Electoral Bonds: जितनी आबादी-उतना हक से लगेगा, घोटालों पर अंकुश

चुनावी बॉन्ड घोटाले को सामने लाने के लिए सीजेआई चंद्रचूड़ का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। बहरहाल चंद्रचूड़ की काबिले मिसाल कड़ाई से जो चुनावी बॉन्ड घोटाला सामने आया है, उसके बाद देश में यह सवाल बड़ा आकार लेने लगा है कि क्या राष्ट्र देश को हिलाकर रख देने वाले घपला घोटालों का सामना करने के लिए बराबर अभिशप्त रहेगा ?

एचएल दुसाध
(बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष)
न्यूज इंप्रेशन

Delhi: समय-समय पर मूदड़ा कांड, बोफर्स, हवाला , चारा, बराक मिसाइल, बैंक प्रतिभूति, सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम विनिवेश, ताबूत, पेट्रोल पंप, कॉमन वेल्थ, 2 जी स्पेक्ट्रम, सेना की कैंटीनों में घटिया सामग्री, आपूर्ति, पीएफ इत्यादि घोटालों का साक्षात करने वाला भारत नामक अभागा देश अब उस ‘चुनावी बॉन्ड घोटाले’ का सामना करने के लिए अभिशप्त हुआ है, जिसने घोटालों से जुड़े अतीत के सारे रिकार्ड तोड़ डाले है। इस घोटाले को सामने लाने के लिए सीजेआई चंद्रचूड़ का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। बहरहाल चंद्रचूड़ की काबिले मिसाल कड़ाई से जो चुनावी बॉन्ड घोटाला सामने आया है, उसके बाद देश में यह सवाल बड़ा आकार लेने लगा है कि क्या राष्ट्र देश को हिलाकर रख देने वाले घपला घोटालों का सामना करने के लिए बराबर अभिशप्त रहेगा? क्या भ्रष्टाचार के निवारण पर काम करने वाली ट्रानस्पैरेंसी इन्टरनेशनल हर वर्ष जो रिपोर्ट प्रकाशित करती है, उसमें दिखने वाली शर्मनाक रैंकिंग से भारत कभी उबर पाएगा?फिलहाल इन सवालों का जवाब ‘नहीं’ है। पर, यदि भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेवार वर्ग की सही पहचान करके देश के नीति निर्माता जिम्मेवार वर्ग पर अंकुश लगाने की दिशा में सही प्रयास करें तो न सिर्फ ट्रानस्पैरेंसी इन्टरनेशनल की रैंकिंग में हमारी रैंकिंग सम्मानजनक हो सकती है, बल्कि राष्ट्र को हिलाकर रख देने वाले घपला घोटालों से भी काफी निजात मिल सकती है। किन्तु भारी अफसोस की बात है कि अबतक न तो देश के नीति निर्माताओं ने ऐसा करने की जहमत उठाया और न ही भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए अन्ना हजारे का जो आंदोलन चला, उसमे भ्रष्टाचारी वर्ग की पहचान कर उनपर अंकुश लगाने की ही बात उठी, जबकि यह सबसे जरूरी काम रहा। बहरहाल आज यदि राष्ट्र सचमुच चुनावी बॉन्ड जैसे रिकार्ड तोड़ घोटाले से चिंतित है तो उसे भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेवार वर्ग की पहचान कर उसपर अंकुश लगाने की दिशा में कदम उठान ही पड़ेगा।

भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेवार वर्ग की पहचान का सवाल है

जहां तक भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेवार वर्ग की पहचान का सवाल है, यह कोई कठिन काम नहीं है। यदि कॉमन वेल्थ घोटाले में आए ललित भनोट, वीके शर्मा, संजय महेंद्र, टीएस दरबारी; आदर्श सोसाइटी घोटाले में आए जयराम पाठक, रमानंद तिवारी, पीवी देशमुख, सीमा व्यास, प्रदीप व्यास, आरजेड कुंदन, डीके शंकरन, इसरो-देवास मल्टी मीडिया करार मे आए डॉ. एम. जी. चंद्रशेखर, सेना की कैन्टिनों में घटिया सामग्री सप्लाई घोटाले मे जिनका नाम उछला उन सेनाध्यक्ष वीके सिंह, वायु सेना प्रमुख पीवी नाईक और नौ सेना प्रमुख निर्मल के नामों पर गौर करें तो पाएंगे कि अतीत से लेकर आज तक जितने भी घपला-घोटाले हुए, उनसे जुड़े 99 प्रतिशत नाम ही उस प्रभुवर्ग से रहे, जिसे हम वर्ण-व्यवस्था का जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग कहते हैं! चर्चित घोटालेबाज हर्षद मेहता, रामालिंगम राजू, केतन पारीख, सीआर भंसाली, किडनी कारोबारी डॉ. अमित, इच्छाधारी बाबा शिवकुमार द्विवेदी इत्यादि जैसे असंख्य नाम इसी वर्ग से रहे। हालांकि जबतक अपराध साबित नहीं हो जाता तब तक किसी को अपराधी नहीं माना जा सकता! जो नाम अबतक बड़े-बड़े घोटालों से जुड़े, उनमें कइयों का भ्रष्टाचार साबित हुआ।बावजूद इसके इनमें 99 प्रतिशत उच्च वर्ण के लोगों का नाम जुड़ना साबित करता है कि भारत का जन्मजात प्रभु वर्ग ही भ्रष्टाचार का जिम्मेवार वर्ग है।
जहां तक भ्रष्टाचार सवाल है यह एक सार्वदेशिक समस्या है और दुनिया के तमाम देश ही इसे एक बड़ी सामाजिक बुराई मानकर अतीत से लेकर अबतक इसके खात्मे के लिए प्रयासरत रहे और आगे भी रहेंगे। लेकिन जो भ्रष्टाचार बड़ी सामाजिक बुराई के रूप मे चिन्हित होता रहा है, उसके पृष्ठ में आम से लेकर खास लोग धन-तृष्णा की क्रियाशीलता को प्रधान कारण बताते रहे हैं। इस धन-तृष्णा के कारण ही भारत ही नहीं, दुनिया के तमाम समाजों में ही भ्रष्टाचार की व्याप्ति रही हैः फर्क सिर्फ मात्रा का रहा। बहरहाल जिस धन-तृष्णा को भ्रष्टाचार की जड़ माना जाता है, समाज मनोविज्ञानियों के अनुसार उसका संपर्क आकांक्षा-स्तर (लेवल ऑफ ऐस्परैशन) है और आकांक्षा स्तर का नाभि-नाल का संबंध सामाजिक विपन्नता (सोशल डिसएडवांटेज) से है। विपन्नता और आकांक्षा स्तर के परस्पर संबंधों का अध्ययन करते हुए समाज मनोविज्ञानियों ने साबित किया है कि विपन्न लोगों में आकांक्षा-स्तर निम्न हुआ करता है : वे थोड़े से में संतुष्ट हो जाते हैं। इनमें उपलब्धि- अभिप्रेरणा (अचिवमेंट मोटिवेशन) निम्न हुआ करती है। विपरीत स्थिति सामाजिक संपन्नता वाले समूहों की रहती है। ऐसे समूहों में आकांक्षा दृ स्तर और उपलब्धि अभिप्रेरणा उच्च हुआ करती है। इनमें भी उच्च वर्गीय की तुलना में मध्यम वर्गीय लोगों की उपलब्धि-प्रेरणा उच्चतम हुआ करती है। इस सार्वदेशिक सच्चाई के आईने में भारत के सामाजिक समूहों का अध्ययन करने पर पाते हैं कि वर्ण-व्यवस्था के वितरणवादी सिद्धांत की परिणति स्वरूप शुद्रातिशूद्र सामाजिक रूप से विपन्न श्रेणी में हैं। वर्ण- व्यवस्था में शक्ति के समस्त स्रोतों से दूर धकेले जाने के कारण चिरकाल के लिए ही ये विपन्न होने के लिए अभिशप्त हुए। इस कारण इनकी आकांक्षा-स्तर और उपलब्धि अभिप्रेरणा निम्न स्तर की है। यह थोड़े में संतुष्ट रहने वाला समूह है। यही कारण है इसकी धन-तृष्णा कम है, जिस कारण बड़े-बड़े घपला-घोटालों में दलित, आदिवासी और पिछड़ों की संलिप्तता अपवाद रूप से ही दिखती है।

वर्ण-व्यवस्था में देश का प्रभुवर्ग परजीवी वर्ग में तब्दील रहा

वर्ण-व्यवस्थाजन्य कारणों से भारत के प्रभु वर्ग की प्रस्थिति सामाजिक सम्पन्न वर्ग के रूप में है। इसमें आकांक्षा-स्तर उपलब्धि-अभिप्रेरणा का स्तर उच्च है। आकांक्षा-स्तर और उपलब्धि-अभिप्रेरणा के कारण ही सामान्यतया बड़े-बड़े घोटालों में इसकी ही संलिप्तता रहती है। वर्ण-व्यवस्था जन्य कुछ अन्य तत्व भी प्रभुवर्ग की संलिप्तता के पीछे क्रियाशील रहते हैं। वर्ण-व्यवस्था में देश का प्रभुवर्ग परजीवी वर्ग में तब्दील रहा। उत्पादन से पूरी तरह दूर रहकर भी यह उत्पादन के सम्पूर्ण सुफल का भोग करता रहा। चूंकि यह बिना उत्पादन किए उत्पादन के सुफल का भोग करने का अभ्यस्त रहा, इसलिए यह अधिकतम सुख भोगने की लालसा में शॉर्टकट रास्ता अपनाने की जुगत भिड़ाते रहता है। इस समूह की अपार भौतिक आकांक्षा में वर्ण-व्यवस्था से जुड़ा एक और तत्व अहम रोल अदा करता है। वह है मानव-सृष्टि में हिन्दू धर्म का दैवीय सिद्धांत (डिवाइन थ्योरी)। चूंकि वर्ण-व्यवस्था ईश्वर सृष्ट रही और इसमें शक्ति के समस्त स्रोत कथित ईश्वर के उत्तमांग के लिए पीढ़ी दर आरक्षित रहे, इसलिए तमाम संपदा-संसाधनों को अपने अधीन करना प्रभुवर्ग अपना दैवीय-अधिकार समझता है। यह दैवीय अधिकार की भावना भी उसे बड़े-बड़े आर्थिक घोटालों जैसे अपराध अंजाम देने के लिए प्रेरित करती है।लेकिन अपराधी सम्पन्न हो या विपन्न समूह का, अपराध करने के पहले पकड़े जाने का भय उसके अवचेतन में क्रियाशील रहता है। किन्तु भारत के सम्पन्न तबके के भ्रष्टाचारी कुछ हद तक भयमुक्त रहते हैं। वे कहीं न कहीं इस बात के प्रति आश्वस्त रहते हैं कि जांच एजेंसियों, पुलिस प्रशासन और न्यायपालिका में छाए उनके सजाति उन्हें बचा लेंगे। इसलिए वे बड़ा से बड़ा घोटाला करने की जोखिम उठा लेते हैं। उसके विपरीत पुलिस-प्रशासन, जांच एजेंसियों और न्यायपालिका इत्यादि में उच्च जातियों की जबरदस्त उपस्थिति बहुजनों के शिराओं में बराबर भय का संचार करती रहती है, इसलिए वे राष्ट्र को हिलाकर रख देने वाले घपला-घोटालों से दूर रहते हैं!

भ्रष्टाचार कम करने में विविधता नीति एक और रूप में प्रभावी हो सकती है
बहरहाल राष्ट्र अगर भ्रष्टाचार से निजात पाने के लिए जन्मजात प्रभुवर्ग पर अंकुश लगाने की दिशा में कुछ कदम उठाना चाहता है तो इस बात को ध्यान में रखना होगा कि वह न तो सुधरने वाला है और न ही कोई भी कानून उसके आकांक्षा स्तर को सीमित कर सकता है ! लेकिन एक उपाय है जिसके जोर से उसके भ्रष्टाचार को प्रभाव को सीमित किया जाता है। वह है शक्ति के स्रोतो (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक और धार्मिक) में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिंबन! ऐसा होने पर शक्ति के स्रोतों का बंटवारा भारत के पाँच सामाजिक समूहों-एससी, एसटी, ओबीसी, धार्मिक अल्प संख्यक और सामान्य वर्ग के स्त्री दृपुरुषों के संख्यानुपात में होगा। इससे जिस उच्च वर्ण का उद्योग-व्यापार, सेना के उच्च पदों, न्यायपालिका, प्रशासनिक सेवा, फिल्म- मीडिया,मंत्रालयों के सचिव आदि पदों पर 80-90 प्रतिशत कब्जा है, एवं जहां का भ्रष्टाचार ही राष्ट्र की विराट समस्या है, वहां इस वर्ग के पुरुष 7-8 प्रतिशत अवसरों पर सिमटने के लिए बाध्य होंगे। इससे निश्चित रूप से देश को झकझोरने वाले भ्रष्टाचार की मात्रा में भारी गिरावट आएगी। स्मरण रहे भ्रष्टाचार उच्च वर्ण के पुरुष ही करते हैं, उनके महिलाओं की संलिप्तता अपवाद रूप से ही देखी जाती है। कारण, हिन्दू धर्मशास्त्रों के कारण उच्च वर्ण की महिलाओं में भी दलित, आदिवासी, पिछड़ों की भांति आकांक्षा स्तर निम्न होती है। अतः शक्ति के स्रोतों में विविधता नीति लागू होने पर भ्रष्टाचार तो खत्म नहीं होगा पर उसके प्रभाव क्षेत्र में 80-85 प्रतिशत की गिरावट आ जाएगी। भ्रष्टाचार की व्यापकता को कम करने में विविधता नीति एक और रूप में प्रभावी हो सकती है। वह इस तरह कि जब भ्रष्टाचारियों का संरक्षण व बचाव करने वाली जांच एजेंसियों, पुलिस प्रशासन, न्यायालयों इत्यादि में प्रभुवर्ग के लोग 7- 8 प्रतिशत पर सिमटेंगे, तब इस वर्ग के लोगों में मनोवैज्ञानिक सुरक्षा की कमी आ जाएगी और वे घपला- घोटाला करने के पहले सौ बार सोचने के लिए बाध्य होंगे।

देश चुनावी बॉन्ड घोटाले से है स्तब्ध
आज जबकि देश चुनावी बॉन्ड घोटाले से स्तब्ध है, ऐसे समय में एक भारी सुकून की बात है कि जननायक राहुल गांधी जितनी आबादी-उतना हक के मुद्दे पर चुनाव लड़ने जा रहे है और यही लोकसभा का प्रमुख चुनावी मुद्दा बनता दिख रहा है। ऐसे में अगर कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन सत्ता में आता है तो शक्ति के समस्त स्रोतों में जितनी आबादी-उतना हक की नीति लागू हो सकती है। इससे भ्रष्टाचार का जिम्मेवार प्रभुवर्ग उद्योग-व्यापार, सेना के उच्च पदों, न्यायपालिका, प्रशासनिक सेवा, फिल्म- मीडिया, क्षेत्र में 7-8 प्रतिशत अवसरों पर सिमटने के लिए बाध्य होगा। इन क्षेत्रों धीरे-धीरे 50 प्रतिशत हिस्सेदारी प्रभुवर्ग सहित दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक समुदाय के उन महिलाओं की हो जाएगी ,जिनका आकांक्षा स्तर निम्न है। ऐसा इसलिए कि राहुल गांधी की पार्टी ने महिलाओं के लिए सरकारी नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा किया है, जो कल शक्ति के समस्त स्रोतों तक प्रसारित हो सकता है। कांग्रेस द्वारा 30 लाख सरकारी नौकरियां दिए जाने का तात्कालिक लाभ तो यह होगा कि भ्रष्टाचारियों का संरक्षण व बचाव करने वाली जांच एजेंसियों, पुलिस प्रशासन, न्यायालयों इत्यादि पर आधा कब्जा आधी आबादी का हो जाएगा। प्रभुवर्ग के पुरुषों तथा आधी आबादी में 57 प्रतिशत अवसर बँटने के बाद शेष 42-43 प्रतिशत उन दलित, आदिवासी,पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के पुरुषों में बंट जाएंगे, जिनका नाम बड़े-बड़े घपला घोटालों में अपवाद रूप से ही दिखता है। ऐसे में भविष्य में जितनी आबादी-उतना हक लागू होने पर भारत में समतामूलक समाज तो आकार लेगा ही, साथ में राष्ट्र को हिलाकर रख देने वाले भ्रष्टाचार और अपराध की घटनाओं में 80-85 प्रतिशत तक की गिरावट आ जाएगी!

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