Republic Day: आखिर यह कैसा गणतंत्र?

Republic Day: क्या यह सच नहीं है कि कुछ लोग तो इसलिए गणतंत्र दिवस मनाते हैं, ताकि हमें लोग पक्के राष्ट्रवादी समझें, कुछ इसलिए मनाते हैं कि इसे सरकारी आदेश मानते हैं और कुछ लोग इसलिए मनाते हैं कि अगर हम नहीं मनायेंगे, तो हमें देशद्रोही घोषित कर दिया जाएगा।

अलखदेव प्रसाद ’अचल’

न्यूज़ इंप्रेशन

Bihar:  26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया था और भारत को गणतंत्र घोषित किया गया था। जिसके उपलक्ष्य में हमलोग आज तक गणतंत्र दिवस को एक राष्ट्रीय उत्सव के रुप में मनाते आ रहे हैं। पर क्या जनसाधारण को भी यह लगता है कि यह एक राष्ट्रीय उत्सव है ? और इसे मनाना हमारे लिए बहुत जरूरी है ? आखिर ऐसा क्यों नहीं लगता?
क्या यह सच नहीं है कि कुछ लोग तो इसलिए मनाते हैं, ताकि हमें लोग पक्के राष्ट्रवादी समझें, कुछ इसलिए मनाते हैं कि इसे सरकारी आदेश मानते हैं और कुछ लोग इसलिए मनाते हैं कि अगर हम नहीं मनायेंगे, तो हमें देशद्रोही घोषित कर दिया जाएगा। कोई इसलिए नहीं मनाता कि उसे यह एहसास होता है कि सचमुच में गणतंत्र है, इसलिए हम गणतंत्र दिवस मना रहे हैं।
शायद इसलिए एहसास नहीं होता है कि यहां की जनता ने जो आजादी का स्वप्न देखा था कि आज़ादी के बाद हमारा देश पूरी तरह से बदल जाएगा। हमारे देश में खुशहाली आ जाएगी। हमारे देश में संपन्नता आ जाएगी। देश की जनता की तकदीर बदल जाएगी।परंतु यह सब कुछ देखने के लिए मिला क्या? अगर नहीं मिला, तो इसका जिम्मेदार कौन रहा।

आजादी के बाद परिवर्तन तो जरूर हुआ

जब भारत का संविधान लागू किया गया होगा, तो निश्चित रूप से देश की जनता को यह भी बताया गया होगा कि इस संविधान में आपका कर्तव्य और अधिकार क्या है ? यह संविधान हमारे देश और यहां की जनता के लिए कितना उपयोगी है। देश के सारे क्रिया कलाप इसी संविधान से होंगे। चाहे जिस पार्टी की सरकार रहेगी, उसे इसी संविधान के अनुसार काम करना पड़ेगा। सब कुछ संविधान ही तय करेगा। संविधान यहां की जनता का आईना होगा। जिसमें सब कुछ साफ-साफ देखा जा सकेगा। परंतु ऐसा कुछ हुआ क्या? देश की आजादी के बाद पहले से कुछ परिवर्तन तो जरूर हुआ। होना स्वाभाविक भी था। कुछ खुशहाली तो आई, लेकिन क्या सभी के लिए खुशहाली आई ? आजादी के बाद देश का विकास तो कुछ जरूर हुआ, परंतु उस विकास का लाभ सभी लोगों को मिल सका क्या ? आजादी के बाद इस देश में लोगों का विकास तो हुआ, परंतु क्या सभी लोगों का विकास हुआ ? या फिर कुछ खास लोगों का ही विकास हुआ। अगर मुगल काल में, अंग्रेजी हुकूमत में ’जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ वाली कहावत चरितार्थ होती रही, तो क्या आजादी के बाद यह कहावत चरितार्थ नहीं होती रही क्या ? क्या आजादी के बाद अमीर और अधिक अमीर और गरीब और अधिक गरीब नहीं होते चले गए क्या ? जन सामान्य को, गरीब मजलूमों को जितना विकास होना चाहिए था, हो सका क्या? नहीं हो सका तो क्यों नहीं हो सका ? भारत का संविधान तो किसी के साथ भेदभाव करने नहीं गया। भेदभाव तो सरकार चलाने वाले लोगों ने किया। क्योंकि देश गोरे लोगों से तो निजात पा सका, परन्तु काले लोगों से निजात नहीं पा सका। जिसका संकेत शहीद -ए-आजम भगत सिंह और बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर ने भी किया था।

वोट बटोरते चले गए और सत्ता सुख भोगते रहे
क्या यह सच नहीं है कि आजादी के बाद जिसके हाथों में सत्ता रही। जिसके जिम्मे भारतीय संविधान को लागू करने की जिम्मेवारी थी, उन लोगों ने यहां के मजलूमों के साथ काफी भेदभाव किया। उन लोगों के लिए न देश प्रिय रहा, न यहां की आम जनता प्रिय रही, बल्कि उनलोगों के लिए सत्ता सुख प्रिय रहा। इसलिए एन-केन-प्रकारेण सत्ता से चिपके रहने के लिए जो जो कुकर्म होते हैं, करते चले गए। वर्ग के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर, जाति के नाम पर वोट बटोरते चले गए और सत्ता सुख भोगते रहे। उसका नाजायज लाभ उठाते रहे। यहां तक कि जनता को वादों की घुट्टी पिलाते रहे और संविधान की दुहाई देते रहे। तो क्या संविधान की सिर्फ दुहाई देने भर से जनता को अधिकार मिल जाते? आज भी यही सिलसिला जारी है। हास्यास्पद तो यह है कि सत्ता जिसके भी हाथ में होती है, उसकी सोच बस, वही होती है। यह ठीक है कि आजादी के बाद कांग्रेस ने कुछ अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया। जबकि इसे नकारा भी नहीं जा सकता कि कांग्रेसी हुकूमत भी आम जनता के लिए हितकर थी। उसमें भी एक ही खानदान का वर्चस्व रहा था। उसके शासनकाल में भी सत्ता के शीर्ष पर अधिकांश सवर्ण शोषक ही बैठे रहे थे। न्यायालयों में या अच्छे-अच्छे पदों पर अधिकांश सवर्ण ही बैठे थे। सरकारी नौकरियों में भी उन्हीं लोगों का वर्चस्व था। ऐसी स्थिति में संविधान का लाभ जन सामान्य को मिलता भी तो कैसे मिलता? यह संभव ही नहीं था। पर सरकार थी, तो उसे कुछ- न- कुछ तो करना ही था। कांग्रेस भी संविधान विरोधी कार्य करती रही थी। कांग्रेसी हुकूमत में पिछड़ी या दलित जाति के बड़े बड़े नेता को पिछलग्गू बनकर ही रहना पड़ता था। शहीद जगदेव प्रसाद जैसे तेज तर्रार नेता रास नहीं आ सके थे।

कथनी और करनी में आकाश पाताल का अंतर रहा

इधर भारतीय जनता पार्टी तो जनता की आंखों में यह धूल झोंक कर सत्ता में आई कि हम यहां की जनता को भ्रष्टाचार, महंगाई, कालेधन, रिश्वतखोरी आदि आदि समस्याओं से निजात दिलाएंगे। भोली-भाली जनता झांसे में आकर विश्वास भी कर ली और भारतीय जनता पार्टी को सत्ता के शीर्ष पर बैठा भी दी, परंतु किसे पता था कि उनके नेता नकाब पहन कर आए थे। जिनकी कथनी और करनी में आकाश पाताल का अंतर रहा। यही कारण रहा कि इनसे जो भी उम्मीद थी, उस पर पूरी तरह से पानी फिर गया। जनता के सामने हाथ मलने के सिवा कुछ भी नहीं बच गया। इसके बीच भारतीय जनता पार्टी के लोग यहां के लोगों को स्वयं सत्ता में बने रहने के लिए धर्म की घुंटी पिलाने लगे और राज्य दर राज्य सत्ता में आने लगे। जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने यह देख लिया कि यहां धर्म में अधिकांश लोग अंधे हो चुके हैं। इससे बाहर नहीं निकल सकते हैं, तब उन लोगों ने एक साजिश के तहत भारतीय संविधान की प्रतियां ही जलवाने लगे। संविधान की धज्जियां उड़ाने लगे। आज संसद में ही असंसदीय व्यवहार किए जा रहे हैं, असंसदीय भाषा के प्रयोग किए जा रहे हैं और स्पीकर खामोश दिख रहा है। वहीं विपक्षी पार्टी के नेताओं को सरकार की गलत नीतियों का विरोध मात्र करने पर संसद से निलंबित और बर्खास्त कर दिए जा रहे हैं। चुनाव आचार संहिता तक में संविधान को किनारे कर दिया गया है। धर्मनिरपेक्ष देश में हिंदुत्व का राग अलापा जा रहा है। मुसलमान या अन्य धर्मावलंबियों को खुलेआम गालियां दी जा रही है। गोलियों से उड़ाने की धमकियां दी जा रही हैं। गैर हिन्दुओं के प्रति नफरत की भावना भड़काई जा रही है। आखिर यह कैसा गणतंत्र है?

आंख मूंदकर समर्थन करने वाले राष्ट्रवादी
इस सरकार में तो तानाशाही चरम पर पहुंच गयी है। लगता ही नहीं है कि यहां गणतंत्र है भी। यहां तो संवैधानिक बातें करने वालों को ही यह सरकार देशद्रोही और सरकार के पक्ष में आंख मूंदकर समर्थन करने वालों को राष्ट्रवादी करार दिया जा रहा है। सरकार की मनमानी रवैए ने गणतंत्र को तार तार कर रख दिया है। सरकार एक व्यक्ति की मुट्ठी में बंधकर रह गयी है। ऐसी स्थिति में निश्चित रूप से यह सवाल उठता है कि आखिर कैसा है यह गणतंत्र और हम जो गणतंत्र दिवस के अवसर पर उत्सव मनाने में मगन हैं, उसका क्या औचित्य बच जाता है ? कि एक तरफ हम फटेहाली की वजह से सरकार को कोस रहे हैं और दूसरी तरफ उत्सव भी मना रहे हैं।

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