दुनिया में सबसे खतरनाक सोच : संघ की सामाजिक और आर्थिक सोच!

दुनिया में सबसे खतरनाक सोच : संघ की सामाजिक और आर्थिक सोच!

एच . एल. दुसाध

 

पूरे हुए संघ के सौ साल

 

आज का दशहरा खास है, क्योंकि आज उस आरएसएस के स्थापना के सौ साल पूरे हो रहे हैं, जिसने अपने राजनीतिक संगठन भाजपा के जोर से पूरे भारत को अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया है. वैसे तो 27 सितम्बर, 2025 को ही इसके सौ साल पूरे हो गए थे, क्योंकि 1925 के दशहरा के दिन जब डॉ. हेडगेवार ने इसकी स्थापना की थी , उस दिन अंग्रेजी तिथि के अनुसार तारीख 27 सितम्बर थी. पर, चूँकि विजयदशमी के दिन इस हिन्दुत्ववादी संगठन का स्थापना दिवस मनाया जाता है, इसलिए आज 2 अक्तूबर को ही ऐतिहासिक अंदाज में इसके सौ साल पूरे होने का उत्सव मनाया जायेगा. आज के दिन देश की प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संघ के जयगान से पटी मिलेगी , पर ,संघ के कानफाडू जयघोष के मध्य विरोध के स्वर भी जरुर उभरेंगे, भले ही मद्धिम क्यों न हों.आज ढेरों लोग फिर संघ के प्रभाव का शमन करने का उपाय बताने सामने आयेंगे. ऐसा इसलिए कि 1925 की विजयादशमी के दिन आधुनिक भारत के सर्वाधिक दूरदर्शी ब्राह्मण डॉ.केशवराव बलिराम हेडगेवार द्बारा स्थापित अपने किस्म का विश्व का विरल संगठन: आरएसएस आज भारतीय मजदूर संघ,सेवा भारती,राष्ट्रीय सेविका समिति, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद,विश्व हिन्दू परिषद,स्वदेशी जागरण मंच,सरस्वती शिशु मंदिर,विद्या भारती,वनवासी कल्याण आश्रम,मुस्लिम राष्ट्रीय मंच,बजरंग दल,अनुसूचित जाति आरक्षण बचाओ परिषद ,लघु उद्योग भारती, भारतीय विचार केंद्र, विश्व संवाद केंद्र, राष्ट्रीय सिख संगठन, विवेकानंद केंद्र और भारतीय जनता पार्टी सहित दो दर्जन से अधिक आनुषांगिक संगठनों के जोर से दुनिया का सबसे बड़ा संगठन बन गया है, जिसके साथ 28 हजार,500 विद्यामंदिर,2 लाख 80 हजार आचार्य, 48 लाख,59 हजार छात्र, 83 लाख,18 हजार 348 मजदूर, 595 प्रकाशन सदस्य, 1 लाख पूर्व सैनिक, 6 लाख,85 हजार वीएचपी-बजरंग दल के सदस्य जुड़े हुए है. यही नहीं इसके साथ बेहद समर्पित व इमानदार प्रायः 4 हजार से अधिक पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता हैं,जो देश भर में फैले लगभग 60 हजार से अधिक शाखाओं में कार्यरत लगभग 56 लाख स्वयंसेवकों के साथ मिलकर इसके राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी को बल प्रदान करते हैं. दुनिया के सबसे ताकतवर इसी संघ की स्थापना के प्रायः 75 साल बाद उसके राजनीतिक प्रकोष्ठ भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार में महान स्वयंसेवी अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने . आज उसी संघ से निकले नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा अप्रतिरोध्य बनकर उभरी है. उनके ही नेतृत्व आज संघ अपना चरम लक्ष्य : हिन्दू राष्ट्र का सपना पूरा करने की दिशा में सधे कदमों से आगे बढ़ है, जिससे बहुसंख्य लोग खौफजदा हैं . क्योंकि हिन्दू राष्ट्र के जरिए ही संघ अपने सामाजिक और आर्थिक सोच को अमलीजामा पहनाना चाहता है, जिसे लेकर हिन्दू धर्म का अर्थशास्त्र जानने वाले लोग भयाक्रांत हैं!

 

वर्ण – व्यवस्थाधारित सामाजिक – आर्थिक व्यवस्था के हिमायती : हिंदुत्ववादी मनीषी

 

अधिकांश विद्वानों के मुताबिक़ हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा, जिसे हिंदुत्व के रूप में भी जाना , भारत में एक राजनीतिक विचारधारा है जो हिन्दू धर्म-संस्कृति और पहचान पर आधारित एक राष्ट्र राज्य की स्थापना की वकालत करती है. इसके पीछे की आर्थिक सामाजिक सोच में स्वदेशी और आत्मनिर्भरता पर जोर , पारम्परिक मूल्यों का संरक्षण , और एक मजबूत , एकीकृत हिन्दू समुदाय का निर्माण करना है. कुल मिलाकर हिन्दू राष्ट्र के पीछे संघ की परिकल्पना अपनी सामाजिक- आर्थिक सोच को जमीन पर उतारने के लिए हजारों साल पुरानी वर्ण – व्यवस्था को लागू करना रहा है. वर्ण – व्यवस्था के ज़रिये संघ हिन्दू राष्ट्र में अपनी सामाजिक- आर्थिक सोच को जमीन पर उतारना चाहता है, इसका संकेत हिंदुत्व के महानायक सौ साल से अधिक समय से दे रहे हैं. आज से शताधिक वर्ष पूर्व हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को परिभाषित करने वाले विनायक दामोदर सावरकर ने इस बात पर जोर दिया था कि राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था पश्चिम से उधार ली गई अवधारणाओं के बजाय प्राचीन देशी विचारों पर आधारित होनी चाहिए . जाहिर है उन्होंने वर्ण- व्यवस्था आधारित प्राचीन हिन्दू व्यवस्था द्वारा राजनीतिक- आर्थिक व्यवस्था परिचालित करने का निर्देश दिया था . हिन्दू राष्ट्र के अग्रणी विचारक प्रो. बिनॉय कुमार सरकार ने 1920 के आसपास अपनी पुस्तक ‘ बिल्डिंग ऑफ़ हिन्दू राष्ट्र ‘ में हिन्दू राज्य की संरचना और हिन्दू राज्य की सामाजिक – आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था के लिए जो दिशा निर्देश प्रस्तुत किया था वह कौटिल्य , मनु और शुक्र जैसे विचारकों और महाभारत पर आधारित था. जाहिर है सरकार महोदय ने भी मनुवादी सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था की कामना की थी . प्राचीन वर्ण – व्यवस्था द्वारा ही भविष्य के भारत की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था चले , इसके प्रबल पैरोकार ‘ बंच ऑफ़ थॉट्स ‘ के लेखक और आरएसएस के दूसरे प्रमुख एमएस गोलवलकर भी रहे. जिनकी आर्थिक सोच पर भाजपाइयों के गर्व का अंत नहीं है, ‘एकात्म मानववाद’ के रूप में भारतीय जनसंघ और आज की भाजपा के राजनीतिक दर्शन को सामने लाने वाले उस पंडित दींन दयाल उपाध्याय ने सामाजिक- आर्थिक मुक्ति के साधन के रूप में साम्यवाद और पूंजीवाद को अस्वीकार करते कहा था कि हिन्दुओं की आर्थिक मुक्ति, भारतीय संस्कृति और मूल्यों पर आधारित एक न्यायसंगत और आत्मनिर्भर आर्थिक प्रणाली के माध्यम से ही संभव हो सकती है! स्पष्ट है कि पंडित उपाध्याय भी वर्ण- व्यवस्थाधारित सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था के हिमायती थे. हिंदुत्व के प्रातः स्मरणीय इन मनीषियों की सोच का प्रतिबिम्बन ही संघ के हिन्दू राष्ट्र की सामाजिक – आर्थिक सोच में हुआ है.

सामने आ गया है ; हिन्दू राष्ट्र के संविधान का स्वरूप

बहरहाल संघ अपने राजनीतिक संगठन भाजपा के जरिये जिस हिन्दू राष्ट्र के सामाजिक- आर्थिक विचार को जमीन पर उतारना चाहता है , उसके संविधान का प्रारूप 2025 के महाकुम्भ में सामने आ चुका है. इसे 12 महीने 12 दिन में 25 विद्वानों ने मिलकर तैयार किया है, जिसके पीछे चारों पीठ के शंकराचचार्यों की सहमति है.501 पन्नों के इस संविधान की निर्माण समिति में उत्तर भारत के 14 और दक्षिण भारत के 11 विद्वान शामिल किए गए हैं. संविधान निर्माण समिति ने धर्मशास्त्रों के साथ ही रामराज्य, श्रीकृष्ण के राज्य, मनुस्मृति और चाणक्य के अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के बाद हिंदू राष्ट्र के संविधान को तैयार किया है. संविधान निर्माण समिति में काशी हिंदू विश्वविद्यालय, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के विद्वान भी शामिल रहे. इसके संरक्षक शांभवी पीठाधीश्वर के अनुसार 2035 तक हिंदू राष्ट्र की घोषणा का लक्ष्य रखा गया है. हिंदू राष्ट्र के पहले संविधान के आधार पर देश गणराज्य होगा. चुनाव के आधार पर ही राष्ट्र के प्रमुख का चयन किया जाएगा. संविधान में यहां पर सभी को रहने का अधिकार रहेगा, लेकिन राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के खिलाफ कार्य करने वालों को सख्त दंड का विधान भी बनाया गया है. संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष डॉ. कामेश्वर उपाध्याय के अनुसार हिंदू राष्ट्र में हर नागरिक के लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य होगी. हिंदू राष्ट्र में वर्तमान कर प्रणाली नहीं रहेगी और कृषि को पूर्णत: कर मुक्त कर दिया जाएगा। कर चोरी पर कठोर दंड का विधान होगा. संविधान के अनुसार एकसदनात्मक व्यवस्थापिका होगी और सदन का नाम संसद नहीं हिंदू धर्म संसद होगा. हर संसदीय क्षेत्र में एक धर्म सांसद निर्वाचित होगा। पूरे देश में 543 धर्म सांसद निर्वाचित होंगे. धर्मसांसद के लिए न्यूनतम आयु सीमा 25 और मतदान करने के लिए न्यूनतम आयु सीमा 16 वर्ष होगी.चुनाव लड़ने और लड़ाने का अधिकार केवल सनातन धर्म के अनुयायियों , भारतीय उप महाद्वीप के पंथ जैन, बौद्ध व सिख मत के अनुयायियों को होगा. विधर्मियों को मताधिकार से वंचित किया जायेगा. धर्मसांसद बनने के लिए उम्मीदवार को वैदिक गुरुकुल का छात्र होना अनिवार्य होगा.

अध्यक्ष का चयन गुरुकुलों से होगा. धर्मशास्त्र और राजशास्त्र में पारंगत व्यक्ति जिसने राज्य संचालन का पांच वर्ष का व्यवहारिक अनुभव लिया हो वहीं राष्ट्रध्यक्ष पद के योग्य होगा. हिंदू राष्ट्र संविधान के अनुसार युद्ध के समय राजा को अपनी सेना का नेतृत्व करना होगा. राष्ट्राध्यक्ष विषय विशेषज्ञ, शास्त्र ज्ञाता, शूरवीर, शस्त्र चलाने में निपुण और प्रशिक्षित व्यक्तियों को ही मंत्री पद पर नियुक्त करना होगा. हिंदू राष्ट्र में हिंदू न्याय व्यवस्था लागू की जाएगी.यह संसार की सबसे प्राचीन न्याय व्यवस्था है.राष्ट्राध्यक्ष के नियंत्रण में मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश होंगे.कोलेजियम जैसी कोई व्यवस्था नहीं रहेगी. भारतीय गुरुकुलों से निकलने वाले सर्वोच्च विधिवेत्ता ही न्यायाधीश के पद को सुशोभित करेंगे. सभी को त्वरित न्याय सुनिश्चित किया जाएगा. झूठे आरोप लगाने वालों पर भी दंड का विधान होगा. दंड सुधारात्मक होंगे. हिंदू राष्ट्र में प्राचीन वैदिक गुरुकुल प्रणाली को लागू किया जाएगा. अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को गुरुकुलों में परिवर्तित किया जाएगा और शासकीय धन से संचालित सभी मदरसे बंद किए जाएंगे. मनु और याज्ञवल्क की स्मृतियों का व्यावहारिक उपयोग किया जाएगा. पिता की मृत्यु के उपरांत श्राद्ध करने वाला उत्तराधिकारी होगा. एक पति, एक पत्नी प्रथा चलेगी.हिंदू विधि का अंतिम व सर्वोच्च उद्देश्य वर्णाश्रम व्यवस्था की पुन: स्थापना है. कर्म आधारित वर्ण – व्यवस्था को विधिक रूप दिया जाएगा!

 

कर्म आधारित वर्ण- व्यवस्था की विशेषताएं

 

वैसे तो वर्षों से आम से लेकर खास लोग यह घोषणा करते रहे हैं कि संघ हिन्दू राष्ट्र में वर्ण – व्यवस्था द्वारा अपनी सामाजिक- आर्थिक सोच को जमीन पर उतारना चाहता है पर, महाकुम्भ में हिन्दू राष्ट्र के संविधान का प्रारूप सामने आने के बाद किसी को भी संदेश नहीं रह जाना चाहिए कि वह वह कर्म आधारित वर्ण- व्यवस्था लागू करना चाहता है. आखिर क्यों वह वर्ण- व्यवस्था लागू करना चाहता है, इसे जानने के लिए कर्म आधारित वर्ण- व्यवस्था की विशेषता जान लेना जरुरी है. दैवीय- सृष्ट वर्ण- व्यवस्था उस हिन्दू धर्म का प्राणाधार है, जिसका संघ अघोषित रूप से ठेकेदार बने बैठा है. जिसे हिन्दू धर्म धर्म कहा जाता उसका अनुपालन कर्म आधारित वर्ण – व्यवस्था के जरिये होता. जिस वर्ण- व्यवस्था को संघ हिन्दू राष्ट्र में लागू करना चाहता है, वह वर्ण- व्यवस्था मूलतः शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक , शैक्षिक और धार्मिक – के बंटवारे की व्यवस्था रही. शक्ति के स्रोतों का बंटवारा चार वर्णों- ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्रातिशूद्रों के लिए निर्दिष्ट पेशे/ कर्मों के जरिये किया गया. विभिन्न वर्णों के लिए निदिष्ट कर्म ही उनके धर्म रहे. वर्ण – व्यवस्था में ब्राह्मण का धर्म(कर्म ) अध्ययन- अध्यापन , राज्य संचालन में मंत्रणा- दान और पौरोहित्य रहा. क्षत्रिय का धर्म भूस्वामित्व, सैन्य- वृत्ति एवं राज्य –संचालन रहा , जबकि वैश्य का कर्म(धर्म) पशुपालन एवं व्यवसाय- वाणिज्य रहा. शुद्रातिशूद्रों का धर्म(कर्म) रहा तीन उच्चतर वर्णों(ब्राह्मण- क्षत्रिय और वैश्यों) की निष्काम सेवा. वर्ण- धर्म में पेशों की विचलनशीलता निषिद्ध रही , क्योंकि इससे कर्म- संकरता की सृष्टि होती और कर्म-संकरता धर्मशास्त्रों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध रही. कर्म-संकरता की सृष्टि होने पर इहलोक में राजदंड तो परलोक में नरक का सामना करना पड़ता. धर्मशास्त्रों द्वारा पेशे/ कर्मों के विचलनशीलता की निषेधाज्ञा के फलस्वरूप वर्ण- व्यवस्था ने एक आरक्षण –व्यवस्था: हिन्दू आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया , जिसमें भिन्न- भिन्न वर्णों के निर्दिष्ट पेशे/कर्म , उनके लिए अपरिवर्तित रूप से चिरकाल के लिए आरक्षित होकर रह गए. इस क्रम में हिन्दू आरक्षण में ब्राह्मणों के लिए पौरोहित्य व बौद्धिक पेशे तो क्षत्रियों के लिए भूस्वामित्व , राज्य संचालन और सैन्य-कार्य तो वैश्यों के लिए पशु-पालन व व्यवसाय- वाणिज्य के कार्य चिरकाल के लिए आरक्षित होकर रह गये.हिन्दू आरक्षण में शुद्रातिशूद्रों के हिस्से में शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक , धार्मिक – एक कतरा भी नहीं आया:वे चिरकाल के लिए दुनिया के सबसे अशक्त मानव समुदायों में तब्दील होने के लिए अभिशप्त हुए !

 

वर्ण व्यवस्था को अमरत्व प्रदान करने वाले : कुछ अमानवीय उपाय

 

सामाजिक – आर्थिक नजरिये से वर्ण- व्यवस्था के अध्ययन से साफ़ नजर आता है कि विदेशी मूल के आर्यों द्वारा इसका प्रवर्तन सिर्फ चिरकाल काल के लिए सुपरिकल्पित रूप से शक्ति के समस्त स्रोत हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग(मुख- बाहु- जंघे) से जन्मे लोगों को आरक्षित करने के मकसद से किया गया था. यहां यह भी गौर करना जरुरी है कि इसमें आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक अधिकार सिर्फ उच्च वर्णों के पुरषों के लिए आरक्षित हुए : उनकी आधी आबादी शुद्रातिशूद्रों की भांति ही शक्ति के स्रोतों से प्रायः पूरी तरह बहिष्कृत रही.इससे साफ़ नजर आयेगा की वर्ण-व्यवस्थाधारित हिन्दू धर्म का पूरा ताना- बाना उच्च वर्णों के रूप में हिन्दुओं की अत्यंत अल्पसंख्यक आबादी को , जिनकी संख्या आज की तारीख में बमुश्किल 7.5% हो सकती है, स्थाई तौर पर शक्ति के समस्त स्रोतों से लैस करने को ध्यान में रखकर बुना गया था. इस व्यवस्था को ईश्वर – सृष्ट प्रचारित कर उच्च वर्णों को शक्ति के स्रोतों का दैवीय-अधिकारी वर्ग बना दिया था. इस दैवीय अधिकारी वर्ग के हित में प्रवर्तित वर्ण-व्यवस्था को प्रत्येक आक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए आर्य मनीषियों ने कर्म कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता और कर्म- संकरता की भांति वर्ण- शुद्धता की अनिवार्यता और वर्ण- संकरता की निषेधाज्ञा का सिद्धांत रचा. वर्ण- संकरता से समाज को बचाए रखने के लिए ही उन्होंने सती- विधवा और बालिका – विवाह- प्रथा के साथ अछूत – प्रथा को जन्म दिया. इसके फलस्वरूप पंडित राहुल सांकृत्यायन के मुताबिक सती- प्रथा के तहत भारत के समग्र इतिहास में सवा करोड़ नारियों को अग्नि-दग्ध कर मार डाला गया. इसी तरह विधवा-प्रथा के तहत जहाँ कई करोड़ नारियों की यौन- कामना को बर्फ की सिल्ली में तब्दील कर दिया गया, वहीं बालिका विवाह- प्रथा के तहत अरबों बच्चियों को बाल्यावस्था से सीधे यौनावस्था में उछाल दिया गया. इसी तरह अछूत- प्रथा के तहत दलितों के रूप में एक विशाल आबादी शक्ति के स्रोतों से चिरकाल के लिए पूरी तरह बहिष्कृत होने के साथ कुष्ठ रोगियों की भांति घृणित होने के लिए अभिशप्त हुई. वर्ण-व्यवस्था में पेशों की विचलनशीलता निषिद्ध होने के कारण आर्थिक,सामरिक,शैक्षिक : किसी भी क्षेत्र में योग्य प्रतिभाओं का उदय न हो सका. इस कारण ही मुट्ठी –मुट्ठी भर विदेशी समर-वीरों को भारत को गुलाम बनाने में दिक्कत नहीं हुई; इसी कारण महज पोथी-पत्रा बांचने में सक्षम लोग पंडित कहलाने के पात्र हो गए;इसी कारण भारत के वैश्यों में हेनरी फोर्ड- रॉक फेलर जैसे लोग ढूंढे नहीं मिलते.इसी कारण वर्ण-व्यवस्था के तहत दलित- आदिवासी- पिछड़ों और महिलाओं से युक्त 90 % से अधिक आबादी के मानव संसाधन संसाधन के दुरूपयोग का जैसा भयावह इतिहास भारत में रचित हुआ, वह विश्व इतिहास की बेनजीर घटना है.

 

दुनिया की सबसे खतरनाक सोच : संघ की सामाजिक और आर्थिक सोच

 

अब सवाल पैदा होता है जो वर्ण – व्यवस्था सती- विधवा और बालिका विवाह-प्रथा के जरिये खुद उच्च वर्ण नारियों का जीवन नारकीय बनाने का कलंकित अध्याय रची; जिस वर्ण-व्यवस्था के कारण देश को सहस्राधिक् वर्षों तक विदेशियों का गुलाम बनाने के लिए जिम्मेवार रही ; जिस वर्ण- व्यवस्था के कारण दलित- आदिवासी – पिछड़ों एवं महिलाओं से युक्त 90% आबादी को शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रही, संघ क्यों अपने जन्मकाल से ही उस वर्ण- व्यवस्था की पुनर्स्थापना के लिए क्यों एड़ी- चोटी का जोर लगाता रहा है? इसका जवाब यह है कि वह वर्ण- व्यवस्था के जरिये एक ऐसी सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था को जमीन पर उतारना चाहता है,जिसमें हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे(सवर्णों) का शक्ति के स्रोतों पर शतप्रतिशत एकाधिकार हो जाय और मूलनिवासी दलित, आदिवासी, पिछड़े और आधी आबादी पुनः उस स्थिति में आ जाएँ जिस स्थिति में बने रहने का निर्देश हिन्दू धर्म- शास्त्र देते हैं! ऐसे में दावे के साथ कहा जा सकता है संघ 2035 से हिन्दू राष्ट के संविधान के जरिये एक ऐसी सामाजिक – आर्थिक सोच को जमीन पर उतारने में मुस्तैद है, जो विश्व इतिहास में कहीं नहीं देखी गई. हिटलर मुसोलिनी जैसे तानाशाह भी ऐसी सोच लेकर आगे नहीं बढे. दुनिया में कौन ऐसा संगठन हुआ जो सिर्फ देश की सिर्फ 7.5% कथित दैवीय अधिकार संपन्न लोगों को शक्ति के स्रोतों सुलभ कराने कराने में सर्वशक्ति लगाता हो; कौन ऐसा संगठन हुआ जो आधी आबादी सहित देश की 92. 5% आबादी को पढने – लिखने , पूजा-पाठ के अधिकार से वंचित करने वाली व्यवस्था का पैरोकार हो! यही दुनिया की खतरनाक सामाजिक- आर्थिक सोच से लैस आरएसएस ने अपनी स्थापना के सौ साल पूरे होते हिन्दू की पहचान का विशेष मानदंड तैयार कर दिया है.संघ प्रशिक्षित मोदी राज में अब हिन्दू होने के लिए गोबर और गोमूत्र का सेवन अनिवार्य होने जा रहा है. विजयादशमी शुरू होने के प्रायः 30 घंटे पहले जब यह पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, सोशल मीडिया पर वायरल एक खबर बार-बार ध्यान भंग कर रही है.वह खबर यह है कि इंदौर के भाजपा जिला अध्यक्ष ने फरमान जारी किया है कि जो भी आए प्रवेश के पूर्व गोमूत्र पिए और गरबा पंडालों में प्रवेश करे ! जो हिन्दू होगा वह गोमूत्र पी लेगा , नहीं पीने का तो सवाल ही पैदा नहीं उठता!’

कैसे मिले संघ की खतरनाक सोच से निजात

अब लाख टके का सवाल पैदा होता है कि जो संघ देश में विश्व की सबसे खतरनाक आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था लागू करना चाहता है; जो चाहता है कि लोग गोबर और गोमूत्र पी कर हिन्दू की पहचान साबित करें, उससे देश को कैसे बचाया जाय! इसके लिए सबसे जरुरी है उसके सांप्रदायिक सोच को पीछे छोड़ कर उसकी सवर्णवादी सोच को सामने लाने का युद्ध स्तर पर प्रयास हो. बताया जाय कि संघ संघ के हिन्दू राष्ट्र का लक्ष्य 7.5 % अपर कास्ट के हाथ में शक्ति के समस्त स्रोत सौंपना और दलित, आदिवासी, पिछड़ों , अल्पसंख्यकों को उस स्टेज में पहुचाना है, जिस स्टेज में बने रहने का निर्देश हिन्दू धर्म शास्त्र देते है.इसके लिए हिन्दू धर्म का अर्थशास्त्र बताने का तीव्र अभियान चलाना पड़ेगा. इसके अतिरिक्त हाल के दिनों में श्रीलंका , बांग्लादेश और नेपाल के बाद उठे जनविद्रोह के बाद लोगों में एक सवाल उठना शुरू हो गया है ,’ क्या भारत में भी जनविद्रोह उभरेगा? यह सवाल इसलिए पैदा हो रहा है क्योंकि जिन हालातों में श्रीलंका, बांग्लादेश , नेपाल के बाद अब फ़्रांस में जन विद्रोह उभरा है , वे हालात न सिर्फ भारत में भी मौजूद हैं, बल्कि और गहराई से जड़ें जमाये हुए है. जहाँ तक जनविद्रोह के पृष्ठ में अवसरों और संसाधनो के असमान बंटवारे का सवाल है , भारत में अन्य देशों के मुकाबले इसका प्राबल्य कुछ ज्यादे है. वैसे तो विषमता की खाई पहले से ही रही, किन्तु पिछले 11 सालों में मोदी की हिन्दुत्ववादी सरकार में स्थिति बहुत ही बदतर हुई है. इस दौर में हिंदुत्ववादी सरकार ने जो नीतियाँ बनाई , उससे बड़ी तेजी से आंतरिक साम्राज्यवाद लायक हालात बने, जिसका साक्ष्य वहन करती है मई , 2024 में आई ‘वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब- 2024’ की रिपोर्ट ! उस रिपोर्ट में यह तथ्य उभर कर सामने आया था कि देश की संपत्ति में 89% हिस्सेदारी सामान्य वर्ग अर्थात अपर कास्ट की है , जबकि दलित समुदाय की हिस्सेदारी मात्र 2.8 %. वहीं भारत के विशालतम समुदाय ओबीसी की देश की धन- संपदा में महज 9 % की हिस्सेदारी है. आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स आतंरिक साम्राज्यवाद के सुविधाभोगी वर्ग के हैं. मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दूकानें इन्हीं की है. चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल प्राय इन्ही के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्ही का है. संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं. न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के अपर कास्ट जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं नहीं है.हिन्दुत्ववादी सरकार में अपर कास्ट को जो लाभ मिला है, वह नेपाल के अपर कास्ट से बहुत ही ज्यादा है, जहाँ ब्राहमण – क्षेत्रीय से युक्त 30% उच्च वर्ण आबादी का शक्ति के स्रोतों पर औसतन 75% कब्ज़ा है, जो भारत के 15% वालों के 80-90 % कब्जे के मुकाबले कम है.हिन्दू साम्राज्यवाद में अपर कास्ट के शक्ति के स्रोतों पर बेहिसाब वर्चस्व से देश में उस सापेक्षिक वंचना (रिलेटिव डेप्राईवेशन)के अभूतपूर्व हालात पैदा हो गए हैं,जो क्रांति की आग में घी का काम करते हैं. आज की तारीख में भारत में दलित,आदिवासी ,पिछड़ों, महिलाओं में सापेक्षिक वंचना के उभार लायक जैसे हालात हैं, वैसे हालात न तो फ्रांसीसी और रूस की वोल्सेविक क्रांति पूर्व रहे और न ही हाल के दिनों में श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल इत्यादि में देखे गए. अतः हिन्दुत्ववादी सरकार की सवर्णपरस्त नीतियों से सापेक्षिक वंचना का माहौल बना है, उसे वोट क्रांति में तब्दील करने का योजनाबद्ध प्रयास हो.

 

राहुल गांधी: आंतरिक साम्राज्यवाद के खिलाफ नेतृत्व देने लायक योग्यतम व्यक्ति

 

बहरहाल मोदी राज में आंतरिक साम्राज्यवाद के जो हालात पनपे हैं, उसमें जरूरत थी किसी ऐसे नायक के उदय की जो सदियों पूर्व स्थिति में पहुंचते सामाजिक अन्याय के खिलाफ चट्टान की भांति खड़ा हो सके तथा हिन्दू साम्राज्यवाद के वंचितों के रूप में विद्यमान दलित, आदिवासी,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों से युक्त 90% आबादी को शक्ति के स्रोतों में उनकी वाजिब हिस्सेदारी दिला सके. इतिहास की इसी जरुरत को पूरा करने के लिए फरवरी 2023 में रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85 वें अधिवेशन से, जहाँ कांग्रेस ने अपने इतिहास में पहली बार सामाजिक न्याय का पिटारा खोला, राहुल गांधी एक नए रूप अवतार में लोगों के बीच आए! उस अधिवेशन के बाद वह सदियों के अन्याय के खिलाफ एक तूफान के रूप में उभरे हैं. उनकी सारी गतिविधियाँ अवसरों और संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे पर केन्द्रित है. वह 2023 से लगातार कहे जा रहे हैं कि आर्थिक और सामाजिक अन्याय  सबसे बड़ी समस्या है और भारत को बेहतर बनाना है तो आर्थिक और सामाजिक न्याय  लागू करना होगा! वह कई बार दलित, आदिवासी , पिछड़ों को ललकारते हुए कह चुके हैं ,’ ऐ 73 प्रतिशत वालों, ये देश तुम्हारा है. उठो, जागो और आगे बढ़कर अपना हक ले लो!’ ऐसा लगता है मानों राहुल गांधी में बाबा साहब आंबेडकर , लोहिया और मान्यवर कांशीराम की आत्मा एकाकार हो गई है. उनका आर्थिक और सामाजिक न्याय लागू करने का आह्वान आजाद भारत में डॉ. आंबेडकर के बाद सबसे क्रांतिकारी घटना है! उनका सारा ध्यान-ज्ञान शक्ति के स्रोतों का न्यायपूर्ण बंटवारा है, इसलिए वह जाति जनगणना कराने पर आमादा हैं; इसीलिए वह कांशीराम के भागीदारी दर्शन को सत्ता में भागीदारी तक सिमित न रखकर, समस्त पॉवर स्ट्रक्चर में जितनी आबादी, उतना हक़ लागू करवाने की परिकल्पना में निम

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