Pahalgam Terror Attack : पहलगाम पर राजनीति 

Pahalgam Terror Attack : जब सरकार अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए किसी जघन्य घटनाओं की दिशा बदल दे या बदलवाने में लग जाए, तो वैसी सरकार से उम्मीद ही क्या की जा सकती है?

लेखक: अलखदेव प्रसाद ‘अचल’

न्यूज इंप्रेशन, संवाददाता

Bihar: जब कोई सरकार अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए किसी जघन्य घटनाओं की दिशा बदल दे या बदलवाने में लग जाए, तो वैसी सरकार से उम्मीद ही क्या की जा सकती है? इसे तो आपदा में अवसर ही तलाशना कहा जा सकता है।पिछले दिनों पहलगाम में जिस तरह आतंकवादियों ने घूमने गए दर्जनों सैलानियों को गोलियों से भून दिया, उसकी जितनी भी निंदा की जाए, वह कम ही होगी। पर जहां पहले सीआरपीएफ के जवानों की तैनाती रहती थी, उस समय उन्हें क्यों हटा लिया गया था? किसने हटवाया था? क्यों हटवाया? घटना के बाद जरूरी था कि सरकार सुरक्षा बलों को तुरंत आदेश करती कि आतंकवादी किसी भी कीमत पर भागने न पाए। इसके बजाए सरकार के मंत्री, सांसद, नेता और कार्यकर्ता उस घटना को हिन्दू मुस्लिम करने में लग गए। वे टीवी चैनल जो गोदी मीडिया के रूप में बदनाम हो चुके हैं, वे भी शर्म हया ताख पर रखकर इस घटना को हिन्दू मुस्लिम करने में लग गए थे कि आतंकवादी धर्म पूछ पूछकर मार रहे थे। अगर धर्म पूछकर मार रहे थे, तो फिर एक मुस्लिम और कुछ ईसाई को किसने गोली मारी?

नजाकत भाई नहीं होते तो शायद मैं न बचता

सबसे शर्मनाक तो यह है कि जिस समय घटना घटी उस समय किसी हिन्दू रहनुमा ने बचाने की हिम्मत नहीं जुटाई। घायलों को अस्पताल नहीं पहुंचाया। उस समय हिन्दू सैलानियों को बचाने के लिए एक घोड़ा वाला, जो अपने परिवार का आधार था। उसने अपनी जान कुर्बान कर दी। पर बेशर्मियों को हुसैन मुसलमान नजर आएगा। जिस नजाकत अली ने अपनी जान हथेली पर रखकर ग्यारह लोगों की जान बचाई। जिसके लिए एक भाजपा नेता ने भी उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की और कहा कि नजाकत भाई नहीं होते तो शायद मैं न बचता। मैं नजाकत भाई को जिंदगी भर नहीं भूल सकता हूं। और इधर सरकार के समर्थक हिन्दू मुस्लिम रंग देने में लगे हुए हैं। इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है?

नफ़रत फैलाने वाले कोई वहां मदद करने गया क्या?

जो हिन्दूवादी संगठन इस पहलगाम घटना को लेकर भाजपा का वोट बैंक मजबूत करने के लिए मुसलमानों के विरुद्ध नफ़रत फैलाने में लगा है, उसमें कोई वहां मदद करने गया क्या? नहीं!चला जाता तो फिर नफ़रत कौन फैलाता? मदद करने वाले तो मुसलमान रहे। पर देश भर में सबसे अधिक मोमबत्तियां जलाकर श्रद्धांजलि भाजपा वालों दी। सिर्फ दिखाने के लिए कि हमलोग ही हिन्दुओं के असली हमदर्द हैं। फोटो खींचवा ली, अखबारों में छपवा दी, बस काम खत्म। इसपर कश्मीरियों के विरुद्ध नफ़रत फैलाने की राजनीति जो कर रहे हैं, उन्हें समाज में अमन से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए उन्हें यह याद नहीं रहेगा कि पहलगाम में अफरातफरी मचने के बाद जहां सरकार के नियंत्रण में चलने वाले हेलीकॉप्टर और हवाई जहाज के भाड़े वृद्धि हो गयी थी कि यात्रियों से लूटने का यही अच्छा अवसर है, वहां पहलगाम के टैक्सी, टैम्पो चालक फ्री सेवा देकर हवाईअड्डा पहुंचाने में लगे हुए थे। घायलों को अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में लगे हुए थे। घटना के बाद कश्मीरियों ने विरोध में अपनी अपनी दूकानें बंद कर दी। घटना के विरोध में सड़कों पर उतर आए। घटना की घोर निंदा की। क्या वे सभी हिन्दू थे? नहीं। फिर पूरे देश में एक राजनीतिक साज़िश के तहत मुसलमानों के प्रति नफ़रत क्यों फैलाई जा रही है? खास करके कश्मीरियों के प्रति नफ़रत क्यों परोसी जा रही है?

हजारों सैलानियों की थी भीड़ थी, तो सुरक्षा व्यवस्था क्यों नहीं थी?

दिल्ली या अन्य शहरों के विश्वविद्यालयों में जो छात्र छात्राएं पढ़ रहे हैं, उन्हें अपमानित कर कश्मीर चले जाने के लिए क्यों कहा जा रहा है? ये वे ही लोग हैं जो धर्म के नाम पर मारने वाले के विरोधी हैं, पर जाति के नाम पर मारने वाले आतंकवादियों को सम्मानित करते हैं। क्या ऐसा नहीं लगता कि यह सबकुछ सरकार की नाकामियों को छिपाने के लिए किया करवाया जा रहा है, ताकि लोगों का ध्यान सरकार की नाकामियों पर न जाने पाए। लोग यह सवाल न पूछने लगें कि कश्मीर में सुरक्षा की जिम्मेदारी तो केन्द्र सरकार के अधीन है? मारे गए सैलानियों के लिए केन्द्र सरकार जिम्मेवार है? जब पहलगाम में हजारों सैलानियों की भीड़ थी, तो सुरक्षा व्यवस्था क्यों नहीं थी? तैनात पुलिस कहां थी, जो आतंकवादी आए और इत्मीनान से धर्म पूछ पूछकर गोलियां का शिकार बनाकर चलते बने? उसके बाद भी पुलिस अपनी सक्रियता क्यों नहीं दिखाई? कहीं से कोई इशारा तो नहीं था? ताकि पुलवामा की तरह लाश पर आसानी से राजनीति की रोटी सेंकी जा सके?

पीएम पुराने अंदाज में आतंकवादियों को सबक सिखाने का एलान करते हैं?

इस बात का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि 22 अप्रैल को पहलगाम में घटना घटती है। पूरा देश मातम मना रहा होता है। 24 अप्रैल को घटना में हताहत सैलानियों के घर लाशें भेजी जाती हैं। पूरा माहौल गमगीन हो जाता है। और उसी दिन प्रधानमंत्री पहलगाम की घटना पर बुलाई गई सर्वदलीय बैठक को अहमियत न देकर बिहार में नई रेलगाड़ी को हरी झंडी दिखाकर रवाना करते हैं। बिहार को एक से एक सौगात देते हैं। क्योंकि बिहार में माथे पर चुनाव है। और दिखाने के लिए अपने पुराने अंदाज में आतंकवादियों को सबक सिखाने का एलान करते हैं? जिसे कशमीर जाना चाहिए था, वह बिहार आता है। क्या इसपर सवाल नहीं उठाए जायेंगे? क्या यह सवाल नहीं उठेगा कि उसी कश्मीर में सरकार का मंत्री निशिकांत बड़े ही धूमधाम से अपना शादी सालगिरह मनाकर आता है। जहां सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम होता है। चूंकि मंत्री की बात रहती है। वहीं सैलानियों को गोलियों से छलनी होकर लाश के रूप में लौटना पड़ता है। पर यहां तो जो सच कहने की हिम्मत जुटाएगा, उसे ही देशद्रोही करार देते हुए दुष्प्रचारित किया जाने लगता है। देश के लिए कितना बड़ा दुर्भाग्य है?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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