Rahul Gandhi News: राहुल गांधी लड़ रहे हैंः बहुजन मुक्ति की अभूतपूर्व लड़ाई

Rahul Gandhi News: बिहार में तेजस्वी यादव, दीपंकर भट्टाचार्य व मुकेश सहनी के साथ मिलकर जो ‘वोटर अधिकार यात्रा’ निकाली, उसमें उन्हें जो प्रचंड जनसमर्थन मिला, वह एक इतिहास बन गया.

लेखकः एचएल दुसाध
(भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (ओबीसी विभाग) के आइडियोलॉजिकल एडवाईजरी कमेटी के सदस्य हैं)

न्यूज इंप्रेशन

दिल्ली : राहुल गांधी की जनप्रियता में हो रही है लम्बवत वृद्धि वर्तमान भारत में किसी की जनप्रियता में रोजाना लम्बवत वृद्धि हो रही है तो वह राहुल गांधी ही हैं. अभी हाल ही में उन्होंने बिहार में तेजस्वी यादव, दीपंकर भट्टाचार्य और मुकेश सहनी के साथ मिलकर जो ‘वोटर अधिकार यात्रा’ निकाली, उसमें उन्हें जो प्रचंड जनसमर्थन मिला, वह एक इतिहास बन गया. गांधी और आंबेडकर के विचारधारा को आधार बनाकर निकली उस 16 दिवसीय यात्रा में जो हैरतंगेज जन भागीदारी हुई, वह हर किसी को विस्मित की. उस यात्रा में किसी को उनमें मंडेला की छवि दिखी तो किसी को उनमे गांधी और चेग्वेरा का मिलाजुला रूप नजर आया. उस यात्रा ने इंडिया गठबंधन में उनकी स्वीकार्यता को नया आयाम दे दिया. यह राहुल गांधी की लोकप्रियता का असर था कि ‘वोट चोर- गद्द्दी छोडो‘ का उनका नारा बिहार की सीमा को अतिक्रम का पूरे देश की जुबान पर आ गया. बाद में जब उस यात्रा के शेष चरण में किसी अख्यात व्यक्ति द्वारा प्रधानमंत्री की मां को दी गई गाली को केन्द्रित करते हुए 4 सितम्बर को भाजपा और उसके सहयोगी दलों की और से बिहार बंद का आह्वान हुआ, वह अगर सुपर फ्लॉप साबित हुआ तो, उसके पीछे राहुल गांधी की स्वीकार्यता ही रही. 4 सितम्बर को ही प्रधानमंत्री मोदी ने एक साहसिक कदम उठाते हुए वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी में सुधार की बड़ी घोषणा कर दी. उनकी घोषणा के बाद अब इस टैक्स की दो ही श्रेणियां-5 और 18 प्रतिशत होंगी. उनकी इस घोषणा का अवाम में भारी स्वागत हुआ, क्योंकि लोग इसकी लम्बे समय से प्रतीक्षा कर रहे थे. इस सुधार पर राय देते हुए पीएम मोदी ने कहा कि इससे विकसित भारत के निर्माण के लिए सहकारी संघवाद को मजबूती मिलेगीः गरीब, मध्यम वर्ग, महिलाएं, छात्र, किसान, युवा को लाभ होगा!

जीएसटी में नए सुधार से जो फायदे आज
प्रधानमन्त्री बता रहे हैं, वे फायदे गिनाते हुए राहुल गांधी विगत 8 वर्षों से सुधार के लिए दबाव बनाते हुए कह रहे थे कि यदि सरकार ऐसा नहीं करती है तो, हमारी सरकार आने पर हम कर देंगे. विगत आठ सालों से राहुल गांधी द्वारा कही जा रही वह बात चार सितम्बर को खूब वायरल हुई. इस विषय में लोगों की भावना का सही प्रतिबिम्बन चर्चित पत्रकार सत्येन्द्र सिन्हा के इन शब्दों में हुआ, ’जिस जीएसटी की घोषणा के लिए 2017 में आधी रात को संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई गयी और उसे ’आर्थिक क्रांति’ कहा गया, वह मुंह के बल गिर पड़ा है. जन आक्रोश और राहुल की चुनौतियों से डरी मोदी सरकार ने इसमें संशोधन कर वाहवाही लूटने की कुचेष्टा कर रही है. स्मरण रहे, तब राहुल गांधी ने जीएसटी को ’गब्बर सिंह टैक्स’ कहा था, जिसका कुतर्कपूर्ण विरोध मोदी सरकार ने किया था. तब से आज तक आम जनता और छोटे व्यापारी इस टैक्स के तले दब रहे हैं. वोटर अधिकार यात्रा से बैकफुट पर आई मोदी सरकार जीएसटी में संशोधन कर अपना चेहरा बचाना चाहती है. जैसे जातीय जनगणना का श्रेय राहुल गांधी को जाता है, उसी तरह जीएसटी संशोधन का भी पूरा श्रेय राहुल को जाएगा. राहुल सही मायनों में ’जननेता’ बन चुके हैं. 10 साल पहले परसौल भट्ठा से शुरू हुई उनकी ’जनयात्रा’ निरंतर जारी है. तमाम चुनावी पराजय, उपहास, सत्ता द्वारा दमन, फर्जी मुकदमों, संसद से निष्कासन, सांसद आवास से निष्कासन के बावजूद राहुल हताश नहीं हुए..निरंतर चलते गये मुस्कुराते हुए. देश की आम जनता ने अपने दिलों के दरवाजे राहुल के लिए खोल दिये. कालेज की छात्राओं से लेकर झोपड़ी में जीवन चलाने वाली बुजुर्गो महिलाओं ने राहुल को गले लगाकर भीगी आंखों से स्वागत किया. क्या कहा जाए…!’

मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या से अनजान हैंः वंचित बहुजन
इसमें कोई शक नहीं कि राहुल गांधी के लिए देश की आम जनता ने जिस हद तक अपने दिलों के दरवाजे खोले हैं, यह सौभाग्य भारत के इतिहास में बहुत कम लोगों को मय्यसर हुआ है. लेकिन जिस दिन राष्ट्र को इस बात का इल्म हो जाएगा कि राहुल गांधी सदियों की शोषित, निष्पेषित जनता की मुक्ति की अभूतपूर्व लड़ाई लड़ रहे हैं, उस दिन कोटि-कोटि वंचित बहुजन उनके पीछे उसी तरह चल पड़ेंगे, जिस तरह अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में कोटि-कोटि लोग महात्मा गांधी के पीछे चले थे! वास्तव में राहुल गांधी इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में विकसित हो चुके एक आन्तरिक साम्राज्यवाद से वंचित बहुजनो को आजादी दिलाने की एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं, जैसी लड़ाई कभी लेनिन और अन्य कई महापुरुषों ने अपने-अपने देश में लड़ी थी. उनकी इस लड़ाई का ठीक से इल्म वंचितों को दो कारणों से नहीं हो पाया है. पहला, जो लोग राष्ट्र के विचार के निर्माण में लगे हुए हैं, वे खुद इस आन्तरिक साम्राज्यवाद को टिकाये रखने में सर्वशक्ति से जुटे हैं, इसलिए वे इसे उजागर नहीं करते. दूसरा, जो सामाज इस साम्राज्यवाद का शिकार है, वह ब्राह्मणवाद जैसे अमूर्त मुद्दे में अपनी उर्जा लगा रहा है : उसे उस आर्थिक और सामाजिक विषमता की समस्या गहराई से स्पर्श नहीं करती , जिसके कारण देश में आन्तरिक साम्राज्यवाद कायम हुआ. और तो और वंचित बहुजनों को सदियों से चला आ रहा सामाजिक अन्याय तक ठीक से स्पर्श नहीं कर पाया है.स्मरण रहे सामाजिक अन्याय एक वैश्विक समस्या है और सारी दुनिया में ही इसकी सृष्टि शक्ति के सोंतों (आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक ) के असमान बंटवारे से होती रही है. इसी विषमता से समाज को निजात दिलाने के लिए समय- समय पर दुनिया में महामानवों का उदय होता रहा है.इस विषय में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘कार्ल मार्क्स की जीवनी’ में लिखा हैं-ः
‘मानव समाज में आर्थिक विषमताएं ही वह मर्ज है, जिसके कारण मानव समाज में दूसरी विषमताएं और असह्य वेदनाएं देखी जाती हैं. इन वेदनाओं का अनुभव हर देश-काल में मानवता प्रेमियों और महान विचारकों ने किया. भारत में बुद्ध, ईरान में मज्दक, चीन में मो-ती, यूरोप में अफलातून, सेनेका, सवोनरोला, आंद्रेयाये, पीटर चैंबरलैंड, वाल्टेयर, टॉमस स्पेंस, सेंट सायमन, प्रुधो, रोबर्ट ऑवेन इत्यादि जैसे अनेक विचारक उस समाज का सपना देखते रहे, जिसमें मानव-मानव समान होंगे, उनमें कोई आर्थिक विषमता नहीं होगी. ’ऐसे ही आर्थिक-सामाजिक विषमता-मुक्त समाज निर्माण के लिए मार्क्स, लेनिन, माओ इत्यादि जैसे भूरि-भूरि महामानवों का उदय हुआ. ऐसे ही आर्थिक- सामाजिक विषमता-मुक्त समाज निर्माण के लिए आधुनिक भारत में फुले, शाहूजी, पेरियार, महात्मा गांधी आंबेडकर जैसे महामानवों का उदय हुआ. सामाजिक और आर्थिक विषमता को भारत की सबसे बडी़ समस्या मानते हुए ही संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने 25 नवम्बर, 1949 को संसद के सेंट्रल हॉल से अह्वान किया किया था, ’हमें निकटतम भविष्य के मध्य आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा कर लेना होग, नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढाँचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है! ’लेकिन स्वाधीन भारत के शासकों ने इसकी अनदेखी कर दी. इसके खात्मे के लिए उन्हें दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्य्क और सामान्य वर्ग के स्त्री और पुरुषों के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बँटवारा कराना पड़ता, जो वे अपनी वर्णवादी सोच के चलते पर्याप्त मात्रा में न कर सके. इस कारण देश में विषमता की जो समस्या गहराई उससे पार पाने के लिए ‘सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है’ की घोषणा के साथ बाबू जगदेव प्रसाद तो ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ नारे के साथ कांशीराम मैदान में उतरे . किंतु समस्या घटने के बजाय बढ़ती ही गयी और 2014 के बाद सारी हदें पार कर गयी!

2014 के बाद अभूतपूर्व रूप से गहराईः मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या

2014 के बाद विषमता की समस्या अभूतपूर्व रुप से गहराने के पीछे कुछ ठोस कारण रहे. इसके पहले शासन-प्रशासन में छाये लोग अपनी वर्णवादी सोच के चलते विषमता के खात्मे लायक नीतियाँ बनाने से परहेज करते रहे. पर, 2014 के बाद जो सरकार आई, उसे चलाने वाले लोग हिन्दू धर्म में कट्टर आस्था के चलते मन-प्राण से इस विचारधारा में विश्वास करते रहे है कि शक्ति के स्रोतों का भोग दलित, आदिवासी, पिछड़ों के लिये अधर्म हैः इसके भोग का अधिकारी सिर्फ उच्च वर्ण के लोग हैं. इस धार्मिक विश्वास के कारण ही मोदी सरकार ने सरकारी कम्पनियों, स्कूल-कॉलेज, अस्पताल इत्यादि सारा कुछ निजी क्षेत्र में देने का अभियान युद्ध स्तर छेड़ा ताकि दलित, आदिवासी , पिछड़े, महिलाएं इत्यादि अधर्म घटित न कर सकें और उस स्टेज में चले जाये, जिस स्टेज में उन्हें बने रहने का निर्देश हिंदू धर्मशास्त्र देते हैं.उनके लिए वंचितों को शक्ति के स्रोतों से दूर धकेलना पुण्य का काम था. हिन्दू धर्म को अधर्म से बचाने के लिए हिंदुत्ववादी मोदी सरकार ने आनन- फानन में संविधान की अनदेखी करते हुए ईडब्ल्यूएस आरक्षण और लैटरल इंट्री का प्रावधान किया. इसी मकसद से हिंदू राष्ट्र की घोषणा लायक माहौल बनाने में मोदी सरकार तत्पर हुई.कुल मिलाकर आंबेडकर के संविधान के जरिये सदियों पूर्व शुरु हुए सामाजिक अन्याय के शमन का जो सिलसिला शुरू हुआ था, मोदी की नीतियों से उसके सदियों पूर्व स्थिति में पहुंचने के लक्षण साफ दिखने लगे. मोदी की नीतियों के फलस्वरूप ही इस देश में एक ऐसा आंतरिक साम्राज्यवाद विकसित हुआ है, जिससे अवाम को बचाना आज हर विवेकवान नागरिक का अत्याज्य कर्तव्य बन गया है. इसे समझने के लिए जान लेना होगा आन्तरिक साम्राज्यवाद की विशेषताएं!

विकसित हो गए हैंः आन्तरिक साम्राज्यवाद के हालात
राजनीति विज्ञानियों के मुताबिक ‘आंतरिक साम्राज्यवाद’ एक राष्ट्र के भीतर किसी प्रमुख समूह द्वारा छोटे या सीमांत जातीय, नस्लीय या क्षेत्रीय समूहों पर किया जाने वाला आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उत्पीड़न है. यह व्यवस्था एक ऐसे ‘केंद्र-परिधि’ संबंध को दर्शाती है जहाँ शक्ति और संसाधनों का असमान वितरण होता है, जिसमें केंद्र (प्रमुख समूह) परिधि (अधीनस्थ समूह) का शोषण करता है, ठीक वैसे ही जैसे एक देश दूसरे देश का करता है. आंतरिक साम्राज्यवाद के तहत एक राष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों के बीच आर्थिक और राजनीतिक असमानताएँ उत्पन्न होती हैं. प्रमुख समूह परिधि के प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों का शोषण करके लाभ उठाता है, जिससे अधीनस्थ समूहों का आर्थिक पिछड़ापन होता है. अधीनस्थ समूहों को आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से व्यवस्थित रूप से उत्पीड़ित किया जाता है, जो उनके और प्रमुख समूह के बीच एक खाई पैदा करता है.  इसमें एक केंद्र (शक्तिशाली और प्रभावशाली समूह) होता है जो अपने लाभ के लिए परिधि (कमजोर और अधीनस्थ समूह) का नियंत्रण और शोषण करता है. यह उस स्थिति को दर्शाता है जहाँ एक राष्ट्र के अंदर कुछ क्षेत्रों या समूहों को दूसरों की तुलना में बहुत कम लाभ मिलता है, जो ‘असमान विकास’ का कारण बनता है. संक्षेप में, आंतरिक साम्राज्यवाद किसी राष्ट्र की आंतरिक संरचना में मौजूद एक प्रकार का प्रभुत्व और शोषण है, जो बाहरी साम्राज्यवाद के समान शोषणकारी गतिशीलता रखता है, लेकिन एक ही देश की सीमाओं के भीतर. आन्तरिक साम्राज्यवाद में शोषितों को स्वदेशी लोगों के शोषण और अत्याचार से बचाने का सर्वोत्तम दृष्टांत 1789 की फ्रांसीसी और 1917 की बोल्सेविक क्रांति में स्थापित हुआ. जहाँ तक भारत का सवाल है इसके हालात 2014 से बनने शुरू हुए और आज शिखर को छूते नजर आ रहे हैं. इस दौर में हिंदुत्ववादी सरकार ने जो नीतियाँ बनाई, उससे बड़ी तेजी से आंतरिक साम्राज्यवाद लायक हालात बने, जिसकी साक्ष्य वहन करती है मई, 2024 में आई ‘वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब-2024’ की रिपोर्ट ! उस रिपोर्ट में यह तथ्य उभर कर सामने आया था कि देश की संपत्ति में 89 प्रतिशत हिस्सेदारी सामान्य वर्ग अर्थात अपर कास्ट की है, जबकि दलित समुदाय की हिस्सेदारी मात्र 2.8 प्रतिशत. वहीं भारत के विशालतम समुदाय ओबीसी की देश की धन- संपदा में महज 9 प्रतिशत की हिस्सेदारी है. आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स आतंरिक साम्राज्यवाद के सुविधाभोगी वर्ग के हैं. मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दूकानें इन्हीं की है. चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल प्राय इन्ही के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्ही का है. संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं. न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के अपर कास्ट जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं नहीं है.स्मरण रहे मोदी राज में आंतरिक साम्राज्यवाद, जिसे हिन्दू साम्राज्यवाद भी कहा जा सकता है, का जो तोरण विकसित हुआ, उसमें अधिकतम लाभ सिर्फ अपर कास्ट के 3 से 5 प्रतिशत पुरुषों को मिला है. अपर कास्ट की शेष प्रायः 10 प्रतिशत आबादी भी वंचितों के ही श्रेणी में है. इसमें सबसे ज्यादा सुफल अगर अपर कास्ट के पुरुषों को मिला है तो इसमें सर्वाधिक वंचना का शिकार रही है आधी आबादी, जिसे ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 के मुताबिक़ आर्थिक रूप से पुरुषों की बराबरी में आने में 257 साल लगेंगे!
बहुजन मुक्ति की मुकम्मल लड़ाई में जुटे हैंः राहुल गांधी
बहरहाल मोदी राज में आंतरिक साम्राज्यवाद के जो हालात पनपे हैं, उसमें जरूरत थी किसी ऐसे नायक के उदय की जो सदियों पूर्व स्थिति में पहुंचते सामाजिक अन्याय के खिलाफ चट्टान की भांति खड़ा हो सके तथा हिन्दू साम्राज्यवाद के वंचितों के रूप में विद्यमान दलित, आदिवासी,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों से युक्त 90þ आबादी को शक्ति के स्रोतों में उनकी वाजिब हिस्सेदारी दिला सके. इतिहास की इसी जरुरत को पूरा करने के लिए फरवरी 2023 में रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85 वें अधिवेशन से, जहाँ कांग्रेस ने अपने इतिहास में पहली बार सामाजिक न्याय का पिटारा खोला, राहुल गांधी एक नए रूप अवतार में लोगों के बीच आए! उस अधिवेशन के बाद वह सदियों के अन्याय के खिलाफ एक तूफान के रूप में उभरे हैं. उनकी सारी गतिविधियाँ अवसरों और संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे पर केन्द्रित है. वह 2023 से लगातार कहे जा रहे हैं कि आर्थिक और सामाजिक अन्याय  सबसे बड़ी समस्या है और भारत को बेहतर बनाना है तो आर्थिक और सामाजिक न्याय लागू करना होगा! वह कई बार दलित, आदिवासी , पिछड़ों को ललकारते हुए कह चुके हैं , ’ऐ 73 प्रतिशत वालों, ये देश तुम्हारा है. उठो, जागो और आगे बढ़कर अपना हक ले लो!’ ऐसा लगता है मानों राहुल गांधी में बाबा साहब आंबेडकर, लोहिया और मान्यवर कांशीराम की आत्मा एकाकार हो गई है. उनका आर्थिक और सामाजिक न्याय लागू करने का आह्वान आजाद भारत में डॉ. आंबेडकर के बाद सबसे क्रांतिकारी घटना है! उनका सारा ध्यान-ज्ञान शक्ति के स्रोतों का न्यायपूर्ण बंटवारा है, इसलिए वह जाति जनगणना कराने पर आमादा हैं; इसीलिए वह कांशीराम के भागीदारी दर्शन को सत्ता में भागीदारी तक सिमित न रखकर, समस्त पॉवर स्ट्रक्चर में जितनी आबादी, उतना हक़ लागू करवाने की परिकल्पना में निमंग्न हैं. बहुजन मुक्ति की लड़ाई जहाँ अधिकांश नेता और बुद्धिजीवियों ने अबतक अपनी गतिविधियाँ सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों, शिक्षा, न्यायपालिका और प्रमोशन में आरक्षण इत्यादि तक सीमित रखा, वहीँ राहुल गाँधी ने इसे निजी क्षेत्र की कंपनियों,अस्पतालों, यूनिवर्सिटियों इत्यादि सहित तमाम क्षेत्रों में संख्यानुपात में भागीदारी तक प्रसारित कर दिया है. कुल मिलाकार राहुल गांधी अभी जो लड़ाई लड़ रहे हैं, वह बहुजन मुक्ति की ऐसी मुकम्मल लड़ाई है जो स्वाधीन भारत में इतनी शिद्दत और विस्तार से अबतक नहीं लड़ी गई. जिनको इस बात का इल्म हो चुका है वे इस लड़ाई में उतर कर अपने जीवन को उसी तरह सार्थक बनाना चाहते हैं, जैसे अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी का साथ ढेरों लोगों ने अपने जीवन को सार्थक बनाया था. उम्मीद है ज्यों-ज्यों राहुल गांधी द्वारा लड़ी जा रही बहुजन मुक्ति की लड़ाई का इल्म आन्तरिक साम्राज्यवाद के वंचितों को होगा, त्यों-त्यों वे हजारों दृ लाखों की तादाद में उनके साथ जुड़ते जायेंगे!

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