NDA Crisis in Bihar: बिहार का एनडीए गठबंधन टेंशन में है। इसका मुख्य कारण है कि जिस तरह से अहंकार में उधर मोदी यह कहता जा रहे थे कि इस बार 400 पार। इस अहंकार के राग में राग अलापते हुए बिहार एनडीए के नेता भी यह कहता जा रहे थे कि इस बार हम 40 में 39 नहीं, बल्कि 40 में 40 सीटें जीत लेंगे।
अलखदेव प्रसाद ’अचल’
न्यूज इंप्रेशन
Bihar: बैसे अगर इंडिया गठबंधन की बात की जाए, तो पूरे देश में ही टेंशन बढ़ा हुआ दिखाई पड़ रहा है, परंतु हम बात करेंगे बिहार एनडीए की, तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि बिहार का एनडीए गठबंधन टेंशन में है। इसका मुख्य कारण यह है कि जिस तरह से अहंकार में उधर मोदी यह कहता जा रहे थे कि इस बार 400 पार। इस अहंकार के राग में राग अलापते हुए बिहार एनडीए के नेता भी यह कहता जा रहे थे कि इस बार हम 40 में 39 नहीं, बल्कि 40 में 40 सीटें जीत लेंगे। परन्तु बिहार में जिस तरह आम जनता उनको धूल चटाती नजर आ रही है, उससे मोदी के मुंह से अबकी बार, 400 के नारे गायब होने लगे हैं। जो उनके टेंशन को ही दर्शाता है। जब 2024 के लोकसभा का प्रथम चरण का मतदान खत्म हुआ और जो रुझान सामने आया। उसी दिन से एनडीए गठबंधन के नेताओं का टेंशन बढ़ने लगा है, जो आज भी कम होने का नाम नहीं ले रहा है। अभी तक तीन चरणों का मतदान खत्म हो गया। चौथे चरण का मतदान हो रहा है। जिसमें अभी तक का जो रुझान सामने आ रहा है। उसके अनुसार एनडीए गठबंधन से इंडिया गठबंधन कहीं आगे निकलता हुआ दिखाई दे रहा है। जो एनडीए के नेताओं के लिए टेंशन का कारण बनता जा रहा है। भले ही एनडीए के नेता डींग हांकते जा रहे हैं। लेकिन मन ही मन वे भी सोच रहे हैं कि बिहार में एनडीए का क्या होने वाला है। एनडीए उम्मीदवारों को काफी कुछ भरोसा मोदी मैजिक पर था, परन्तु कहीं भी मोदी मैजिक काम नहीं आता दिखाई पड़ रहा है।
हो चुका है एहसास, बिहार में है हम बहुत पिछड़ने वाले अगर एनडीए गठबंधन के नेताओं का टेंशन बढ़ा नहीं होता, तो बार-बार देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दौड़-दौड़ कर बिहार आना नहीं पड़ता। खासकर भाजपा के शीर्ष नेताओं में गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, राजनाथ सिंह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बिहार दौड़ लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। यह सब कुछ दर्शाता है कि उनलोगों को भी यह एहसास हो चुका है कि बिहार में हम बहुत पिछड़ने वाले हैं। इन बातों को इसी से समझा जा सकता है कि भाजपा के जो सांसद व पूर्व मंत्री रवि शंकर प्रसाद इतने कद्दावर नेता माने जाते रहे हैं, उनके बारे में बीजेपी वाले बताते हैं कि उन्होंने अपने क्षेत्र में काफी विकास किया है। भाजपा के लिए पटना साहिब की सीट को सुरक्षित सीट माना जाता रहा है। फिर उनके ही क्षेत्र पटना साहिब में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रोड शो करने की जरूरत क्यों पड़ गई? उनके साथ हाथ में हाथ मिलाकर नीतीश कुमार को साथ देना क्यों पड़ गया? आखिर जब इतना विकास किया ही था, तो फिर भाजपा के नेताओं को बार-बार दौड़कर बिहार आने की क्या जरूरत थी?
एनडीए को अगर टेंशन बढ़ा है, तो विपक्षियों का मनोबल इस संदर्भ में आम लोग भी यह समझने लगे हैं कि सिर्फ फेंकने से जनता को सुख-सुविधा नहीं मिलती है। जब जमीन पर कोई विकास नहीं दिखाई दे रहा है, तो फिर प्रधानमंत्री से लेकर गृह मंत्री तक जो सिर्फ फेंकने का काम करते हैं, उससे हम आम जनता को क्या होने वाला है? इसका खामियाजा तो एनडीए को भुगतना ही पड़ेगा। एनडीए को अगर टेंशन बढ़ा हुआ है, तो उसके विपक्षियों का मनोबल काफी बढ़ा हुआ है। अगर एनडीए गठबंधन को टेंशन बढ़ा हुआ है, तो उसके उनके अपने भी कारण हैं। भले ही वह कारण उन्हें नहीं दिखाई पड़ता हो, वह बात अलग है। पिछले 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ नीतीश, और चिराग पासवान एक साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। जहां भाजपा के ही कई नेता लोजपा में शामिल होकर, जहां-जहां जदयू के उम्मीदवार खड़े थे, वहां-वहां से चुनाव लड़ने का काम किया था और स्वयं जीतने से अधिक जदयू के उम्मीदवारों को हराने का काम किया था। उसके बारे में यह कहा जाता है कि सब कुछ भाजपा के द्वारा एक सुनियोजित साजिश का परिणाम था। जिसका परिणाम यह निकला था कि नीतीश कुमार के जदयू को महज 43 सीटों पर सिमट कर रह जाना पड़ा था। 2024 के लोकसभा चुनाव फिर इन्हीं लोग मिलकर भले लड़ रहे हैं, परंतु 2020 के भाजपा के कारनामे को भुला नहीं पा रहा है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में यह देखने के लिए मिल रहा है कि नीतीश कुमार की जाति के ही लोग जहां चिराग पासवान के उम्मीदवार हैं, वहां नीतीश कुमार के कहने पर भी अपने गठबंधन के उम्मीदवार को वोट नहीं दे पा रहे हैं। जिसके लिए कहा जा रहा है कि वे 2020 के विधानसभा चुनाव का बदला ले रहे हैं। कमोवेश उस जाति का और जदयू के समर्पित कार्यकर्ताओं का आक्रोश भाजपा के प्रति भी है। क्योंकि वे भूल नहीं सके हैं कि इसी भाजपा के इशारे पर 2020 के विधानसभा चुनाव में हम लोगों की दुर्गति हुई थी। उसका बदला लेने का यही सुनहरा अवसर है। इसीलिए या तो जदयू के कार्यकर्ता भाजपा के उम्मीदवारों के प्रति एग्रेसिव होकर वोट नहीं कर पा रहे हैं या फिर उन्हें भीतर ही भीतर चाहते हैं कि किसी तरह से हार जाता। और तो और, भाजपा ने जिस सम्राट चौधरी को बिहार प्रदेश का अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री बनाकर तथा रालोमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा को अपने गठबंधन में मिलाकर वोट साधने की कोशिश की, वह पूरी तरह से असफल साबित हुआ। फलस्वरूप सम्राट चौधरी और उपेंद्र कुशवाहा को अपनी ही जातियों पर इस चुनाव में कोई असर नहीं पड़ रहा है।जबकि प्रत्येक क्षेत्र में इस जाति की काफी संख्या है।
भाजपा ने सवर्णो को दी अधिकाधिक सीटें दूसरे भाजपा ने सवर्णों को अधिकाधिक सीटें दी है। जबकि उनकी जनसंख्या महज 10-11 प्रतिशत ही है। जातीय जनगणना का असर यह हुआ कि दलित और पिछड़ों में भाजपा के प्रति इस बात को लेकर नाराजगी है कि जब अधिक उम्मीदवार सवर्णों को बनाई है, तो वोट हमलोग क्यों देने जायेंगे? वैश्य समाज जिनका जुड़ाव पहले से ही भाजपा से रहा था, उन्हें भी भाजपा ने मात्र एक ही सीट दे सकी।इसकी नाराजगी भी देखी जा रही है और चुनाव पर प्रतिकूल असर देखा जा रहा है। इसे नकारा नहीं जा सकता है कि जहां भी भाजपा के सवर्ण उम्मीदवार हैं, वहां अगड़ा बनाम पिछड़ा की लड़ाई हो गई है। वैसी स्थिति में एनडीए को मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है। लोगों का मानना है कि एनडीए सरकार अगर ई वी एम में खेल नहीं कर सकी, तो बिहार में उसे निश्चित रूप से मुंह की खानी पड़ेगी। इन्हीं के बीच विपक्षियों का मनोबल इसलिए बढ़ता जा रहा है कि आम जनता का उन्हें काफी साथ मिल रहा है। कहीं -कहीं क्षेत्र में अप्रत्यक्ष रूप से जद यू का भी सहयोग मिल रहा है। अब इसका क्या परिणाम निकलेगा, वह तो 4 जून को ही पता चल पाएगा, परंतु इतना तय है कि एनडीए गठबंधन को 39 की तो बात दूर, 19 सीटों पर भी सिमट जाना पड़ सकता है।