3 प्रतिशत बढ़ा
भारत के लगातार पिछड़ते जाने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए ग्लोबल जेंडर गैप-2021 की रिपोर्ट में कहा गया था, ’इस साल भारत का जेंडर गैप 3 प्रतिशत बढ़ा है। अधिकांश कमी राजनीतिक सशक्तीकरण उप-सूचकांक पर देखी गई है, जहां भारत को 5 प्रतिशत अंक का नुकसान हुआ हैं। 2019 में महिला मंत्रियों की संख्या 23.1 प्रतिशत से घटकर 9.1 प्रतिशत हो गई है। महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर में भी कमी आई है, जो 8 प्रतिशत से घटकर 22.3 प्रतिशत हो गई है। पेशेवर और तकनीकी भूमिकाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी घटकर 2 प्रतिशत रह गई। वरिष्ठ और प्रबंधकीय पदों पर भी महिलाओं की हिस्सेदारी कम है। इनमें से केवल 6 प्रतिशत पद महिलाओं के पास हैं और केवल 8.9 प्रतिशत फर्म महिला शीर्ष प्रबंधकों के पास हैं। भारत में महिलाओं द्वारा अर्जित आय पुरुषों द्वारा अर्जित की गई केवल 1/5वीं है। इसने भारत को वैश्विक स्तर पर बॉटम 10 में रखा है। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव, स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत को निचले पांच देशों में स्थान दिया गया है। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट-2021 में एक बेहद चौकाने वाला अध्ययन यह भी आया था, जिसमें बतलाया गया था कि पूरे विश्व में लैंगिक समानता का लक्ष्य पाने में 135 वर्ष लग जायेंगे. 2020 की रिपोर्ट में इसके लिए 100 साल का कयास लगाया गया था. बहरहाल यह कयास उन देशों की महिलाओं को ध्यान में रखकर लगाया गया था, जो लैंगिक समानता के मामले में भारत से काफी आगे हैं। लेकिन ग्लोबल जेंडर गैप 2021 में भारत के विषय में जो तथ्य आए थे, वे सकते में डालने वाले रहे। उसमें बताया गया था कि भारत की आधी आबादी को पुरुषों की बराबरी में आने में 257 साल लगेंगे। यह ऐसा तथ्य था जिसे देखकर शासक दलों, विशेषकर मोदी सरकार की नींद उड़ जानी चाहिए थी। लैंगिक असमानता का खात्मा सरकार के शीर्ष प्रोग्राम में आ जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मोदी सरकार इससे प्रायः निर्लिप्त रही, इसका अनुमान ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2023 से लगाया जा सकता है। 2023 में भारत की रैंकिंग 146 देशों में 127 रही। अर्थात 2023 में भारत से बेहतर स्थिति में 19 देश रहे, जबकि 2021 में भारत 156 देशों में 140 वें स्थान पर रहा। मतलब तब 16 देश ही भारत से बेहतर स्थिती में रहे। तो 2021 में 16 के मुकाबले 2023 में 19 देशों का बेहतर स्थिति में रहने का मतलब लैंगिक समानता के मोर्चे पर भारत की स्थिति और बदतर हुई। 2023 में भी हमारे प्रतिवेशी मुल्कों : नेपाल, भूटान, चीन, श्रीलंका और बांग्लादेश की रैंकिंग भारत से बेहतर रही! ऐसे में 2024 के लोकसभा चुनाव में उतर रहे हमारे राजनीतिक दलों को लैंगिक असमानता के मुद्दे पर पहले के मुकाबले कई गुना गंभीर होना होगा तथा इससे उबरने के लिए कुछ विशेष कदम उठाने होंगे। इसके लिए सबसे पहले भारत में लैंगिक असमानता की उत्पत्ति के कारणों का नए सिरे से संधान करना होगा, तभी जाकर निराकरण का सम्यक उपाय हो पायेगा।

विश्व में लैंगिक असमानता का सम्बन्ध मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या

भारत सहित पूरे में विश्व में लैंगिक असमानता का सम्बन्ध मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या, आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी से है, जिसकी उत्पत्ति शक्ति के स्रोतों आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और धार्मिक के विभिन्न सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से होती रही है। जहां तक शक्ति के स्रोतों के बंटवारे का सवाल है, हजारों साल से ही दुनिया के हर देश का शासक वर्ग ही कानून बनाकर शक्ति के स्रोतों का वितरण करता रहा है। पर, यदि हम यह जानने का प्रयास करें कि सारी दुनिया के शासकों ने किस पद्धति का अवलंबन कर शक्ति के स्रोतों का असमान बंटवारा कराया तो हमें विश्वमय एक विचित्र एकरूपता दिखती है। हम पाते हैं कि दुनिया के सभी शासक ही शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का असमान प्रतिबिम्बन करा कर ही, इस समस्या की सृष्टि करते रहे है। शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के असमान प्रतिबिम्बन से ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या, आर्थिक और सामजिक गैर-बराबरी के साथ लैंगिक असमानता की सृष्टि होती है, पूरा विश्व इसकी ठीक से उपलब्धि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही कर पाया। इसकी सत्योपलब्धि करके ही विषमता-मुक्त समाज बनाने व आधी आबादी को उसका प्राप्य दिलाने के लिए बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका, फ़्रांस, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया इत्यादि ने अपने-अपने देश में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन में होड़ लगाया और दुनिया को बेहतर बनाने का रास्ता दिखाया। ऐसा करते हुये ये देश अपने यहाँ विद्यमान विविध समूहों के स्त्री और पुरुषों के संख्या अनुपात में शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी देने लगे। इसका उज्ज्वलतम दृष्टान्त अमेरिका में स्थापित हुआ जहाँ शक्ति के समस्त स्रोतों में अनिवार्य रूप से डाइवर्सिटी पॉलिसी (विविधता नीति) लागू होने से वहां के वंचित नस्लीय समूहों-हिस्पैनिक, रेड इंडियंस, अफ्रीकी मूल के कालों इत्यादि-के साथ हर नस्लीय समूहों की आधी आबादी को शक्ति के स्रोतों में वाजिब अवसर मिलने लगा। इसी तरह दूसरे सभ्यतर देश भी अनिवार्य रूप से शक्ति के समस्त स्रोतों में महिलाओं के रूप में विद्यमान आधी आबादी को उनकी हिस्सेदारी देने लगे। इस तरह वहां महिला सशक्तीकरण का दौर चल पड़ा और महिलाएं बिना किसी भेदभाव के पुरुषों के समान सिर्फ नौकरियों और राजनीति की संस्थाओं में ही नहीं सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, फिल्म मीडिया इत्यादि में अवसर मिलने लगा। इससे वैसे देश वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा निर्धारित चारों आयामों- आर्थिक भागीदारी और अवसर, शिक्षा का अवसर,स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता और राजनीतिक सशक्तीकरण-पर खरा उतरने लगे। किन्तु भारत में ऐसा इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि यहाँ के शासकों ने शक्ति के स्रोतों में लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन पर काम ही नहीं किया। बहरहाल भारत के राजनीतिक दल यदि 250 सालों से अधिक वर्षों में अर्जित होने वाली लैंगिक समानता को महज कुछेक दशकों के मध्य ही हासिल करना चाहते हैं तो निम्न क्षेत्रों में सामाजिक के साथ लैंगिक विविधता लागू करने की बात अपने घोषणापत्रों में शामिल करें-

1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों।
2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप।
3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी।
4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग,परिवहन।
5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन,प्रवेश व अध्यापन।
6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों,उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि।
7-देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को दी जानेवाली धनराशि।
8-प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मिडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों।
9-रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो।
10-ग्राम पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधासभा की सीटों, राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट, विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों, विधान परिषद-राज्यसभा, राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों के कार्य बल इत्यादि में!

उपरोक्त क्षेत्रों में सामाजिक के साथ लैंगिक विविधता लागू करने पर भारत की महिलाएं पुरुषों के साथ मिलिट्री, पुलिस, न्यायपालिका, सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों, राजनीति की समस्त संस्थाओं, समस्त व्यवसायिक गतिविधियों इत्यादि में कन्धा से कन्धा मिलाकर चलने लगेंगी. तब देश न सिर्फ 257 के बजाय 50 वर्षों में ही लैंगिक असमानता की समस्या से पार पा लेगा, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विषमता-जन्य बाकी समस्यायों पर भी विजय पा लेगा!

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