Phule Film : फुले फिल्म का विरोध क्यों?

Phule Film : फुले के समय जो सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व्यवस्था थी। जिसे ज्योतिबा फुले ने अपनी किताबों में उद्धृत किया था। समाज की जिस कुव्यवस्था को उन्होंने भोगा था।

 

लेखक: अलखदेव प्रसाद ‘अचल’

न्यूज इंप्रेशन

Bihar: ब्राह्मणवादी व्यवस्था का असली चरित्र यही है कि अगर कोई अतीत के सच को सामने लाता हो, तो उन्हें वह गलत साबित करने में लग जाते हैं। उस आरोप को बेबुनियाद साबित करने में लग जाते हैं और अपने को गंगाजल की तरह पवित्र साबित करने लगते हैं। ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषक सारे को कुकृत्य करते हैं, परंतु उसे स्वीकार नहीं करते, बल्कि उसे तोड़ मरोड़ कर सही साबित कर देते हैं। आज भी गुजरात में बिल्किस बानो के बलात्कारियों को बचाने के लिए उसके पक्ष के वकील ने कहा था कि ब्राह्मण स्वच्छ चरित्र के होते हैं। इसलिए ऐसी घटना का अंजाम नहीं दे सकते हैं। फुले फिल्म को रिलीज न होने देने के लिए ब्राह्मणों ने आक्रोश व्यक्त किया। जब फिल्म निदेशक द्वारा यह बताया गया कि उसमें कुछ भी बनावटी नहीं है। यह तो एक ऐतिहासिक फिल्म है। फुले के समय जो सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व्यवस्था थी। जिसे ज्योतिबा फुले ने अपनी किताबों में उद्धृत किया था। समाज की जिस कुव्यवस्था को उन्होंने भोगा था। अपने जीवन में सब कुछ अपनी खुली आंखों से देखा था। उसे ही फिल्मों में फिल्मांकित किया गया है। फिर भी ब्राह्मणों ने यह आरोप लगाते हुए उस फिल्म पर हाय तौबा मचाकर विरोध किया और रिलीज होने पर पाबंदी लगाने की मांग की कि ब्राह्मणों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था। आखिर ब्राह्मण संगठन उस सच्चाई को दिखाने से क्यों घबराने लगे हैं? सच्चाई पर कब तक पर्दा डालते रहेंगे? यहां के फिल्म सेंसर बोर्ड को निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता। जैसे अब यहां के न्यायालय, चुनाव आयोग एवं अन्य तंत्रों को निष्पक्ष नहीं कहा जा रहा है। सेंसर बोर्ड भी वही करता है, जो सरकार की ओर से संकेत मिलता है। और सरकार में ब्राह्मणवाद का वर्चस्व है। यह वही सेंसर बोर्ड है, जो देश में नफरत फैलाने वाली फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ ‘द केरल स्टोरी’ जैसी फिल्मों पर कोई पाबंदी नहीं लगता है। जबकि वे सारी फिल्में सरकार द्वारा टैक्स फ्री किए जाने के बाद भी पीट चुकी। वहीं फुले फिल्म पर सेंसर बोर्ड ने भी प्रतिबंध लगा दिया था और काट छांट करने का आदेश दिया था।

क्या फुले के समय नारियों को पढ़ने का अधिकार था?

सवाल यह है कि फुले के समय जो यहां का सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिवेश था, उसे कब तक नकारा जा सकता है? क्या उस समय नारियों को पढ़ने का अधिकार था? क्या दलित को अछूत नहीं समझा जाता था? क्या शूद्रों को पढ़ने का अधिकार था? क्या सावित्रीबाई फुले जब स्कूल में पढ़ाने जाती थीं, तो उन पर कीचड़ नहीं फेंके जाते थे? ज्योतिबा फुल ने जब स्कूल खोला था, तो उनके पिताजी को नहीं धमकाया गया था? क्या उसकी वजह से फुले को अपना घर नहीं छोड़ देना पड़ा था? क्या फुले इन सब के बावजूद उस समय सत्यशोधक समाज की स्थापना कर शूद्रों को जागरूक नहीं कर रहे थे? क्या वे पोंगा-पंडितों का विरोध नहीं कर रहे थे? क्या भाग्य और भगवान का विरोध नहीं कर रहे थे? क्या फुले और सावित्री बाई फुले मिलकर विधवा विवाह का समर्थन नहीं कर रहे थे? क्या ऐसी महिलाओं के लिए अनाथालय नहीं चला रहे थे? क्या समाज में समानता स्थापित करने का अथक प्रयास नहीं कर रहे थे?ज्योतिबा फुले जो कर रहे थे, उसे ही तो फिल्मांकित किया गया है?

क्या आज छुआ छूत का भेदभाव मिट गया है?

यह तो हुई सैकड़ों वर्ष पहले की बात। क्या आज ब्राह्मणवाद की वजह से समाज में ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं है? क्या आज छुआ छूत का भेदभाव मिट गया है? अगर मिट गया है, तो फिर कैसे आदिवासियों के सिर पर एक शुक्ला पेशाब कर रहा है? कैसे दलित लड़कियों के साथ बलात्कार कर, उसे रातों-रात जला दिया जा रहा है? कैसे देवी शंकर जैसे दलित को सवर्णों द्वारा जिंदे जला दिया जा रहा है? किसी दलित को बारात में घोड़ी पर चढ़ने और मूंछें रखने पर क्यों पीटा जा रहा है? दलितों द्वारा जय भीम कहने पर उनके साथ जानवरों की तरह सलूक किया जा रहा है?ऐसे अनगिनत घटनाएं आज भी घट रही है। इस सच को छिपाकर वे कहां ले जाएंगे? क्या आज के दलित, पिछड़े और आदिवासी लोग ब्राह्मणवादियों की इस चाल को नहीं समझ रहे हैं? क्या आए दिन इस पर विरोध नहीं हो रहे हैं?

फुले फिल्म रिलीज होने के बाद भी कई सिनेमा घर वाले नहीं दिखा रहे

सेंसर बोर्ड द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने के बाद भी फुले फिल्म को काट-छांट करने के बाद जब फिल्म 25 अप्रैल को रिलीज तो हो गई, फिर भी ब्राह्मणवादी लोग अपनी शतरंज की विसात बिछाने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह तो सच है कि जितने बड़े-बड़े सिनेमा घर हैं, वे गरीबों के नहीं हैं। वे पूंजीपतियों के ही हैं। इसलिए उनपर यह दबाव बनाया गया कि फुले फिल्म भले रिलीज हो गया, पर इसे दिखाओ ही नहीं। जिसमें सरकार की भी साजिश है। फल स्वरुप फुले फिल्म रिलीज होने के बावजूद भी कई सिनेमा घर वाले उसको दिखा नहीं रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि अगर यह फिल्म लोग देखेंगे तो ब्राह्मणों के कुकृत्यों की सच्चाई सामने आ ही जाएगी और देखने वालों के मन में ब्राह्मणों के प्रति नफरत पैदा होने ही लगेगी। परंतु उसके कुकृत्य को छिपाने के लिए ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषक कब तक उसको तोप -झांककर रखेंगे?अब हर पढ़ा लिखा दलित और पिछड़ी जाति के लोग यह समझने लगे हैं कि ब्राह्मणवाद किस तरह से हमलोगों को नीचे की ओर धकेलने का प्रयास करते रहा है और आज भी कर रहा है। चाहे फुले फिल्म सिनेमा घरों में चले या न चले, पर अब तो ब्राह्मणों के कुकृत्य सामने आएंगे ही।

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