Declining interest in reading : किताबें पढ़ना क्या अब पुरानी बात हो रही है?

Declining interest in reading तमाम सुविधाओं और फ़ायदे के बावजूद भी आज किताबें पढ़ने के जो फ़ायदे हैं वो लोगों के ध्यान से ओझल होता जा रहा है। किताबों के उपेक्षित होने का एक बहुत बड़ा वजह ये है कि अब लोगों का अटेन्शन स्पैन बहुत छोटा हो गया है।

 

लेखक : आरएन साहनी
न्यूज इंप्रेशन
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Bokaro : किताबें पढ़ना क्या अब पुरानी बात हो रही है (Declining interest in reading) पर आलेख, पिछले साल मैं सपरिवार पूरी घूमने गया था। पूरी घूमने के बाद भुवनेश्वर घूमा। रात में पुरुषोत्तम एक्सप्रेस पकड़ना था। ट्रेन रात में ग्यारह बजे थी। अपने परिवार व बच्चों को प्रतीक्षालय में सेट करने के बाद, मैं प्लेटफ़ॉर्म पर चहलक़दमी करने लगा, क्योंकि मुझे तीन-चार घंटे का समय बिताना था। बचपन से ही यह मेरी आदत रही थी कि जब भी अपने गांव जाता था या कहीं और तो रास्ते में मिलने वाले बड़े स्टेशनों के बुक स्टॉल पर अवश्य ही जाता था। कोई ना कोई किताब जरूर  ख़रीद लाता था। पूरी सफ़र में और घर लौटने पर उसे पढ़ता रहता था। उन दिनों एएच व्हीलर एक बहुत बड़ी किताब दुकानों की शृंखला हुआ करती थी जिसका बुक स्टॉल अमूमन भारत के अधिकांश बड़े स्टेशनों पर देखा जाता था। भुवनेश्वर रेलवे स्टेशन पर भी वही मेरा चिरपरिचित एएच व्हीलर का स्टॉल दिखा। उसे देख कर मुझे ख़ुशी हुई पर अगले ही पल वह खुशी तुरंत निराशा में बदल गई। जैसे ही उस स्टॉल के क़रीब पहुंचा। उस किताब दुकान पर गिनती के कुछ किताबें और कुछ पत्रिकाएं थी, वो भी दो चार महीने पुरानी। बाक़ी पूरा स्टॉल कुरकुरे, पान पराग, गुटका का पाउच सहित अन्य चीज़ों से भरी पड़ी थी।

किताब दुकान की दुर्दशा भर दिया पीड़ा
इन पान पराग के पाउच और बहुत सारे अलग-अलग चीज़ों के बीच धूल फाँकती एकाध किताब नजर आ जाती थी। मेरा मन ग्लानि व पीड़ा से भर गया। किताब दुकान की यह दुर्दशा मुझे अंदर से दुखी व पीड़ा भर दिया। सोचने लगा उन किताब दुकान के संचालकों के सामने आजीविका की घोर संकट आ खड़ी हुई होगी, तभी तो मजबूरी में किताब की दुकान में जेनरल स्टोर्स के समान रखने की ज़रूरत इन्हें पड़ी होगी। मन अत्यंत दुखी व बोझिल हो चला था। वहीं, दो चार क़दम चल कर एक मार्बल के बेंच पर जाकर बैठ गया और उस किताब की दुकान को निहारता रहा। मन में विचारों की एक झंझावात चलने लगी। यह सब क्यों हुआ, ऐसी क्या बात हुई कि किताब दुकानों को आज ये दिन देखना पड़ रहा है?
इन सब बातों के भंवरजाल में मैं डूबता उतराता रहा। मेरे दिमाग़ में एक विचार आया, यह सब मामला पाराडाइम शिफ़्ट का मामला है, जिसे आसान शब्दों में आप कह सकते हैं कि सब कुछ बदल गया है। दूसरी बात जो बड़ी शिद्दत से मेरे दिमाग़ में चलने लगी कि दूसरी बड़ी बात है डिमांड और सप्लाई का। तब बहुत सारी बातें दिमाग़ में आने लगी कि आज दो-तीन दशक में किस तरह से लोगों के सोचने व जीने का तरीक़ा बदल गया है। हमारे रोज़मर्रा के जीवन को आधुनिक खोज किस प्रकार से पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। 

एक दौर था जब मौत पर किया जाता था टेलीग्राम
वो भी एक दौऱ था जब घर में किसी की मौत हो जाती थी तो टेलीग्राम किया जाता था, जिसमें तीन चार शब्द ही लिखा जाता था कि अगला संदेश को समझ ले। बतौर बानगी “ Moter serios come soon”  इस प्रकार के संदेशों का भी ज़माना था। दिलचस्प बात तो ये थी कि कोई टेलीग्राम आ गया तो लोग टेलीग्राम का नाम सुनकर भी औरतें रोने लगती थी। टेलीग्राम उस जमाने में मृत्यु की सूचना का पर्याय बना हुआ था। आज वो दौड़ है जब लोग घर के बाहर खड़े होकर कॉल बेल बजाने के बजाय फ़ोन कॉल किया करते हैं, इसलिए कि यह सस्ता व सुलभ हो गया है। पहले लोग रात को खाना खाने के बाद मुहल्ले में दो चार लोग यहां-वहां बैठ कर गप्पें मारा करते थे। फिर एक वैसा दौर आया, जब रात को आठ बजे या नौ बजे ही मोहल्ले में सन्नाटा छाने लगा। लोग टीवी सीरियल में चिपकने लगे। इसके बाद आ गया मोबाइल का ज़माना, लोग मोबाइल पर ही ज़्यादा समय बिताने लगे। जब जीयो का सस्ता इंटर्नेट आ गया। वहीं 3जी के जमाने में 1 जीबी में लोग 28 दिन चलाते थे तो अब डेढ़ जीबी और 2 जीबी रोज का बहुत सस्ते दामों में उपलब्ध हो गया।

टाइम पास करने का बदल गया तरीका
यहीं से बड़ा टर्निंग प्वाइंट आ गया लोगों के सोचने, काम करने व टाइम पास करने के तरीक़े में। आज हालात ये हो गया है कि यदि बच्चा रो रहा है तो मां यूटूब पर कार्टून खोल कर बच्चे को दे दिया। बच्चा भी खुश और मम्मी भी, क्योंकि अब वह बच्चा उसे तंग नहीं कर रहा है। रविवार का दिन है, अलग-अलग मोहल्ले से चार दोस्त मिले हैं, एक साथ बैठे भी हैं, पर चारों आपने अपने मोबाइल पर व्यस्त हैं। आज बच्चे की मां अपने मोबाइल पर व्यस्त है तो पिता अपने मोबाइल पर। अब कल्पना कीजिए कि बच्चा क्या करेगा या फिर सोचिए वो मम्मी और वो पापा अपने बच्चे को किस प्रकार के परवरिश दे पाएंगे?

जानकारी इंसान के अंगूली के टिप पर उपलब्ध
किताब या पत्रिका छपी हुई होती है, जिसे हमारी आंखे देखती है और हमारा दिमाग़ सोचता है अर्थात पढ़ीं हुई बातों को प्रॉसेस करता है मनन करता है। अब किसी टीवी या मोबाइल में जो कुछ भी देखता हैं, उसमें दृश्य होता है हमारी आंखों के लिए, आवाज़ हमारे कानों के लिए और उस तस्वीर में गति होती जो एकदम जीवंत होती है। ये जीवंत तस्वीरें इंसानों के दिलों दिमाग़ पर छा जाता है। ऐसे हालात में किताबें उपेक्षित होती चली जाती है। दूसरी बात यह हुई है कि इस सूचना के महासागर में कोई भी जानकारी इंसान के अंगूली के टिप पर उपलब्ध है। ना ही कोई किताब देखने की ज़रूरत, ना ही रेफरेंस बुक में ढेरों पन्ने पलटने का काम। इस बात को सब लोग महसूस ही करते हैं कि किसी शब्द के मायने ढूंढ़ने के लिए शब्दकोश के पन्नों में खोजना अब बीते जमाने की बात हो गई है। अब तो बस शब्द टाइप कीजिए और उसे मायने मोबाइल के स्क्रीन पर हाज़िर है।

नए जमाने में खोता जा रहा किताबों का अध्ययन
इन तमाम सुविधाओं और फ़ायदे के बावजूद भी आज किताबें पढ़ने के जो फ़ायदे हैं वो लोगों के ध्यान से ओझल होता जा रहा है। किताबों के उपेक्षित होने का एक बहुत बड़ा वजह ये है कि अब लोगों का अटेन्शन स्पैन बहुत छोटा हो गया है। बचपन से ही अब बच्चों का परवरिश कुछ इस प्रकार से होता है कि वह किसी भी एक चीज़ पर अधिक समय तक ध्यान दे ही नहीं पाता है। कोई भी एक चीज़ को देखा कि तत्काल वह दूसरी चीज़ों के तरफ़ वह शिफ़्ट कर जाता है। क्योंकि सब कुछ बस उसकी उंगली के इशारों पर ही तो उपलब्ध है। आज के लोगों की मनोस्थिति जिस प्रकार की बन गयी है। इस संदर्भ में एक बात को ध्यान में रखना बहुत जरुरी है। पहला कि जो चीज़ मुफ़्त में और आसानी से मिलती है, ताउम्र इंसान उसकी बड़ी क़ीमत चुकाता है। दूसरी, दुनिया में ज्ञान के सागर में मोती उन्ही को हासिल होता है जो एकाग्रता से गहराई में डुबकी लगाते हैं। बाक़ी सब तो घुटने भर पानी में इधर-उधर बस छप-छप ही करते रह जाते हैं। आज भी यह सच है कि गहरी जानकारी, जिससे जीवन में कुछ बड़ा बदलाव हो सके, इसके लिए किताबों का अध्ययन ही सबसे प्रचलित और आसान तरीक़ा है जो नए जमाने में खोता सा जा रहा है।
पर सवाल यह भी है कि कितने लोग सचमूच में गहरी जानकारी रखना चाहते हैं, उसके लिए गम्भीर अध्ययन की शौक रखते हैं। अब तो बस इतनी सोच रह गयी है कि इंसान को उतना ही पढ़ना है, उतना ही जानना है, जिससे किसी भी प्रकार से काम चल जाए। ऐसे लोग औसत दर्जे से ऊपर उठ भी नहीं पाते हैं। तभी पुरुषोत्तम ट्रेन के आने की घोषणा हो गई और मैं अपने परिवार व बच्चों के पास जाने लगा, ट्रेन आने का समय हो चुका था।
(बदलते हालात पर लेखक के अपने विचार)

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