Example Of  Struggle: सामंती दमन के खिलाफ संघर्ष की मिसाल

Example Of  Struggle: दलितों के लिए राष्ट्र निर्माताओं ने यह सोचकर विशेष कानून बनाए कि इससे उन्हें उनका हक मिल सकेगा और कानून के भय से ही सही, समाज उनका निरादर नहीं पाएगा। लेकिन कानून किताबों में होता है और उसे लागू करवाने वाली संस्थाएं, पुलिस, वकील व न्यायाधीश अभी इसकी आत्मा से रूबरू नहीं हैं।

लेखकः एचएल दुसाध
(बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष)

न्यूज इंप्रेशन
Lucknow: धरती की छाती पर विद्यमान असंख्य मानव समूहों में दलित (अस्पृश्य) सर्वाधिक अधिकारविहीन मनुष्य प्राणी रहे। दुनिया में अधिकार विहिन मानव समुदायों की विद्यमानता सर्वत्र रही, किन्तु मानव सभ्यता के हजारों साल के इतिहास में ऐसा कोई समुदाय नहीं रहा, जिसे रास्तों पर उस समय चलने की मनाही रही, जब व्यक्ति की छाया दीर्घतर हो जाती है। ऐसा इसलिए नियम बना था क्योंकि उनकी छाया तक के स्पर्श से लोग अपवित्र हो जाते रहे। ऐसा कोई समुदाय नहीं वजूद मे आया जिसे रास्तों पर चलते समय कमर में झाड़ू बांध और गलें में हड़िया लटकाकर चलने के लिए बाध्य किया जाता रहा, ताकि उनके पद-चिन्ह मिटते जाएं और उनका थूक जमीन पर न गिरे। धरा पर ऐसा कोई समुदाय नहीं दिखा, जिसकी महिलाओं को अपना स्तन ढकने की मनाही हो और ढकने पर टैक्स देना पड़े। यही नहीं ऐसा कोई समूह भी दुनिया में अबतक नहीं नजर आया जिसे अच्छा नाम रखने और देवालयों में घुसकर सर्वशक्तिमान ईश्वर के समक्ष अपने दुख मोचन के लिए पूजा करने की मनाही हो। ऐसी निर्योग्यताओं से भरा कोई एक मानव समुदाय वजूद में आया तो वह भारत का दलित समुदाय ही रहा। अस्पृश्यता के डिपो के रूप में चिन्हित अधिकारविहीन दलितों को अधिकार सम्पन्न करने की शुरुआत अंग्रेजों ने आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) से की, किन्तु मुकम्मल अधिकार आंबेडकर रचित संविधान से मिला। संविधान ने न सिर्फ हजारों साल से जारी शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक- शैक्षिक-धार्मिक) के बहिष्कार के निवारण का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि हिंदुओं के उत्पीड़न और दमन से बचाने का प्रावधान भी किया। किन्तु संविधान द्वारा इनको अधिकारसम्पन्न करने के बावजूद इनके शोषण और उत्पीड़न का सिलसिला पूरी तरह थमा नहीं और स्वाधीन भारत इनके लिए कुछ विशेष कानून बनने पड़े, जिनमें सबसे खास है अनुसूचित जाति/ जनजाति उत्पीड़न निवारण अधिनियम 1989 !
उत्पीड़ितों का मुकदमा जीतने का प्रतिशत निहायत ही शोचनीय
दलितों के लिए राष्ट्र निर्माताओं ने यह सोचकर विशेष कानून बनाए कि इससे उन्हें उनका हक मिल सकेगा और कानून के भय से ही सही, समाज उनका निरादर नहीं पाएगा। लेकिन कानून किताबों में होता है और उसे लागू करवाने वाली संस्थाएं, पुलिस, वकील और न्यायाधीश अभी इसकी आत्मा से रूबरू नहीं हैं। वे मानसिक तौर पर यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि दलित व्यवहारिक जीवन में अधिकारों के भोग तथा बराबरी के अधिकारी हैं। इसलिए दलित उत्पीड़न निवारण ऐक्ट की तहत किसी तरह मुकदमे में तो दर्ज हो जाते हैं, पर अदालतों में सवर्ण वकीलों के दाँवपेंच और जजों की अनिच्छा के आगे ऐसे मुकदमे सामान्यतया दम तोड़ देते हैं। ऐसे में उत्पीड़न अधिनियम में दर्ज मुकदमों में पुलिस के असहयोगपूर्ण रवैये और अभियुक्त के प्रति पक्षपातपूर्ण भवन के कारण उत्पीड़ित दलित मुकदमे हार जाते हैं। उत्पीड़ितों का मुकदमा जीतने का प्रतिशत निहायत ही शोचनीयः लगभग सात प्रतिशत के बराबर है। ऐसी स्थिति में एक डॉक्टर ने इस अधिनियम को हथियार बनाकर सामंती दमन के खिलाफ लड़ने और जीतने की एक उज्जवल मिसाल कायम किया है और जिस डॉक्टर ने यह कमाल किया है, उनका नाम है डॉ. विजय कुमार त्रिशरण! डॉ.त्रिशरण पेशे से चिकित्सक हैं,किन्तु लेखन और आंबेडकरवाद के प्रसार में अद्भूत मिसाल कायम किये हैं। चिकित्सकीय पेशे की भारी व्यस्तता के मध्य उन्होंने अबतक 40 के करीब किताबें लिखी हैं, जिनमें उत्पीड़न से दलितों के बचाव पर केंद्रित ‘दलित अधिकार चेतनाः स्वर्ग लोक पर कब्जा’ जैसी चर्चित किताब भी है। यही नहीं भारत में दलित बहुजनों को शक्ति के स्रोतों हिस्सेदारी दिलाने के लिए लेखकों के संगठन ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ द्वारा जो सर्वव्यापी आरक्षण वाला डाइवर्सिटी आंदोलन चलाया जा रहा, डॉ. त्रिशरण उसके प्रमुख स्तंभों में एक हैं। आज झारखंड में दलित, आदिवासी, पिछड़ों को 25 करोड़ तक के सरकारी ठेकों में जो आरक्षण मिला है, उसके लिए सरकार को तैयार करने में आपका योगदान स्मरणीय है। गढ़वा जिले के भवनाथपुर में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड के हॉस्पिटल मे कार्यरत डॉ. त्रिशरण ने जीवन में पंचशील का पालन करने में अनुकरणीय दृष्टांत स्थापित किया है। उनके अनुकरणीय जीवन से प्रेरित होकर पलामू परिमंडल के असंख्य युवा आज बुद्धिज़्म और आंबेडकरवाद के प्रसार में खुद को समर्पित कर दिए हैं। कोई सोच नहीं सकता कि अपने इलाके में बहुजनों के जीवित आइकॉन डॉ. त्रिशरण को भी सामंतवादी ताकते उत्पीड़न करने का दुःसाहस करेंगी। किन्तु डॉ. त्रिशरण भले ही हजारों लोगों के प्रेरणा स्रोत हों, है तो दलित ही, यह सोच कर एक सवर्ण विधायक ने उनकी गरिमा को आघात पहुचा दिया।

घटना सामंती ताकतों के खिलाफ संघर्ष की एक मिसाल बनी
घटना 2006 की है। भवनाथपुर में सेल के अस्पताल में पद-स्थापित डॉ. त्रिशरण को मई 2006 में सेल प्रबंधन द्वारा प्राइम लोकेशन पर एक बंगला आवंटित किया गया। किन्तु उस इलाके के विधायक बीपी शाही ने उनकी अनुपस्थिति में बंगले से उनका सामान फेकवा कर, उसमें ताला लगा दिया। घटना की जानकारी पाने के बाद जब डॉ. त्रिशरण ने विरोध प्रकट किया, विधायक और उसके लोगों ने जाति सूचक शब्दों का प्रयोग कर उनका अपमान किया। इस घटना पर साहस का परिचय देते हुए डॉ. त्रिशरण ने दोषियों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कराई। मुकदमा 18 साल तक चला। मुकदमों के लंबा खींचने से गवाह टूट जाते हैं और उत्पीड़ित दबाव में मुकदमा वापस ले लेते हैं। लेकिन डॉ. झुके और टूटे नहीं। 18 साल तक धमकियों, परेशानियों और प्रताड़नाओं के मध्य वह लड़ाई जारी रखे। अंततः उनका धैर्य और जोखिम रंग लाया और डॉ.विजय इस मुकदमे विजयी हुए! मेदिनीनगर अदालत ने हाल ही में चार अभियुक्तों को आईपीसी की विभिन्न धाराओं तथा एससी-एसटी उत्पीड़न निवारण अधिनियम 1989 की धारा के तहत अधिकतम एक वर्ष और छह माह की सजा आर्थिक दंड के साथ सुनाई है। यह घटना सामंती ताकतों के खिलाफ संघर्ष की एक मिसाल बनी है, जिससे गढ़वा और उसके निकटवर्ती जिलों के दलित, आदिवासियों में हर्ष की लहर दौड़ गई है।

फैसला तब आया है, जब देश में आम चुनाव की सरगर्मियां जोरों पर है
बहरहाल डॉ. विजय कुमार त्रिशरण के पक्ष में यह फैसला तब आया है, जब देश में आम चुनाव की सरगर्मियाँ जोरों पर है। ऐसे में लोकसभा चुनाव में मिल रहे अवसरों का इस्तेमाल करने के लिए दलितों को तत्पर होना होगा। दलितों पर होने वाले उत्पीड़न के कारणों पर प्रकाश डालते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा है, ’ये अत्याचार एक समाज पर दूसरे समर्थ समाज द्वारा हो रहे अन्याय और अत्याचार का प्रश्न है। ये एक मनुष्य पर हो रहे अत्याचार और अन्याय प्रश्न नहीं है, बल्कि एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर जबरदस्ती से किए जा रहे आक्रमण और जुल्म, शोषण तथा उत्पीड़न का प्रश्न है।‘ किस तरह से इस वर्ग कलह से बचाव किया जा सकता है,उसका एकमेव उपाय बाबा साहब ने दलित वर्ग को अपने हाथ में सामर्थ्य और शक्ति इकट्ठा करना बताया है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो शक्ति के स्रोतों आर्थिक,राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- में वाजिब हिस्सेदारी हासिल करके ही दलित अत्याचारी वर्ग से निजात पा सकते हैं। शक्ति के स्रोतों में सर्वाधिक महत्व आर्थिक शक्ति का है। तमाम अध्ययन बताते हैं कि दलित उत्पीड़न सामान्यतया आर्थिक रूप से कमजोरों पर होता है। इस विषय में डॉ. विजय कुमार त्रिशरण ने लिखा है, ’दलित उत्पीड़न के शिकार लोग सामान्यतया आर्थिक रूप से विपन्न होते हैं। सदियों से देश की सत्ता, संपत्ति और सम्मान से वंचितों को यदि आर्थिक रूप से सशक्त बना दिया जाए तो सामंती संस्कार वाले लोग जल्दी उन्हें आँखें नहीं दिखा सकेंगे! इससे छुआछूत का भेद भी समाप्त हो जाएगा। अतः सामंती संस्कार वालों के उत्पीड़न से निजात के लिए सबसे जरूरी है दलितों का आर्थिक सशक्तीकरण।‘

उत्पीड़न से निजात के लिए जरूरी है दलितों का आर्थिक सशक्तीकरण
दुर्भाग्य से पिछले दस सालों से देश की सत्ता ऐसी विचारधारा के लोगों के हाथ में जो उस हिन्दू धर्म शास्त्रों को बढ़ावा देते हैं जो सामंती संस्कार वालों को दलितों पर जुल्म और अत्याचार के लिए प्रेरित करते हैं। इस विचारधारा के लोग दलित बहुजनों का आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से विकास अधर्म मानते हैं। उनके हिसाब से शक्ति के समस्त स्रोतों के भोग का अधिकारी सिर्फ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग (मुख-बाहु-जंघे) से जन्मे लोग ही हैं। इसलिए वे उन समस्त सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में देने के लिए जुनून की हद तक आमादा हैं ,जहां संविधान के तहत दलितों को अर्थोपार्जन के बेहतर अवसर रहे।इस पार्टी के राज में अल्पसंख्यकों के साथ दलित उत्पीड़न की घटनाओं में बेतहाशा इजाफा हुआ है। यदि अगले चुनाव में इस विचारधारा के लोग सत्ता में फिर आ जाते है तो भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर देंगे, जिसमें देश डॉ. आंबेडकर के संविधान से नहीं, उस मनु के विधान से चलेगा जिसमें दलितों के साथ आदिवासी और पिछड़ों के लिए शक्ति के स्रोतों का भोग निषेध रहा । इस चुनाव में उनका मुकाबला उस कांग्रेस से है, जिसने देश को आजाद कराने के साथ असंख्य स्कूल,कॉलेज, हॉस्पिटल, सरकारी उपक्रम खड़े किए, जिनमें अवसर पाकर दलितों में एक मध्यम वर्ग पनपा तथा दलित समाज की मुख्यधारा से जुड़ने लगे। आज दलितों का आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से जो भी उत्थान हुआ है, उसमें प्रायः सारा योगदान कांग्रेस की नीतियों का है। यह पार्टी यदि इस बार सत्ता में आती है तो दलित बहुजनों के कंपनियों, अखबारों,मीडिया,हॉस्पिटलों इत्यादि का मालिक बनने के साथ उच्च पदों पर नियुक्त होने का अवसर मिलेगा। यही नहीं कांग्रेस सत्ता में आने पर 30 लाख पर्मानेट सरकारी नौकरियां देने के साथ ऐसा कुछ उपक्रम चलाएगी ,जिससे कोई भी स्नातक और डिप्लोमा होल्डर बेकार नहीं रहेगा। कांग्रेस के पास ऐसी ढेरों योजनाएं हैं, जिससे देश के 90 प्रतिशत दुर्बल व वंचित आबादी की शक्ल बदल जाएगी। ऐसे में अगले लोकसभा चुनाव में ऐसी सरकार लाने का अवसर है, जिसके शासन में गारंटी के साथ दलित बहुजनों की स्थिति बेहतर होगी और वे सामंती संस्कार वालों के अन्याय – अत्याचार से निजात पा जाएंगे। अब सवाल पैदा होता है हिन्दुत्व के नशे का शिकार बन रहे दलित अगले लोकसभा चुनाव का इस्तेमाल क्या सामंती ताकतों से निजात पाने में करेंगे!
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। संपर्कः 9654816191)

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