Bokaro: Anand Marg के इतिहास में श्रावणी पूर्णिमा को दीक्षा दिवस के रूप में है मनाया जाता
Bokaro में Anand Marg प्रचारक संघ बोकारो की ओर से श्रावणी पूर्णिमा पर चास प्रभात कॉलोनी स्थित आश्रम में सामूहिक साधना ध्यान का आयोजन किया गया। आचार्य ने कहा —-श्रावणी पूर्णिमा आनन्द मार्गियों के लिये है अहम।
रिपोर्ट : आचार्य रमेंद्रानंद अवधूत
न्यूज इंप्रेशन, संवाददाता
Bokaro: Anand Marg प्रचारक संघ बोकारो की ओर से श्रावणी पूर्णिमा पर चास प्रभात कॉलोनी स्थित आश्रम में सामूहिक साधना ध्यान का आयोजन किया गया। सामूहिक साधना ध्यान के बाद आचार्य रमेंद्रानंद अवधूत ने बताया कि Anand Marg के इतिहास में श्रावणी पूर्णिमा को दीक्षा दिवस के रूप में है मनाया जाता है।
आनंद मार्ग के इतिहास से कराया अवगत
सन् 1939 की शाम, बाबा श्रीश्री आनंदमूर्ति जी की आयु तब 18 वर्ष थी, वे कोलकाता के ईश्वरचन्द्र विद्यासागर कालेज में 12वीं कक्षा में अध्ययनरत थे। बाबा प्रतिदिन अपनी दिनचर्या के अनुसार हुगली नदी के तट पर सैर करने गोधुलि काल में जाते थे और अंधेरा होने पर लौट आते थे। वह श्रावणी पूर्णिमा का दिन, बाबा सैर के दौरान ‘काशीमित्र घाट’ पर कुछ देर ठहर गये, मानों उन्हें किसी से मिलना था। चारों ओर अन्धकार छा चुका था। लेकिन कुछ ही देर में चन्द्रमा सोलह कलाओं में पूर्ण अपनी शुभ्र चांदनी की आभा बिखेरते हुये क्षितिज पर उभर आया। रात्रि के प्रथम प्रहर की कालिमा चांदनी की शुभ्र रौशनी पाकर वातावरण को चहुं ओर आलोकित कर रही थी, सबकुछ स्पष्ट दिख रहा था। हुगली नदी के जल में चांद चमक रहा था, मनोहर दृश्य।
जल स्थिर था, क्योंकि नाव का आवागमन शाम होने के पहले ही बन्द हो जाता था। चारों ओर निरवता, काशिमित्र घाट पर सन्नाटा, लेकिन बाबा उस दिन ठहरे हुये थे।
चांदनी की आभा में दिख रहा था सफेद कुर्त्ता-धोती
चांदनी की आभा में उनका सफेद कुर्त्ता-धोती स्पष्ट दिख रहा था। निरवता को चीरते हुये दिल दहला देने वाली आवाज अनायास वातावरण में गूंज उठी- ‘कौन?’ ‘ठहरो?’
बाबा प्रतिउत्तर देते हुये आवाज देकर कहते हैं- ‘कालीचरण’ आओ! ‘मैं’ कबसे तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा हूं!! कालीचरण बंदोपाध्याय ( दुर्दांत डाकू ) बाबा के सुमधुर और विश्वास भरा प्रतिउत्तर को सुनकर कुछ क्षणों के लिये ठिठक गया। विस्मय में यह सोचने लगा कि आखिर, यह कौन हो सकता है जो मेरा नाम लेकर मुझे सम्बोधित कर रहा है? मेरा तो इस दुनिया में कोई शुभचिंतक नहीं। मैंने तो आजतक सबको लूटा, प्रताणित किया और कई विरोधियों का कत्ल भी किया है। इसी उधेड़बुन में पड़े एक विशालकाय भयावह काले रंग का देहधारी मनुष्य कुछ ही क्षणों में अत्यन्त आक्रामक अंदाज में सामनेवाले का सबकुछ छीन लेने के ख्याल से बाबा के पास आ धमका। बाबा प्यार और स्नेह से उसे समीप बैठने के लिये कहा। कालीचरण बैठ गया। दोनों की वार्तालाप हुआ।
कालीचरण सब सुनकर लुढ़क गया बाबा के चरण में
*बाबा* उसके बारे में सहृदय अपनापन के साथ उसके अतीत का सबकुछ बताएं। उसके परिवार के बारे में, उसके अतीत, कुकृत्यों के बारे में आदि आदि। कालीचरण सब सुनकर अत्यन्त ही अभिभूत होकर *बाबा* के चरणों में लुढ़क गया। आंखों से अविरल अश्रु प्रवाह झरने लगा। मानों, पहली बार इस जीवन में किये गये सारे अपराधों का प्रायश्चित भाव उसे आज हुआ हो। *बाबा* उसे उठने को कहते हैं और नदी में स्नान करने को कहते हैं। कालीचरण का हृदय बदल चुका था। अब वह ढीठ और खूंखार दस्यु नहीं बल्कि एक अबोध शिशु की भांति सरल मन वाला व्यक्ति बन चुका था। वह हुगली नदी में स्नान करके *बाबा* के पास आकर बैठ गया। *बाबा* ने उसे अध्यात्म ज्ञान की ‘दीक्षा’ दी, मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया और गुरु के रूप में दक्षिणा मांगा लेकिन उसके पास उस दिन कुछ भी नहीं था गुरुदेव को दक्षिणा देने के लिये। लेकिन शुरू में *बाबा* के सान्निध्य में आने से पहले उसके मन में *बाबा* से सबकुछ लूटने का मन था। तो दक्षिणा के लिये उसके मन के असमंजस दूर करते हुये *बाबा* अपने जेब से एक रुपया का सिक्का निकालकर उसके हाथ में देते हुते कहे कि यह लो और गुरु दक्षिणा दो। वह विस्मित था। उसके मन की सभी बातें *बाबा* जानते थे यह उसे मालूम हो चुका था। अत्यन्त ही भावुक हो कर वह उस मुद्रा को दक्षिणा के रूप में बाबा को समर्पित किया और बाबा ने उसे स्वीकार किया।
कालीचरण अब बन गया कट्टर साधक
कालीचरण अब पूर्ण रूप से बदल चुका था। अब वह आतंकी या अपराधी नहीं बल्कि एक कट्टर साधक बन चुका था। इस प्रकार कालीचरण की दीक्षा आनन्दमार्ग में प्रथम दीक्षा मानी गई। इस शुभ दिन का महत्त्व है और प्रत्येक वर्ष हमलोग मनाते हैं। यही आगे चलकर ‘कालिकानन्द’ के रूप में बाबा की सेवा में सदैव समर्पित रहे। दीक्षा ग्रहण करने के उपरान्त कालीचरण के सामने जीवनयापन का प्रश्न था क्योंकि तब वह उस क्षेत्र में नहीं रह सकता था। उसके साथ उसकी बहन रहती थी जिसका व्याह करना अभी बाकी था। इसलिये आजीविका चलाने और एक सामान्य इंसान की ज़िंदगी जीने के लिये बाबा ने उसे लातेहार (झारखण्ड) में जाकर लकड़ी का काम करने को कहा था और उसने वैसा ही किया।