Bihar Politics: क्यों अलाप रहे राग, जीतन मांझी, उपेन्द्र और चिराग

Bihar Politics: जब राजनीति के क्षेत्र में कोई नेता अपनी-अपनी अलग डफली व अलग-अलग राग अलापने लगे, तो समझ लीजिए कि कुछ खेल होने वाला है। सच यह भी है कि वैसे नेता खुद पार्टी बनाकर उसका नेतृत्व तो करते हैं, परंतु उनका कोई सिद्धांत नहीं होता। ऐसे सिद्धांत विहीन नेता सिर्फ एन-केन-प्रकारेण सिर्फ सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं।

अलखदेव प्रसाद ’अचल’

न्यूज इंप्रेशन
Bihar: जब राजनीति के क्षेत्र में कोई नेता अपनी-अपनी अलग डफली और अलग-अलग राग अलापने लगे, तो समझ लीजिए कि कुछ खेल होने वाला है। सच यह भी है कि वैसे नेता खुद पार्टी बनाकर उसका नेतृत्व तो करते हैं, परंतु उनका कोई सिद्धांत नहीं होता। ऐसे सिद्धांत विहीन नेता सिर्फ एन-केन-प्रकारेण सिर्फ सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं और अपनी-अपनी जातियों की आंखों में धूल झोंककर सत्ता सुख भोगते रहना चाहते हैं। इसके लिए कभी इस पार्टी से तो कभी उसे पार्टी से गठबंधन करने के चक्कर में लगे रहते हैं।
जीतन मांझी का झुकाव महागठबंधन की ओर
अगर हम अभी बिहार की ताज़ा राजनीतिक परिस्थितियों पर बात करें, तो कुछ वैसा ही देखने के लिए मिल रहा है। बिहार के मुख्यमंत्री व जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार महागठबंधन से अलग होकर भाजपा के साथ जा मिले और पुनः मुख्यमंत्री बन गए। परंतु उनके जाने के बाद जो राजनीतिक परिदृश्य बन गया है, उसके अनुसार बहुमत सिद्ध कर भी सकेंगे या नहीं, कई राजनीतिक विश्लेषकों को इस पर भी संदेह हो रहा है। संदेह इसलिए हो रहा है कि फिलहाल पूर्व मुख्यमंत्री और हम पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जीतनराम मांझी हैं तो एनडीए के साथ, परंतु यह कयास लगाया जा रहा है कि उनका झुकाव महागठबंधन की ओर है। वैसे जीतन राम मांझी कुछ ही महीने पहले महा गठबंधन से एनडीए में गए थे। ऐसा नहीं था कि यहां उन्हें किसी तरह की दिक्कत थी। फिर भी कुछ-न-कुछ राजनीतिक स्वार्थ तो रहा ही होगा।
क्या गुल खिलाते हैं जीतन मांझी ?
महागठबंधन से नीतीश कुमार को अलग होने के बाद राष्ट्रीय जनता दल ने उन्हें यह ऑफर दिया था कि आप हमारे गठबंधन के साथ आ जाएं। आपको हमलोग मुख्यमंत्री बना देंगे। फिर भी जीतन राम मांझी शायद एनडीए की तरफ इसलिए रह गए कि वहां मंत्री का पद मिलने की तो गारंटी है, परंतु महा गठबंधन के साथ आने के बाद बहुमत की सरकार बन ही जाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। जीतन राम मांझी एनडीए के साथ रह तो गए, फिर भी उनका यह बयान कि हमको दो मंत्री का पद मिलना चाहिए था। क्योंकि हमने मुख्यमंत्री का ऑफर ठुकरा दिया है, कहीं-न-कहीं यह दबाव की राजनीति कर रहे हैं। आखिर चार विधायकों पर दो मंत्री कौन हिसाब से मांग रहे हैं? इसका मतलब यह हुआ कि जितना अधिक से अधिक लाभ मिल जाए। जो यह दर्शाता है कि यह सबकुछ जनता के हित के लिए नहीं कर रहे हैं, अपितु अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए कर रहे हैं। अब देखना होगा कि जीतन राम मांझी क्या गुल खिलाते हैं ?

लोस चुनाव लड़ने लायक पांच नेता नहीं हैं, सीएम बनने का ख्वाब
अगर राष्ट्रीय लोक जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा की बात की जाए, तो उन्होंने तो इसके पहले अपनी राजनीतिक पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का राजनीतिक स्वार्थ में जदयू के साथ विलय तक कर लिया था कि शायद आने वाले समय में मुझे अपना उत्तराधिकारी बना देंगे। पर उन्हें पार्टी में विरोध की वजह से मंत्री का पद नहीं मिल सका, इसलिए उनके अंदर कुलबुलाहट दिखाई पड़ने लगी। दूसरे, उन्हें जब यह लगने लगा कि नीतीश कुमार के साथ रहेंगे, तो काराकाट लोकसभा से हमें टिकट मिलने की संभावना भी नहीं रहेगी। क्योंकि वहां महाबली सिंह कुशवाहा दो बार से जीतते आ रहे हैं। जब उन्होंने देख लिया कि काराकाट से लोकसभा सीट मिलना संभव नहीं है ,तो फिर वे नीतीश कुमार से अलग हो गए और नई पार्टी लोक समता जनता दल बना लिया और एनडीए के साथ जा मिले। इस भरोसा के साथ कि एनडीए में जाने के बाद काराकाट लोकसभा की सीट मिलना तय रहेगा। उपेंद्र कुशवाहा अपने आप को चाहे जितना बड़ा नेता मान लें, परंतु सच यही है कि बिहार में सबसे अधिक उनकी पार्टी का जनाधार मजबूत है, तो वह सिर्फ काराकाट लोकसभा क्षेत्र में ही है। सच यह भी है कि उनके पास लोकसभा का चुनाव लड़ने लायक पांच नेता तक नहीं हैं। फिर भी मुख्यमंत्री बनने का ही ख्वाब पाले रहते हैं। अब जब नीतीश कुमार एनडीए की तरफ चले गए, तो उपेंद्र कुशवाहा के सामने बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई। वह यह कि जिस डर से काराकाट लोकसभा की सीट गारंटी करने के लिए एनडीए में गए थे, नीतीश कुमार के चले जाने के बाद अब फिर उस सीट की कोई गारंटी रही नहीं। ऐसी स्थिति में फिर से उनके अंदर कुलबुलाहट तय थी। अब तो उनके सामने ’न घर के न घाट के’ वाली स्थिति पैदा हो गई। जबकि राजनीति तो करनी ही है।दूसरे यह कि जब भाजपा अकेली थी, तो कुछ सीटें लोक जनशक्ति पार्टी को देकर बाकी सीटों पर स्वयं चुनाव लड़ना चाहती थी। इधर जीतन राम मांझी एवं उपेंद्र कुशवाहा को एक दो सीटें दे देना आसानी से संभव लग रहा था। परंतु जब नीतीश कुमार एनडीए में चले गए तब तो वे कम से कम पहले से जितनी सींटों पर उनके सांसद हैं, उतनी सींटे तो उन्हें चाहिए ही। ऐसी स्थिति में इन नेताओं के सामने संकट खड़े हैं कि अब तो उतनी सींटे मिल नहीं सकेंगी। एक दो सीटें भी मिल जाए, तो अधिक ही है। इन नेताओं की छटपटाहट का कारण यही है।

भाजपा ने चिराग पासवान को नहीं दिया तवज्जो
इसी तरह से लोक जनशक्ति पार्टी के सामने भी मुसीबत खड़ी हो गई है कि जो चिराग पासवान मजबूती के साथ भाजपा के साथ रहे। बिहार में अपनी पार्टी को नुकसान पहुंचा कर भी भाजपा को बढ़त दिलवाई। चिराग पासवान अपने आप को मोदी का हनुमान बताते थकते नहीं थे। उन्हें लगता था कि भाजपा ही हमारा भाग्य विधाता है। जबकि भाजपा ने पिछले लोकसभा सभा चुनाव में छह सीटें देने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकी। पिता रामविलास पासवान के निधन के बाद भाई पशुपति पारस को मंत्री बना दी, पर चिराग पासवान को तवज्जो नहीं दिया भाजपा सिर्फ चिराग पासवान का इस्तेमाल करती रही है। वैसे पहले से ही चिराग पासवान नीतीश कुमार के घोर विरोधी रहे हैं। अब नीतीश कुमार को एनडीए में शामिल हो जाने के बाद चिराग पासवान की छटपटाहट बढ़ गई है। क्योंकि पहले भाजपा ने उन्हें छह सीटें दी थी, जब रामविलास थे। छह सीटों पर जीत भी हुई थी। परंतु छह में पांच सांसद अलग हो गए थे। जिनमें उनके चाचा पशुपति पारस भी थे। जबकि वह फूट भी अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा की ही चाल थी। पशुपति पारस का जनाधार नहीं है, पर उनके पास सांसद हैं और चिराग के पास जनाधार है, तो उनके पास सांसद नहीं हैं। चिराग को लग रहा है कि मुझे इस बार भी उतनी ही सींटे दी जाए। जो किसी भी कीमत पर संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में चिराग पासवान भी एनडीए से अलग होकर अपनी औकात दिखा देना चाहते होंगे। संभव है कि महागठबंधन की ओर से उतनी सींटे देने का आश्वासन मिला होगा। भले ही उनके पास विधायकों की संख्या नगण्य है, पर आने वाली राजनीति के लिए उन्हें यह तय करना होगा। जबकि चिराग पासवान का पूरा चरित्र भाजपा की नीतियों से मिलता जुलता है। पर राजनीति में तो कोई नीति होती नहीं है ।अब ऐसी स्थिति में चिराग पासवान क्या निर्णय लेते हैं, यह तो आने वाला दिन ही बताएगा।
मुकेश सहनी सिद्धांतविहीन नेता
मुकेश सहनी पर अभी बातें करना मैं व्यर्थ इसलिए समझ रहा हूं कि अभी तो बिहार की राजनीति किस करवट मोड़ लेगी, उसका वे इंतजार कर रहे हैं। ऐसे मुकेश सहनी भी सिद्धांतविहीन ही नेता हैं। वे भी सिर्फ सत्ता सुख प्राप्त करने की ही राजनीति कर रहे हैं। वैसे उनका झुकाव भी एनडीए की तरफ ही रहता है, परंतु वे इंतजार इसका कर रहे हैं कि कौन- सा गठबंधन हमें अधिक तरजीह देगा और अधिक सींटे देगा। बिहार की वर्त्तमान राजनीतिक परिस्थितियां उपर्युक्त नेताओं से बनने बिगड़ने नहीं जा रही है, परंतु जो इनलोगों का राजनीतिक चरित्र है, उन्हें हमने स्पष्ट करना चाहा है। वर्त्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में यह कहा जा रहा है कि जदयू विधायकों में टूट होने वाली है। अगर यह सच है, तो बिहार में नीतीश कुमार को एक बार फिर झटका लगेगा और महागठबंधन की सरकार बन जाएगी। नहीं तो फिर नीतीश जी के पास विधानसभा भंग करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। डाल डाल, और पात पात वाली राजनीति बिहार को कहां ले जाएगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

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