Kashiram Parinirvan Divas: बसपा को जरूरत है कांशीराम के भागीदारी दर्शन पर होड़ लगाने की
Kashiram Parinirvan Divas: ऐसे महापुरुष का परिनिर्वाण दिवस है जो अगर भारत भूमि पर जन्म नहीं लिए होते तो हज़ारों साल की दास जातियों में शासक बनने की महत्वाकांक्षा पैदा नहीं होती।
लेखक: एचएल दुसाध
न्यूज इंप्रेशन
Delhi: आज एक ऐसे महापुरुष का परिनिर्वाण दिवस है जो अगर भारत भूमि पर जन्म नहीं लिए होते तो हज़ारों साल की दास जातियों में शासक बनने की महत्वाकांक्षा पैदा नहीं होती; लाखो पढ़े-लिखे नौकरीशुदा दलितों में ‘पे बैक टू दी सोसाइटी ‘की भावना नहीं पनपती; दलित साहित्य में फुले-पेरियार-आंबेडकर की क्रांतिकारी चेतना का प्रतिबिम्बन नहीं होता; पहली लोकसभा के मुकाबले हाल के लोकसभा चुनावों में पिछड़ी जाति सांसदों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि तथा सवर्ण सांसदों की संख्या में शोचनीय गिरावट नहीं परिलक्षित होती: तब किसी दलित पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में देखना सपना होता; अधिकांश पार्टियों के राष्ट्रीय अध्यक्ष ब्राह्मण ही नज़र आते तथा विभिन्न सवर्णवादी पार्टियों में दलित-पिछडो की आज जैसी पूछ नहीं होती; लालू-मुलायम सहित अन्यान्य शूद्रातिशूद्र नेताओं की राजनीतिक हैसियत स्थापित नहीं होती; तब जातीय चेतना के राजनीतिकरण का मुकाबला धार्मिक –चेतना से करने के लिए संघ परिवार हिंदुत्व,हिन्दुइज्म या हिन्दू धर्म को कलंकित करने के लिए मजबूर नहीं हुआ होता ! जी, हाँ आज 15 मार्च, 1934 को अपने जन्म से पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गाँव को धन्य करने वाले उस कांशीराम का परिनिर्वाण दिवस है, जिनके जीवन में आज से प्रायः सात दशक पूर्व पुणे के इआरडीएल में सुख- शांति से नौकरी करने के दौरान एक स्वाभिमानी दलित कर्मचारी के उत्पीडन की घटना से नाटकीय भावांतरण हुआ. जिस तरह राजसिक सुख-ऐश्वर्य के अभ्यस्त गौतम बुद्ध ने एक नाटकीय यात्रा के मध्य दुःख-दारिद्र का साक्षात् कर, उसके दूरीकरण के उपायों की खोज के लिए गृह-त्याग किया, कुछ वैसा ही साहेब कांशीराम ने किया. आम दलितों की तुलना में सुख- स्वाछंद का जीवन गुजारने वाले साहेब जब ‘दूल्हे का सेहरा पहनने’ के सपनो में विभोर थे, तभी दलित कर्मचारी दीनाभाना के जीवन में वह घटना घटी जिसने साहेब को चिरकाल के लिए सांसारिक सुखों से दूर रहने की प्रतिज्ञा लेने के लिए विवश कर दिया. फिर तो दीनाभानाओं के जीवन में बदलाव लाने के लिए उन्होंने देश के कोने-कोने तक फुले, शाहू जी, नारायण गुरु, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर,पेरियार इत्यादि के समाज-परिवर्तनकामी विचारों तथा खुद की अनोखी परिकल्पना को पहुचाने का जो अक्लांत अभियान छेड़ा, उससे जमाने ने उन्हें ‘सामाजिक परिवर्तन के अप्रतिम नायक’ के रूप में वरण किया.
कांशीराम ने अघोषित रूप से मार्क्स के वर्ग संघर्ष से प्रेरणा लेकर सामाजिक परिवर्तन के लिए सदियों के जन्मजात शोषकों के खिलाफ संघर्ष चलाने की सुचिन्तित परिकल्पना के तहत ही शोषितों के सक्षम लोगों को ‘पे बैक टु द सोसाइटी’ के मंत्र से दीक्षित किया. इस हेतू ही उन्होंने ‘वोट हमारा,राज तुम्हारा नहीं चलेगा’, ‘तिलक तराजू और तलवार..’ तथा ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ का नारा उछाला : सर्वोपरि इसी मकसद से उन्हों ने ‘जाति चेतना के राजनीतिकरण’ का अभियान चलाया।‘ इसके लिए उन्हों ने अन्य महापुरुषों की भांति जाति का उन्मूलन जैसे असंभव से काम के बजाय जातियों के इस्तेमाल की रणनीति पर काम किया। इसके लिए उन्होंने विभिन्न जातीय समूहों के मध्य हजारों साल से मनुवादी व्यवस्था में सवर्णों से मिले शोषण-वंचना को याद दिला-दिला कर वर्गीय चेतना से लैस किया। वंचितों में आई वर्गीय चेतना को मुख्यधारा के राजनीतिक विश्लेषकों ने जाति चेतना का नाम दिया। कांशीराम के सौजन्य से सबसे पहले इस चेतना से लैस दलित समुदाय की अग्रसर जातियाँ हुईं : परवर्तीकाल में आदिवासी, पिछड़ों और इनसे धर्मांतरित तबकों में यह प्रसारित हो गयी। मनुवादी व्यवस्था मे मिली वंचना का सद्व्यवहार कर कांशीराम ने बहुजनों की जातिय चेतना का जो राजनीतिकरण किया, उसका असर चमत्कारिक रहा। जाति–चेतना के राजनीतिकरण के फलस्वरूप हजारों साल का जन्मजात शोषक वर्ग राजनीतिक रूप से एक लाचार समूह मे तब्दील होने के लिए विवश हुआ।ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कांशीराम के प्रयासों से दलित, आदिवासी ,पिछड़े और इनसे धर्मांतरित समुदाय हिन्दू धर्म द्वारा खड़ी की गई घृणा और शत्रुता की दीवार लांघकर भ्रातृभाव लिए एक दूसरे के निकट आने लगे थे!
भ्रातृत्व के प्रसार और जाति चेतना के राजनीतिकरण के फलस्वरूप कांशीराम की बसपा ने 2007 में पूर्ण बहुमत से यूपी की सत्ता पर काबिज हो कर राजनीति की दुनिया मे एक विस्मय सृष्टि कर दिया। उन्होंने वंचितों मे शासक बनने की महत्वाकांक्षा उभारने के साथ जिस तरह लोगों को ‘पे बैक टू द सोसाइटी’ के मंत्र से दीक्षित किया , उससे यहाँ सामाजिक परिवर्तनकामी लोगों की विशाल फौज खड़ी हो गई । यही नहीं देश के राजनीति को दिशा देने वाले यूपी मे बहुजनवाद के प्रसार के फलस्वरूप जिस तरह बसपा और सपा का प्रभुत्व विस्तार हुआ, उससे दिल्ली की सत्ता पर बहुजनों के काबिज होने के आसार दिखने लगे। यही नहीं उन्होंने अपने नारे ‘ जिसकी-जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ के जरिए वंचितों में हर क्षेत्र मे संख्यानुपात मे हिस्सेदारी की जो महत्वाकांक्षा भरी, उससे देश मे बड़े बदलाव की जामीन तैयार होने लगी। ऐसा लगा दलित – पिछड़े और इनसे धर्मांतरित तबके संख्यानुपात में अपनी हिस्सेदारी हासिल करने के लिए सत्ता हाथ में लेने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। किन्तु उनके असमय निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी अपनी निजी कमजोरियों के कारण उन के प्रयोग को आगे बढ़ाने मे बुरी तरह विफल रहे, जिसके फलस्वरूप बड़ी तेजी से भाजपा यूपी से लेकर केंद्र तक अप्रतिरोध्य बन गई। सबसे दुखद तो यह रहा कि कांशीराम के महा-क्रांतिकारी दर्शन – जिसकी जितनी संख्या भारी- उसकी उतनी भागीदारी – को पलटकर ‘जिसकी जितनी तैयारी- उतनी उसकी हिस्सेदारी’ कर दिया गया। बहरहाल आज भले ही कांशीराम की खड़ी की गई पार्टी कारुणिक अवस्था में पहुंच गई हो; भले ही उत्तर प्रदेश मे हिंदुत्ववादी भाजपा की अप्रतिरोध्य सत्ता कायम हो गई है , किन्तु कांशीराम ने जो लाखों समाज परिवर्तनकामी योद्धा तैयार किए , वे अभी तक उन के सामाजिक बदलाव के विचार को अपने मन से नहीं निकाले हैं। इसलिए वे ऐसे किसी नेतृत्व की चाह मे टकटकी लगाए रहते है, जो बहुजनों को शासक बनाने के साथ जिसकी जितनी संख्या भारी- उतनी उसकी भागीदारी को जमीन पर उतार सके। कांशीराम के भागीदारी दर्शन को ज़मीन पर उतारने लायक जिस नायक की तलाश उनके अनुसरणकारियों को थी, वह तलाश जब राहुल गांधी में पूरी होती नजर आई तो वे उनके पीछे चल पड़े.राहुल गांधी ने फरवरी 2023 में रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85 वें अधिवेशन से कांशीराम के भागीदारी दर्शन – जिसकी जितनी संख्या भारी , उसकी उतनी भागीदारी’ तब ग्रहण किया , जब भारत में सापेक्षिक वंचना के उभार लायक अभूतपूर्व हालात बन गए और बहुजनवादी नेता मूक दर्शक बने रहे! लेकिन ऐसा करते हुए उन्होंने एक बड़ा बदलाव किया. अबतक कांशीराम के जिस भागीदारी दर्शन का इस्तेमाल सिर्फ सत्ता में भागीदारी तक हो रहा था, उसे उन्होंने शक्ति के समस्त स्रोतों तक प्रसारित कर दिया !
क्रांति का अध्ययन करने वाले तमाम समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ जब समाज में सापेक्षिक वंचना का भाव पनपने लगता है, तब आन्दोलन की चिंगारी फूट पड़ती है. समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ ,’दूसरे लोगों और समूहों के संदर्भ में जब कोई समूह या व्यक्ति किसी वस्तु से वंचित हो जाता है तो वह सापेक्षिक वंचना है दूसरे शब्दों में जब दूसरे वंचित नहीं हैं तब हम क्यों रहें !’ सापेक्षिक वंचना का यही अहसास बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिकी कालों में पनपा, जिसके फलस्वरूप वहां 1960 के दशक में दंगों का सैलाब पैदा हुआ, जो परवर्तीकाल में वहां डाइवर्सिटी लागू होने का सबब बना. दक्षिण अफ्रीका में सापेक्षिक वंचना का अहसास ही वहां के मूलनिवासियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया, जिसमे भस्म हो गयी वहां गोरों की तानाशाही सत्ता.2023 में जब राहुल गांधी जितनी आबादी- उतना हक़ के जरिये साहेब के भागीदर्शन का मन बनाये, उसके पहले मोदी की सवर्णपरस्त नीतियों से भारत के जन्मजात सुविधाभोगी का शक्ति के समस्त स्रोतों- आर्थिक,राजनीति,शैक्षिक, धार्मिक- पर औसतन 80-90 % कब्ज़ा हो चुका था. पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े थे , उनमें 80 -90 प्रतिशत फ्लैट्स इन्ही के थे; मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दुकानें इन्हीं की थीं; चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता , उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाडियां इन्हीं की दिखती थीं; देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल्स प्राय इन्ही के थे; फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्ही का था . संसद विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्ही का था; मंत्रिमंडलों मंत्रीमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से थे!
मोदी की नीतियों से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हजारों साल के विशेषाधिकारयुक्त तबकों के शक्ति के तमाम स्रोतों पर ही 80-90 प्रतिशत कब्जे ने बहुजनों में सापेक्षिक वंचना के अहसास को धीरे-धीरे जिस तरह विस्फोटक बिन्दु के करीब पहुंचा दिया था ,उससे बैलेट बॉक्स में क्रांति घटित होने लायक पर्याप्त सामान जमा हो थे. इस बात को दृष्टिगत रखकर ही राहुल गांधी ने रायपुर अधिवेशन से कांग्रेस के पुनरुद्धार के कांशीराम के भागीदारी दर्शन को आगे बढ़ाना शुरू किया ,जिसका चरम प्रतिबिम्बन 5 अप्रैल, 2024 को लोकसभा चुनाव के लिए जारी कांग्रेस के न्याय-पत्र नामक घोषणा-पत्र में हुआ. तब कांग्रेस के जिस घोषणापत्र को राजनीतिक विश्लेषकों ने क्रांतिकारी दस्तावेज करार दिया, उसमें कांशीराम के भागीदारी दर्शन के भरपूर तत्व रहे. राहुल गांधी कांशीराम के भागीदारी दर्शन को आत्मसात करते हुए पिछले कई महीनों से हर क्षेत्र में ‘जितनी आबादी- उतना हक’ का नारा बुलंद करते रहे और बाद में अपने घोषणापत्र में आरक्षण का 50% दायरा खत्म करने, महिलाओं को सरकारी नौकारियों में 50%आरक्षण देने, न्यायपालिका में बहुजनों को आरक्षण देने, अमेरिका की भांति डायवर्सिटी कमीशन गठित करने जैसे कई वादे किये।साथ में 30 लाख सरकारी नौकरी देने ,पहली नौकरी पक्की करने,गरीब परिवारों की एक महिला को साल में एक लाख देने सहित ऐसे अन्य कई बातें उठाएं,जिनके लागू होने पर दलित,आदिवासी,पिछड़ों,महिलाओं सहित 90 प्रतिशत आबादी के जीवन में आर्थिक रूप से बड़ा बदलाव आता। आर्थिक बदलाव की उम्मीद में ही यूपी में जनता की भीड़ राम मंदिर ,हिंदू – मुस्लिम जैसे भावनात्मक मुद्दों को लात मारकर जुनून के साथ बैरिकेड तोड़ कर राहुल- अखिलेश के करीब पहुंचने का प्रयास करने लगी। आर्थिक बदलाव के आकर्षण ने ही यूपी के मतदाताओं को भाजपा को धूल चटाने के लिए प्रेरित किया! अगर केचुआ के जरिये सरकार ने वोट डकैती का उपक्रम नहीं चलाया होता : इंडिया गठबंधन आज सत्ता में होता ! बहरहाल आज कांग्रेस कांशीराम के आर्थिक दर्शन को अंगीकार कर काफी हद तक अपना पुनरुद्धार कर चुकी है और राहुल गांधी पॉवर स्ट्रक्चर में जितनी आबादी- उतना हक़ लागू करने के वादे के जरिये लाखोँ – कारोड़ों बहुजनों को आकर्षित कर रहे हैं.
इसे इतिहास का एक विराट परिहास कहा जायेगा कि जिस कांग्रेस की पहचान एक सवर्णवादी दल की थी , उसने कांशीराम के भागीदारी दर्शन को आत्मसात कर अपना चेहरा एक बहुजनवादी दल के रूप में बदलते हुए राजनीतिक रूप से अपना पुनरुद्धार कर लिया है किन्तु, उनके सपनों की पार्टी बसपा उनके भागीदारी से दूरी बनाकर अपने वजूद पर प्रश्न चिन्ह लगा ली है. अगर बसपा के वजूद पर सवाल खड़े हो रहे हैं तो उसके लिए जिम्मेवार हैं पार्टी सुप्रीमो : मायावती! दलित बुद्धिजीवी दिन ब दिन बसपा को रसातल की ओर जाते देख पिछले डेढ़ दशक से लेखन के जरिये सुझाते रहे कि बहुजनों की आर्थिक मुक्ति को प्रमुख मुद्दा बनाएं तथा कांशीराम के भागीदारी दर्शन को सत्ता में भागीदारी से आगे बढाते हुए सरकारी नौकरियों से आगे बढ़कर निजी क्षेत्र की नौकरियों ,सप्लाई, डीलरशिप,ठेकों, फिल्म- मीडिया, पार्किंग,परिवहन, पुजारियों की नियुक्ति में एससी, एसटी,ओबीसी,धार्मिक अल्पसंख्यों और अल्पसंख्यकों के संख्यानुपात में हिस्सेदारी देने का मुद्दा उठाएं। ऐसा होने पर दलित ही नहीं बाकी वंचित समुदाय भी आर्थिक रूपांतरण की चाह में बसपा से जुड़ेगा और बीएसपी देश पर राज करेगी! लेकिन उनको कांशीराम के भागीदारी ट्रैक पर लाने का बुद्धिजीवियों का प्रयास पूरी तरह व्यर्थ रहा: वह बाबा साहेब का नाम जपने से आगे बढ़कर बहुजन वोटरों को ऐसा कोई सपना देने की कोशिश नहीं कीं ,जिसे पूरा होते देखने के लिए लोग बसपा को वोट करते! बहरहाल बसपा के रसातल में पहुंचने बावजूद उस का पुनरुद्धार बहुत आसान है, क्योंकि उसे विरासत में कांशीराम का भागीदारी दर्शन मिला हुआ है,जिस पर पेटेंट राइट उसका है।मायावती यदि आज से घोषणा कर दें कि सत्ता में आने पर वह शक्ति के समस्त स्रोतों में जिसकी जितनी संख्या भारी… लागू करेंगी: बसपा का रातों रात पुनरुद्धार हो जायेगा !
(लेखक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस(ओबीसी विभाग)के एडवाइजरी कमेटी के सदस्य हैं)