Kanshi Ram Birthday: कैसे बचेगीः कांशीराम की बसपा!
Kanshi Ram Birthday: काशीराम ने हिंदू धर्म के जन्मजात वंचितों ( दलित, आदिवासी, पिछड़े व इनसे धर्मांतरित लोगों) के जीवन में सुखद बदलाव लाने के फुले, शाहूजी, नारायण गुरु, बाबा साहेब आंबेडकर, पेरियार इत्यादि के समाज परिवर्तनकारी विचारों व खुद की अनोखी परिकल्पना को देश के कोने-कोने तक पहुंचाने का जो अक्लांत अभियान चलाया,उससे दुनिया ने उन्हें सामाजिक परिवर्तन के अप्रतिम नायक के रूप में वरण किया.
लेखकः एचएल दुसाध
(बहुजन डायवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष)
न्यूज इंप्रेशन
Lucknow: आज 15 मार्च हैः मान्यवर कांशीराम का जन्मदिन ! 1934 में आज ही के दिन साहेब ने पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गांव को अपने जन्म से धन्य किया था. उन्होंने हिंदू धर्म के जन्मजात वंचितों ( दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मांतरित लोगों) के जीवन में सुखद बदलाव लाने के फुले, शाहूजी, नारायण गुरु,बाबा साहेब आंबेडकर, पेरियार इत्यादि के समाज परिवर्तनकारी विचारों तथा खुद की अनोखी परिकल्पना को देश के कोने-कोने तक पहुंचाने का जो अक्लांत अभियान चलाया, उससे दुनिया ने उन्हें सामाजिक परिवर्तन के अप्रतिम नायक के रूप में वरण किया. ऐसे अप्रतिम बहुजन नायक कांशीराम ने हजारों साल के दास जातियों शासक बनने की महत्वाकांक्षा भरने के साथ, जिस तरह उन्होंने वंचित बहुजन समाज के सबसे सक्षम व जागरूक लोगों को “पे बैक टू द सोसाइटी“ के मंत्र से दीक्षित किया, उसे चमत्कार के रूप में याद किया जाता है.ऐसा ही एक चमत्कार उन्होंने 14 अप्रैल, 1984 को स्थापित बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाकर किया था। कोई सोच नहीं सकता था कि कोई दलित पार्टी भी राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पा सकती है,किंतु साहेब ने अपनी अद्भुत परिकल्पना और प्रयास से यह चमत्कार भी घटित करके दिखा दिया था. लेकिन उन्होंने बसपा को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा ही नहीं दिलाया,बल्कि अपनी जीवितावस्था में ही इसकी ऐसी जमीन तैयार कर दी कि ढेरों विश्लेषक इसके उस जगह पहुंचने का कयास लगाना शुरू किये, जहां आज भाजपा है. लेकिन ऐसे कयास भ्रांत साबित हुए और आज बसपा अपना वजूद बचाने के लिए जूझ रही है, जिसके लिए एकमेव जिम्मेवार हैं मायावती, जिन्हें कांशीराम ने अपना उत्तराधिकारी बनाया था.
मायावती के नेतृत्व में बसपा मरणासन्न अवस्था में पहुंच गई है
मायावती के नेतृत्व में बसपा जिस तरह मरणासन्न अवस्था में पहुंच गई है, उसे देखकर आम बहुजन से लेकर बड़े-बड़े राजनीति विज्ञानी तक स्तब्ध हैं. ऐसा इसलिए कि जो बसपा देश के राजनीति की दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश में चार बार सत्ता में रही, वह 2022 में सिर्फ एक विधायक ही जिताने में सफल रही. इसके लिए जिम्मेवार रही मायावती की रणनीति और कार्यशैली! लेकिन जिस मायावती की रणनीतिक बदलाव पर बसपा का भविष्य टिका हुआ है, वह मायावती अपनी रणनीति और कार्यशैली में कोई बदलाव लाएंगी, इसमें बसपा की राजनीति पर पैनी नजर रखने वालों को काफी संदेह है. 2024 के चुनाव में अबतक कि उनकी भूमिका को देखते हुए,यह संदेह और गहरा रहा है। राजनीति शास्त्र के एक प्राइमरी लेवल के जानकर तक को पता है कि मायावती यदि इण्डिया गठबंधन के साथ जाती हैं तो न सिर्फ बसपा में नई जान आ जायेगी, बल्कि उनके खुद के पीएम बनने की संभावना भी उजागर हो सकती है। लेकिन उनकी चाल ढाल को समझने वाले ढेरों लोगों का मानना है कि वह अज्ञात कारणों से 2024 में पार्टी में नई जान फूंकने का मिल रहे अवसर का सद्व्यवहार करने में कोई रुचि नहीं लेंगी. ऐसा कयास लगाने का कारण यह है कि 2009 के लोकसभा चुनाव से चुनाव दर चुनाव बद से बदतर परिणाम आने के बावजूद उन्होंने बसपा में जान फूंकने के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठायाः वह दिखाने के लिए सांगठनिक स्तर पर छोटे मोटे बदलाव करके ही संतुष्ट रहीं!
साहेब कांशीराम के भागीदारी दर्शन की निरंतर अनदेखी
2007 में शिखर पर पहुँचने के बाद जिस तरह बसपा नेतृत्व ने बहुजन से सर्वजन की ओर विचलन करने के साथ ही शक्ति के स्रोतों में साहेब कांशीराम के भागीदारी दर्शन की निरंतर अनदेखी किया, उसका कुफल लोकसभा चुनाव-2009 से ही सामने आना शुरू हो गया. 2007 में यूपी विधानसभा चुनाव में 30.43 प्रतिशत वोट पाने वाली बसपा 2009 के लोकसभा चुनाव में 27.20 प्रतिशत वोट पाई, जिसमें 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में और गिरावट आई. 2007 में 30.43 प्रतिशत वोट पाने वाली बसपा का वोट 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में गिरकर 25.91 तक पहुँच गया, किन्तु मायावती की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा, जिसका भयावह परिणाम दो साल बाद लोकसभा चुनाव में सामने आया. 2014 में बसपा का वोट प्रतिशत फिसल कर 19.17 पर आ गया और 2009 के 20 सीटों के मुकाबले 2014 में सीटों की संख्या शून्य पर पहुँच गयी. 2003 में शारीरिक अस्वस्था के कारण चिरकाल के लिए राजनीतिक रूप से निष्क्रिय होने वाले साहेब कांशीराम बसपा को ऐसी पुख्ता जमीन सुलभ करा गए थे, जिस पर केन्द्रीय सत्ता का महल विकसित हो सकता था. ऐसी पार्टी के सीटों की संख्या 2014 में शून्य पर पहुँचने के बाद मायावती को अपनी कार्यशैली में व्यापक बदलाव लाते हुए, महल छोड़ सड़क पर उतर जाना चाहिए था. लेकिन वह इससे पूरी तरह निर्लिप्त रहीं. और बसपा की इस स्थिति से चिंतित बहुजन बुद्धिजीवियों द्वारा लगातार सावधान किये जाने के बावजूद वह इसकी अनदेखी करती रहीं, जिसका चरम दुष्परिणाम यूपी विधानसभा चुनाव 2017 में सामने आया. यूपी विधानसभा चुनाव 2012 में 25.91 प्रतिशत वोट और 80 सीटें पाने वाली बसपा 2017 के यूपी विधानसभा में 21 प्रतिशत वोट 19 सीटों तक सिमट कर रह गयी. इस चुनाव ने स्पष्ट संकेत कर दिया पार्टी के वजूद पर संकट खड़ा हो गया है. लेकिन इससे भी मायावती जी ने कोई सबक नहीं लिया. हाँ, 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन का फैसला कर कुछ बदलाव का संकेत दिया, जिसके फलस्वरूप पार्टी शून्य से 10 सीटों तक पहुँच गयी. इससे लगा कि बसपा का वजूद बचाने के लिए अब मायावती सम्यक कदम उठाएंगी. किन्तु जल्द ही बेवजह सपा से गठबंधन तोड़ने के साथ ही सन्देश दे दिया कि वह भाजपा के बजाय सपा को बर्बाद करने में ज्यादा रूचि ले रही हैं. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 का विगुल बजने के पहले मतदाताओं को यह लग गया कि चुनाव बाद प्रयोजन पड़ने पर भाजपा के साथ मिल जाएँगी. किन्तु चुनाव में बहुत बिलम्ब से सक्रिय होने और महज 26 रैलियों तक खुद को सीमित रखने वाली मायावती मतदाताओं के मन में उठते सवाल की प्रभावी काट न पैदा कर सकीं, जिसका खामियाजा बसपा को 2022 में उठाना पड़ा. 2022 में पार्टी 1 सीट और 12.79 प्रतिशत वोट तक गिरकर संकेत दे दी थी कि कांशीराम की जिस पार्टी को भारत पर शासन करना था, वह प्रायः अतीत का विषय बनने की स्थिति में पहुँच चुकी है। यह बात सही है कि आज बसपा जिस स्टेज में पहुँच चुकी है और मायावती की जो कार्यशैली है, उससे इसे अतीत का विषय बनने से बचाना बहुत ही कठिन है. बावजूद इसके मेरा मानना है कि हिंदुत्ववादी भाजपा की आर्थिक नीतियों से भारत में सापेक्षिक वंचना के जो अभूतपूर्व हालात पैदा हो चुके हैं,उसके सद्व्यवहार करने का मन बनाने पर कोई भी पार्टी लोकतान्त्रिक क्रांति घटित कर सकती है और बसपा जैसी पार्टी के लिए तो यह और आसान है. क्रांति का अध्ययन करने वाले तमाम समाज विज्ञानियों के मुताबिक जब समाज में सापेक्षिक वंचना का भाव पनपने लगता है, तब आन्दोलन की चिंगारी फूट पड़ती है. समाज विज्ञानियों के मुताबिक, ’दूसरे लोगों और समूहों के संदर्भ में जब कोई समूह या व्यक्ति किसी वस्तु से वंचित हो जाता है तो वह सापेक्षिक वंचना है दूसरे शब्दों में जब दूसरे वंचित नहीं हैं तब हम क्यों रहें! ’सापेक्षिक वंचना का यही अहसास बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिकी कालों में पनपा, जिसके फलस्वरूप वहां 1960 के दशक में दंगों का सैलाब पैदा हुआ, जो परवर्तीकाल में वहां डाइवर्सिटी लागू होने का सबब बना. दक्षिण अफ्रीका में सापेक्षिक वंचना का अहसास ही वहां के मूलनिवासियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया, जिसमे भस्म हो गई वहां गोरों की तानाशाही सत्ता. और आज भारत के मुट्ठी भर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग की भांति संपदा-संसाधनों पर 80 से 90 प्रतिशत कब्ज़ा जमाये गोरे मूलनिवासियों की सापेक्षिक वंचना के चलते दक्षिण अफ्रीका से पलायन कर दूसरे देशों में पनाह लेने के लिए मजबूर हैं.
बसपा नेत्री मायावती को खुद में बदलाव लाते हुए तीन जरुरी करने होंगे काम
आज भारत में हजारों साल के जन्मजात विशेषाधिकारयुक्त वर्ग के प्रत्येक क्षेत्र में असीमित प्रभुत्व से यहाँ के वंचितों को अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के वंचितों से भी कहीं ज्यादा सापेक्षिक वंचना के अहसास से भर दिया है. वर्तमान भारत के बहुजनों में सापेक्षिक वंचना का अहसास जिस बिंदु पर पहुँच गया है, वैसा न तो फ्रांसीसी क्रांति पूर्व फ्रेच जनगण में पैदा हुआ था और न ही 1917 की वोल्सेविक क्रांति के पूर्व रुसी सर्वहारा में. शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया, धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सुविधाभोगी वर्ग जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में नहीं है, लिहाजा भारत के बहुजनों जैसा सापेक्षिक वंचना का अहसास भी कहीं नहीं है. हजारों साल के विशेषाधिकारयुक्त तबकों का शक्ति के समस्त(आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक और धार्मिक ) पर ही 80-90 प्रतिशत कब्जे ने बहुजनों में सापेक्षिक वंचना के अहसास को धीरे-धीरे जिस तरह विस्फोटक बिन्दु के करीब पहुंचा दिया है, उससे इवीएम में क्रांति घटित होने लायक पर्याप्त सामान जमा हो गया है. भारत में सापेक्षिक वंचना का भाव क्रान्तिकारी आन्दोलन की एक और शर्त पूरी करता दिख रहा है और वह है ‘हम-भावना’(वी-नेस) का तीव्र विकास. कॉमन वंचना ने बहुजनों को शक्तिसंपन्न वर्गों के विरुद्ध बहुत पहले से ही ‘हम-भावना’ से लैस करना शुरू कर दिया था, जिसमे आज मोदी-राज में और उछाल आ गया है। क्रान्तिकारी बदलाव में दुनिया के प्रत्येक देश में ही लेखकों ने प्रभावी भूमिका अदा किया है. मंडल के दिनों में वंचित जातियों में बहुत ही गिने-चुने लेखक थेः प्रायः 99 प्रतिशत लेखक ही विशेषाधिकारयुक्त वर्ग से थे, जिन्होंने मंडलवादी आरक्षण के खिलाफ सुविधाभोगी वर्ग को आक्रोशित करने में कोई कोर-कसर नहीं रखी. तब उसकी काट करने में वंचित वर्गों के लेखक पूरी तरह असहाय रहे. लेकिन आज की तारीख में वंचित बहुजन समाज लेखकों से काफी समृद्ध हो चुका है, जिसमे सोशल मीडिया का बड़ा योगदान है. सोशल मीडिया की सौजन्य से इस वर्ग में छोटे-बड़े हजारों लेखक -पत्रकार पैदा हो चुके हैं,जो देश में व्याप्त भीषणतम आर्थिक और सामाजिक विषमता का सदव्यवहार कर वोट के जरिये क्रांति घटित करने लायक हालात बनाने में निरंतर प्रयत्नशील हैं. ऐसे में देखा जाय तो वर्तमान भारत में जो हालात हैं, उसका सद्व्यवहार कर बसपा के लिए केंद्रीय सत्ता के करीब पहुंचना कोई बड़ी बात ही नहीं होगी. लेकिन इस हालात का सद्व्यवहार करने के लिए बसपा नेत्री मायावती को खुद में बहुत भारी बदलाव लाते हुए तीन जरुरी काम करने होंगे. सबसे पहले उन्हें कांशीराम के मिशन को पूरा करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले पुराने बसपा नेताओं को ससम्मान पार्टी में वापसी करानी होगी. दूसरे नंबर पर जिस तरह भाजपा ने अपनी हिन्दुत्ववादी छवि को धारदार बनाने के लिए मुसलमानों से दूरी बनाते हुए उन्हें टिकट देने से पूरी तरह परहेज करने की नीति अख्तियार की है, वही नीति बसपा को बहुजनवादी छवि प्रदान करने के लिए अख्तियार करने होगी. इसके लिए मायावती को सवर्णों से प्रायः पूरी तरह दूरी बनाते हुए उन्हें टिकट देने से परहेज करने की रणनीति बनानी होगी. और तीसरे नम्बर पर बहुजनों के बीच उन्हें इन 10 क्षेत्रों में कांशीराम का क्रांतिकारी आर्थिक दर्शन-जिसकी जितनी-संख्या भरी, उसकी उतनी भागीदारी-लागू करने का विश्वास दिलाना होगा.
1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की,सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों अर्थात पौरोहित्य।
2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप। 3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी।
4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन।
5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन, प्रवेश व अध्यापन।
6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि।
7-देश विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ को दी जानेवाली धनराशि।
8-प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मिडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों।
9-रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खाली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो। 10-ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधासभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि में…यदि मायावती इन तीन उपायों का अवलंबन करती है तो ढेरों कमियों सवालों के बावजूद वह न सिर्फ खुद के बूते भारत का पीएम बन सकती हैं, बल्कि कांशीराम सहित फुले, शाहूजी, पेरियार, बाबासाहेब आंबेडकर सहित उन असंख्य महापुरुषों के सपनो का भारत निर्माण भी कर सकती हैं, जिन्हें साहेब कांशीराम ने इतिहास की कब्र से बाहर निकाल कर योग्य सम्मान दिलाने का ऐतिहासिक काम किया!