Sapekshik Vanchanak : सापेक्षिक वंचना के सदव्यवहार की आखिरी उम्मीद राहुल गांधी से ही है

Sapekshik Vanchanak : देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अखबारों से लेकर तमाम चैनल्स इन्हीं के हैं. संसद-विधानसभाओं में वंचित जातियों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीकठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजाम पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों के हैं.

एचएल दुसाध
न्यूज इंप्रेशन
Delhi: वर्तमान भारत के चुनिंदा लेखकों में एक डॉ. सिद्धार्थ रामू का हर लेखक बहुत ही विचारोत्तेजक होता है, जिसे बहुजन पाठक बहुत चाव से पढ़ते हैं. 30 और 31 मार्च को उन्होंने दो असाधारण लेख लिखकर क्षत्रिय पराक्रम की धज्जियां उड़ा दी थी, जिसके समक्ष करणी सेना वाले पूरी तरह निरुत्तर रहे. उसी डॉ. सिद्धार्थ ने आज एक अप्रैल योगी मोदी राज में सवर्णों के व्यवहार में आए आक्रामकता और विजयी भाव को लेकर फिर एक असाधारण लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने उन कारणों की गहराई से पड़ताल की है, जिनके कारण आज वे आक्रामक, मनबढ़ और विजयी मुद्रा में तलवारें भांज रहे हैं तथा देश में अभूतपूर्व सवर्ण वर्चस्व कायम हो गया है. उनके इस लेख पर बहुतों ने कमेंट किया है और माना है कि उनका आंकलन निर्भूल है.औरों की तरह मैं भी कमेंट किए बिना न रह सका : पेश है मेरा कमेंट! ‘ शक्ति के समस्त स्रोतों ( आर्थिक,राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक ) पर सवर्णों का 80 से 90 प्रतिशत कब्जा 21वी सदी में पहुंची मानव सभ्यता की सम्भवतः सबसे विस्मयकर घटना हैः दुनिया के किसी भी देश में पुरातन जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का ऐसा वर्चस्व नहीं है, जैसा कि भारत में सवर्णों का दिख रहा है! उनका यह वर्चस्व वाजपेई राज से जो शुरू हुआ, वह मोदी राज में तुंग पर पहुंच गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दस सालों में संसद में मिले विपुल संख्या गरिष्ठता का उपयोग प्रधानतः सवर्ण वर्चस्व कायम करने में किया है. इस क्रम में वर्ग संघर्ष का ऐसा इकतरफा खेल खेला है जिसकी नई सदी में कोई मिसाल ही नहीं हैः दुनिया में कहीं भी सुविधाभोगी वर्ग के हित में ऐसी नीतियां ही नहीं बनीं. सवर्ण हित में इकतरफा नीतियां बनाते देख सवर्णों का हर तबकाः छात्र और उनके अभिभावक, साधु संत, लेखक,पत्रकार, सेलिब्रिटीज और धन्ना सेठ स्ववर्गीय हित को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार के समर्थन सर्वशक्ति से सामने आयाः उसका समर्थन आज भी अटूट है!

इसके लिए पूरी तरह जिम्मेवार रहे बहुजनवादी नेता
जिस तरह सवर्णों का विविध तबका अपने वर्गीय हित में चैंपियन सवर्णवादी भाजपा के पक्ष में आया, वैसा वंचित बहुजनों के साथ नहीं हुआ. इसके लिए पूरी तरह जिम्मेवार रहे बहुजनवादी नेता, जिसमें कांशीराम और लालू प्रसाद जैसे डायनामिक लोगों को भी शामिल किया जा सकता है. जीवन भर अभावों में रहे बहुजन नेता सत्ता में आने के बाद घपला-घोटालों सहित ढेरों कमियों का ऐसा शिकार हो गए कि सवर्णवादी भाजपा के खिलाफ कमर कसने का नैतिक बल ही खो दिए. लेकिन खास- खास जातियों का ठेकेदार बने बहुजनवादी नेताओं की सबसे बड़ी कमी रही, उनकी आर्थिक सोच !आज भी ये आर्थिक सोच के लिहाज से बीसवीं सदी में वास कर रहे है. आर्थिक सोच की अपंगता के चलते ये नौकरियों में आरक्षण, प्रमोशन में आरक्षण, न्यायपालिका में आरक्षण से आगे वंचितों को कोई सपना ही न दे सके! अगर इन्होंने सामाजिक न्याय के नाम पर सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों, प्रोमोशन और न्यायपालिका में आरक्षण से आगे बढ़कर सप्लाई,डीलरशिप, ठेकेदारी, पार्किंग, परिवहन, पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि में जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी लागू करने सपना दिया होता,वंचित बहुजनों में शक्ति के समस्त स्रोतों में हिस्सेदारी की उग्र चाह ( एसपिरेशन) पैदा होती,फिर वे अपने अपने जाति के नेताओं को जिताने के बजाय व्यापक हित में एक वर्ग के रूप में  वोट करते और स्थितियां बदल जातीं. घपला-घोटालों में घिरे बहुजनवादी नेता आज जो सवर्ण वर्चस्व है,उसका सद्व्यवहार कर तमाम प्रतिकूलता के मध्य भी बेहद आसानी से सवर्णवादी सत्ता का अंत कर सकते हैं, पर, बाधक बनी हुई उनकी आर्थिक सोच! भारत में जो भयावह सवर्ण वर्चस्व कायम हुआ है,उससे देश में उस सापेक्षिक वंचना ( रिलेटिव डेरिवेशनस) के एक्सट्रीम पर पहुंचने के अभूतपूर्व हालात पैदा हो गए है, जो सापेक्षिक वंचना क्रांति की आग में घी का काम करती है. सापेक्षिक वंचना के जो हालात आज भारत में हैं,वैसे हालात न तो फ्रांसीसी क्रान्ति पूर्व रहे और न ही रूस की वोल्सेविक क्रांति पूर्व! अगर बहुजन नेताओं के आर्थिक समझ के साथ नैतिक बल होता, आज का सवर्ण वर्चस्व खुद सवर्णों के लिए खौफ का सबब बन जाता! कैसे ! इसे जानने के लिए दुनिया में जो क्रांतिकारी आन्दोलन हुए, उसके कारणों के पृष्ठ में जाना होगा !
इन आंदोलनों के उद्गम के पीछे कौन से कारण क्रियाशील रहे
दुनिया में सामाजिक परिवर्तन के लिए जो क्रांतिकारी आंदोलन हुए, उन आंदोलनों की प्रेरक शक्तियां कौन सी रहीं? इन आंदोलनों के उद्गम के पीछे कौन से कारण क्रियाशील रहे, इसकी खोज करते हुए समाज विज्ञानियों ने तीन सिद्धांत विकसित किए : एक ‘तनाव सिद्धांत’ (स्ट्रैन थ्योरी), दो, पुनर्निर्माण का सिद्धांत (रेविटलाइजेशन थ्योरी) और तीसरा सापेक्षिक वंचना. इनमे तीसराः सापेक्षिक वंचना ज्यादे मान्य हुआ, जिसके अगुआ रहे मर्टन. मर्टन ने आंदोलनों की प्रेरक शक्ति के रूप मे सापेक्षिक वंचना (रिलेटिव डिप्राइवेशन) को सर्वाधिक गुरुत्व दिया. इनके विचार से यह समाज मे पनपी सापेक्षिक वंचना है, जो क्रांति की आग में घी का काम करती है. सापेक्षिक वंचना के सिद्धांत को उसके मूल रूप मे ‘अमेरिकन सोल्जर’(1949) में देखा जा सकता है. इस पुस्तक के प्रकाशित होने के बाद मर्टन ने इसकी तथ्य सामग्री के आधार पर 1950 मे सापेक्षिक वंचना के सिद्धांत को जनसमक्ष प्रस्तुत किया. उन्होंने इस सिद्धांत के माध्यम से सामाजिक गतिशीलता (सोशल मोबिलिटी) का विश्लेषण किया. उन्होंने बताया कि दूसरे लोगों और समूहों के संदर्भ मे जब कोई समूह या व्यक्ति किसी वस्तु की प्राप्ति में वंचित हो जाता है तो वह सापेक्षिक वंचना है. दूसरे शब्दों मे जब अन्य लोग वंचित नहीं हैं तो दूसरा व्यक्ति या समूह वंचित क्यों रहे? यह वंचित्तता दूसरों के संदर्भ मे है. इसी कारण इसे सापेक्षिक वंचना कहते हैं. अमेरिका के संबंध मे सापेक्षिक वंचना वह है, जिसमें लाभ का बहुत बड़ा हिस्सा गोरे प्रजाति को मिल जाता है और काले लोग इससे वंचित रह जाते हैं, जबकि प्रजातान्त्रिक वयस्था में लाभ लेने के सारे अवसर : गोरे-काले दोनों के लिए समान रहे. भारत की गणतांत्रिक व्यवस्था में सवर्ण और दलित बहुजन दोनों को समान असवर हैं, पर, लाभ सवर्णों को मिल जाता है, जिससे दलित-बहुजन सापेक्षिक वंचना की श्रेणी मे आते हैं. सारी दुनिया में मानव समुदायों के मध्य संघर्ष मुख्यततः शक्ति के स्रोतों आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक-धार्मिक-के असमान बंटवारे को लेकर होता रहा है. शक्ति के स्रोतों में वंचना के शिकार लोगों में जब यह अहसास पनपता है, तभी जाकर शोषक और वंचितों के मध्य संघर्ष होता हैः मुक्ति की लड़ाई होती है!

फिल्म व मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्जा सवर्ण का है
सापेक्षिक वंचना का यही अहसास बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिका के कालों मे पनपा, जिसके फलस्वरूप वहां 1960 के दशक में दंगों का सैलाब पैदा हुआ, जो परवर्तीकाल में वहां डाइवर्सिटी अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण लागू होने का सबब बना. दक्षिण अफ्रीका में सापेक्षिक वंचना का एहसास ही वहां के मूलनिवासियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया, जिसके फलस्वरूप भष्म हो गई 8-9 आबादी वाले सवर्णों जैसे उन गोरों की तानाशाही सत्ता,जिनका वहां के शक्ति के स्रोतों पर 90 प्रतिशत के आसपास कब्जा रहा. लेकिन आज भारत में तत्कालीन अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका की तुलना मे सापेक्षिक वंचना के एहसास के उभरने के कहीं ज्यादा आधार हैं. क्योंकि आज भारत के सवर्णों का दुनिया के अन्यान्य प्रभुत्वशाली वर्गों की तुलना में बहुत ज्यादा कब्जा हो गया है. आज यदि कोई ध्यान से देखे तो साफ दिखेगा कि मेट्रोपॉलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में जो छोटे-बड़े मॉल हैं, उनमें 90 प्रतिशत से भी कहीं ज्यादा दुकानें सवर्णों की है. चार से आठ-दस लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्ही की हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अखबारों से लेकर तमाम चैनल्स इन्हीं के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्जा इन्हीं का है. संसद-विधानसभाओं में वंचित जातियों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीकठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजाम पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों के हैं. संक्षेप में आज की तारीख में शासन- प्रशासन, उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया, धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा न तो किसी भी काल में दुनिया के किसी भी देश के समुदाय विशेष का रहा है और न ही आज है. ऐसे में आज भारत में सामाजिक वंचना के तुंग पर पहुँचने लायक जो आधार हैं, उसका सद्व्यवहार कर दुनिया के किसी भी देश में वोट के जरिए लोकतान्त्रिक क्रांति घटित हो गई होती. लेकिन भारत में नहीं होता दिख रहा है तो उसके ऐतिहासिक कारण है!

धर्माधारित वर्ण-व्यवस्था मुख्यतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रहीं
भाजपा जिस सनातन/हिन्दू धर्म का उत्तोलक है, उस हिन्दू धर्म का प्राणाधार वर्ण-व्यवस्था रही है. धर्माधारित वर्ण-व्यवस्था मुख्यतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रहीं. वितरणवादी वर्ण- व्यवस्था में शक्ति के समस्त स्रोत सिर्फ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग-मुख, बाहु, जंघे-से जन्में लोगों के लिए आरक्षित रहे. इसमें धर्मादेशों द्वारा शक्ति के समस्त स्रोतों का भोग दलित, आदिवासी और पिछड़ों के लिए अधर्म घोषित रहे. शक्ति के स्रोतों के भोग पर शुद्रातिशूद्रों को इहलोक में राजदंड तो परलोक मे नरक का सामना करना पड़ता था. हिन्दू धर्मादेशों के जरिए दैविक गुलाम(डिवाइन स्लैव) मे तब्दील किए गए समुदाय धर्मादेशों की अवहेलना न कर सकें. फलस्वरूप हिन्दू धर्म के सौजन्य से धीरे दृधीरे उनके मन से चन्द्रगुप्त मौर्य का उत्तरसूरी, ब्राह्मणों की भांति ज्ञान के एकाधिकारी, क्षत्रियों की भांति हथियार स्पर्श और वैश्यों की भांति उद्योगपति-व्यवसायी बनने की भावना कपूर की भांति उड़ा दी गई. इस तरह शुद्रातिशूद्र हमेशा के लिए ऐसे महत्वाकांक्षाहींन (लैक्स ऑफ ऐसपिरेशन्स) समुदाय मे तब्दील हो गए, जिनमें शासक, राजा, व्यापारी, लेखक-पत्रकार और किसी धाम का शंकराचार्य होना तो दूर किसी मंदिर के पुजारी तक बनने की महत्वाकांक्षा न पनप सकी. ऐसे महत्वाकांक्षाहींन समुदाया में कांशीराम ने शासक बनने की महत्वाकांक्षा पैदा कर एक चमत्कार घटित कर दिया. किन्तु नई सदी में कांशीराम के सौजन्य से शासक बनने की भावन तो जरूर पनपी पर, मीडिया स्वामी, सप्लायर, डीलर, ठेकेदार, किसी स्टूडिओ का मालिक, किसी धाम का शंकराचार्य तो दूर किसी मंदिर का पुजारी इत्यादि बनने तक की महत्वाकांक्षा पैदा न हो सकी. लेकिन शासक बनने से आगे बढ़कर दलित, आदिवासी,पिछड़े और इनसे धर्मांतरित तबकों में शक्ति के समस्त स्रोतों में संख्यानुपात में हिस्सेदारी की चाह पनपे, इस दिशा में डाइवर्सिटी समर्थक लेखकों ने एक अभियान चलाया, जिसके फलस्वरूप न सिर्फ वंचित जातियों मे कुछ-कुछ सप्लायर, डीलर, ठेकेदार इत्यादि बनने की चाह पनपी, बल्कि केंद्र सहित कई सरकारों ने उनके अभियान से प्रभावित होकर दलित पिछड़ों को ठेकों, डीलरशिप, सप्लाई, पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि में आरक्षण भी दिया. किन्तु सामाजिक न्यायवादी दलों के नेताओं को डाइवर्सिटीवादी बुद्धिजीवियों का प्रयास नहीं के बराबर स्पर्श किया और वे सत्ता में भागीदारी के साथ आरक्षण बचाने, न्यायपालिका, निजी क्षेत्र और प्रमोशन इत्यादि में आरक्षण दिलाने तक खुद को सीमित रखे तथा मोदी-राज में उपजी सापेक्षिक वंचना के सद्व्यवहार की दिशा में कोई प्रयास ही नहीं किए. सापेक्षिक वंचना के सदुपयोग करने का शऊर न होने के कारण सामाजिक न्यायवादी दलित-पिछड़े नेता मोदी- राज मे पनपी अभूतपूर्व सापेक्षिक वंचना का सदुपयोग करने मे बुरी तरह चूक गए. मोदी जिस तरह मंदिर आंदोलन से मिली राजसत्ता का उपयोग जुनून के साथ सरकारी कंपनियों को बेचने और आरक्षण के खात्मे में करते रहे, उसे देखते हुए सामाजिक न्यायवादी नेता अगर 2019 मे ही दलित,आदिवासी,पिछड़ों और इनसे धर्मांतरित लोगों को नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, मीडिया, मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि सभी क्षेत्रों मे संख्यानुपात में हिस्सेदारी दिलाने के मुद्दे पर चुनाव को केंद्रित किए होते : भाजपा 2019 में ही सत्ता से दूर हो गई होती!
किन्तु सामाजिक न्यायवादी दलों की उदासीनता को देखते हुए कांग्रेस ने मोदी राज में पनपी सापेक्षिक वंचना के सदुपयोग का मन बनाया और फरवरी, 2023 में रायपुर के अपने 85वें अधिवेशन मे सामाजिक न्याय का पिटारा खोलने के बाद कर्नाटक चुनाव को सामाजिक न्याय पर केंद्रित कर भाजपा को बुरी तरह शिकस्त दे दिया. कर्नाटक चुनाव के दौरान कोलार में राहुल गांधी ने कांशीराम के नारे-जिसकी जितनी आबादी- उसकी उतनी हिस्सेदारी-का नारा उछालाः उसके बाद वह पीछे मुड़कर नहीं देखे. राहुल गांधी कांशीराम के भागीदारी नारे को सिर्फ सत्ता में भागीदारी तक सीमित न रखकर हर क्षेत्र मे भागीदारी तक प्रसारित करने के साथ मोदी राज की सापेक्षिक वंचना के सद्व्यवहार के लिए भारत जोड़ों न्याय यात्रा के जरिए सड़कों पर उतर गए. सड़कों पर उतर कर वह 73 प्रतिशत वालों से जो लगातार सवाल करते गए कि बताओं देश मे जो 200 कंपनियां हैं, मीडिया और अखबार, प्राइवेट यूनिवर्सिटियां हैं, उनमें कितनों के मालिक और मैनेजर तुम्हारे लोग हैं ? उन्होंने मणिपुर से बिहार तक इन्हीं सवालों के जरिए वंचितों मे उस सापेक्षिक वंचना को उभारने का भारत के इतिहास में अभूतपूर्व प्रयास किया जो सापेक्षिक वंचना सामाजिक बदलाव की सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति है. राहुल गांधी द्वारा सापेक्षिक वंचना के उभारने का असर लोकसभा 2024 में दिखा, जिसमे भाजपा के 400 पार जाने का मंसूबा विफल हो गया. इसके पीछे सापेक्षिक वंचना के प्रसार की ही बड़ी भूमिका है. बहुजनवादी नेता सापेक्षिक वंचना के इम्पैक्ट को जानते हुए भी ,इसके सद्व्यवहार में आज भी आगे नहीं आ रहे हैं. ऐसे में ले देकर राहुल गाधी पर उम्मीद टिक जाती है. अगर वह सापेक्षिक वंचना के मुकम्मल सद्व्यवहार से चूक जाते हैं,फिर सवर्ण वर्चस्व सुदीर्घ काल तक चलेगा, जिसमे 92.5þ वंचित आबादी उस स्टेज में जाने के लिए अभिशप्त होगी, जिसमें बने रहने का निर्देश हिन्दू धर्मशास्त्र देते हैं.‘

( लेखक डाइवर्सिटी फॉर इक्वालिटी ट्रस्ट के संस्थापक अध्यक्ष हैं)

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