Politics Drama: सवर्ण जाति के नेता कहने के लिए तो प्रत्येक राजनीतिक पार्टी में हैं, पर उनके वोट भाजपा में ही जा रहे हैं। पर लाभ सभी पार्टियों में उठा रहे हैं। वैसे सवर्ण नेता पार्टी के विकास के लिए कुछ नहीं कर पाते हैं। उन्हें पार्टी के विकास से कोई लेना-देना नहीं होता है।
अलखदेव प्रसाद ’अचल’
न्यूज इंप्रेशन
ठपींत : बहुजनों में भी कई ऐसे वरिष्ठ नेता रहें जिन्होंने स्वयं अपने स्तर से राजनीतिक पार्टी का गठन किया। उसी रुप में चलाते रहे। सरकार भी बनाई। राजनीतिक पार्टी खड़ा करना अच्छी बात है। क्योंकि पहले से जो भी पार्टियां रही, उसका नेतृत्व कमोवेश सवर्ण ही करते रहे हैं। ऐसी स्थिति में समय की मांग भी है कि बहुजन नेता भी पार्टी बनाएं और चलाएं। आखिर कब तक सवर्ण जातियों के पिछलग्गू बने रहेंगे ?उनकी कृपा पर अपनी राजनीति करते रहेंगे ? समय की मांग के तहत ही उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी, कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी, बिहार में लालू प्रसाद यादव ने राष्ट्रीय जनता दल पार्टी की स्थापना की थी। बाद में चलकर रामविलास पासवान ने राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी, उपेन्द्र कुशवाहा ने राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, जीतन राम मांझी ने हम पार्टी की स्थापना की। और कई लोग हैं, जो अपने स्तर से राजनीति पार्टी बनाकर चला रहे हैं ।चलाना चाहिए। पार्टी चलाना बुरी बात थोड़े ही है?
पार्टी चलाने वाले बहुजन मुखिया इनकी चाल को नहीं समझ पाते
परंतु व्यावहारिक रूप में देखा यही जा रहा है कि इस तरह की पार्टियां पहले तो अपनी जात को अधिक तरजीह देते हैं। ऐसे अधिकांश राजनीतिक पार्टियां हैं, जिनके राजनीतिक सलाहकार सवर्ण ही हैं। राजनीतिक पार्टी के मुखिया को भी अपने वर्ग के लोगों में वह हुनर दिखाई नहीं पड़ती।परंतु राजनीतिक सलाहकार सवर्ण को ही रखते हैं। शायद इसलिए कि उनके पास बुद्धि और राजनीतिक हैसियत और धन अधिक होते हैं। परंतु जो भी सवर्ण ऐसे लोगों के साथ होते हैं, वे अपना राजनीति स्वार्थ तो साध लेते हैं। आसानी से सांसद, विधायक व मंत्री बन जाते हैं। उनसे पार्टी को कोई खास लाभ नहीं हो पाता है। उनकी ही जाति के लोग उनकी बात नहीं मानते हैं। आज सवर्ण जाति के नेता कहने के लिए तो प्रत्येक राजनीतिक पार्टी में हैं, पर उनके वोट भाजपा में ही जा रहे हैं।पर लाभ सभी पार्टियों में उठा रहे हैं। वैसे सवर्ण नेता पार्टी के विकास के लिए कुछ नहीं कर पाते हैं। उन्हें पार्टी के विकास से कोई लेना-देना नहीं होता है। वे लोग हैं एन-केन-प्रकारेण सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ साधना चाहते हैं। पार्टी चलाने वाले बहुजन मुखिया इसी चाल को नहीं समझ पा रहे हैं। अगर समझ पाते तो गच्चा खाना नहीं पड़ता। सवर्ण नेता जब भी पार्टी के साथ होते हैं, उनका एक ही मंशा होता है कि हमें लोकसभा या विधानसभा की टिकट मिल जाए। हमें राज्यसभा या विधान परिषद में भेज दिया जाए। वे अपनी पार्टी की तरफ से बड़ी-बड़ी बातें भी करेंगे। परंतु पार्टी का जनाधार कैसे मजबूत होगा, उसके बारे में उनका कोई ध्यान नहीं रहता है? और तो और सबसे बड़ी बात यह है कि जहां से वैसे लोग टिकट लेते हैं, वहां तो उनकी जाति के लोग उन्हें वोट दे देते हैं, परंतु उनके कहने पर दूसरी जगह उनकी जाति के लोग पार्टी के किसी उम्मीदवार को वोट नहीं दे पाते हैं। फलस्वरुप पार्टी को उनसे नुकसान ही होता है।
सिर्फ अपना राजनीतिक स्वार्थ के लिए पार्टी में हैं होते बिहार में लालू जी के साथ जो भी सवर्ण नेता जुड़े रहें, उन्हें तो राजनीति लाभ मिलता रहा, वे तो सत्ता सुख भोगते रहे। जनप्रतिनिधि के रुप में उनलोगों की संख्या हमेशा अधिक रही है। यह सब उनलोगों की राजनीति चाल का परिणाम है। वे लोग पार्टी में कुछ ही लोग रहेंगे, लेकिन अच्छे पदों पर ही रहने की जुगत में रहते हैं। इसीलिए ऐसी पार्टियों में आप देखेंगे कि प्रवक्ता, सचेतक, उपाध्यक्ष, महासचिव जैसे पदों पर वे सुशोभित हैं। इधर राजद नेता तेजस्वी यादव भले ही राजद को ए टू जड का पार्टी बता रहे हैं, परंतु इस बार उन्हें अपनी पार्टी की ओर से दो लोगों को राज्यसभा में भेजना था। जिसमें एक सवर्ण को और एक अपनी ही जाति को भेजे। नीतीश कुमार की जदयू में जिन जातियों के सवर्ण नेता हैं, उन जातियों के वोट जदयू को नहीं मिलते हैं। फिर भी देखिए, ललन सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष ही रहे थे। विजय चौधरी हमेशा की पोस्ट पर ही रहे। इस बार राज्यसभा में संजय झा को ही भेजे। जबकि उन जातियों से जदयू को वोट मिलने वाले नहीं हैं। जब पिछले दिनों नीतीश कुमार पाला बदलकर महागठबंधन से इंडिया गठबंधन में चले गए, तो जिस चेतन आनंद और नीलम देवी को राजद ने टिकट देकर चुनाव जीतवाया था, उन्हें कोई पार्टी आनंद मोहन और अनंत सिंह के चरित्र को देखते हुए घास भी नहीं डाल रही थी। अगर राजद उन्हें टिकट न देता, तो वे विधानसभा का कब मुंह देखते, कहना मुश्किल था। जब वे दोनों विधानसभा के सदस्य बन गए, तो ऐन मौके पर तेजस्वी की पीठ में छूरा भोंक जाकर सत्ता पक्ष में बैठ गये। एक झटके में सब कुछ भूल गए। यहां राजद उन्हें अछूत की तरह लगने लगा।राजद दलित, पिछड़े व अल्पसंख्यकों के हित की पार्टी लगने लगी। जो साबित करता है कि वे लोग सिर्फ अपना राजनीतिक स्वार्थ के लिए पार्टी में होते हैं। जिस दिन उन्हें लगता है कि इससे अच्छा लाभ दूसरी पार्टी में, दूसरे गठबंधन में मिलेगा, तो वे पाला बदलने में देर नहीं लगाते। अगर फिलहाल की राजनीति में उत्तर प्रदेश की बात करें, तो मायावती की पार्टी तो लगता है कि बहुजनों की पार्टी है, परन्तु जिस समय बहुजन समाज पार्टी की उत्तर प्रदेश में चलती थी, उस समय भी ब्राह्मण जातियों को काफी सींटे मिलती थीं। एक ब्राह्मण नेता सतीश चन्द्र मिश्र तो डेढ़ दशक तक राज्य सभा में जाता रहा। 2019 में पहली बार सांसद बने रितेश पांडेय को लोक सभा का नेता बना दिया था। जबकि बसपा को ब्राह्मणों का बहुत शून्य मिलता रहा। अंततः बसपा आज बद से बद्तर स्थिति में पहुंच गई। आज उसका एक विधायक राजपूत जाति का था, वह भी इस बार भाजपा की तरफ चला गया और बसपा शून्य पर चली गई। मुलायम सिंह की पार्टी समाजवादी पार्टी में पिछले विधानसभा चुनाव में स्वामी प्रसाद मौर्य आए। जब उन्होंने बहुजनों की हित की बात करने लगे। रूढ़िवाद, पाखंडवाद की बात करने लगे, तो समाजवादी पार्टी के जो सवर्ण नेता पार्टी के लिए उन्हें घातक बताते रहे और अंततः उन्हें पार्टी छोड़ने के लिए विवश कर दिया। वही सवर्ण नेता इस बार के राज्य सभा के वोटिंग में भाजपा के खेमे में चले गए। समाजवादी पार्टी को उन सवर्ण नेताओं क्या मिला ? सिर्फ धोखा।
धोखा खा रहे हैं और आगे भी धोखा खाते रहेंगे। समाजवादी पार्टी में पिछले विधानसभा चुनाव से जो भी सवर्ण नेता हैं, वे तो समाजवादी पार्टी के वोट बैंक से जीत कर विधायक बन गए। अगर सरकार बनती, तो मलाईदार मंत्रालय के पद पर जरूर होते । जबकि उनकी जातियों के वोट सपा को नहीं मिले थे। फिर समझ में नहीं आता कि आम लोग तो इस बात को समझ जाते हैं, परंतु पार्टी प्रमुख नेताओं को क्यों समझ में नहीं आता। नहीं समझने की वजह से धोखा खाते रहे हैं, धोखा खा रहे हैं और इसी तरह आगे भी धोखा खाते रहेंगे। इसलिए बहुजन नेता जो खुद पार्टी चलाते हैं। उन्हें सवर्ण नेताओं से सावधान रहना चाहिए। जितना सवर्ण जाति के लोगों पर दिल लूटाते हैं, उतना दिल अगर बहुजन जातियों में अन्य पिछड़ी जातियों या दलित जातियों में दिल लूटाने लगेंगे। छोटी-छोटी पिछड़ी जातियों को भागीदारी देने लगेंगे, तो इससे कई गुना लाभ मिल सकते हैं। क्योंकि उन्हें भी लगेगा कि पार्टी में हमलोगों को भी हिस्सेदारी मिल रही है। उससे चुनाव में कई गुना छोटी-छोटी जातियों के समर्थन मिल सकते हैं, जिससे पार्टी को स्थाई रूप से लाभ मिलता रहेगा। जिससे बिना सवर्ण जातियों के सहारे भी सत्ता पर काबिज हुआ जा सकता है।