76th Republic Day 2025: कांग्रेस के ही नेतृत्व में ही जरूरी है : एक और स्वाधीनता संग्राम

76th Republic Day 2025: आज भारत का 76 वां गणतंत्र दिवस एक ऐसे समय में मनाया जा रहा है, जब देश में असली आजादी को लेकर बहस छिड़ी हुई है. इसका श्रेय संघ प्रमुख मोहन भागवत को जाता है, जिन्होंने 13 जनवरी को ग्वालियर में एक बयान जारी कर इस बहस को जन्म दे दिया.

एच एल दुसाध

न्यूज इंप्रेशन

Lucknow: आज भारत का 76 वां गणतंत्र दिवस एक ऐसे समय में मनाया जा रहा है, जब देश में असली आजादी को लेकर बहस छिड़ी हुई है. इसका श्रेय संघ प्रमुख मोहन भागवत को जाता है, जिन्होंने 13 जनवरी को ग्वालियर में एक बयान जारी कर इस बहस को जन्म दे दिया. उस दिन मोहन भागवत ने कह दिया कि 15 अगस्त, 1947 को देश को सिर्फ राजनीतिक आजादी मिली: असल आजादी 22 जनवरी , 2024 को राम मंदिर की प्राण- प्रतिष्ठा के दिन मिली . संघ प्रमुख के उस बयान ने राष्ट्र को स्तब्ध कर दिया और सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं का सैलाब आ गया. नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कह दिया,’ भागवत के हिसाब से अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़़ाई का कोई महत्व नहीं है. मोहन भागवत किसी और देश में ऐसे बयान देते तो गिरफ्तार हो जाते. उनके खिलाफ देशद्रोह का केस चलाया जाता.’ राहुल गांधी की प्रतिक्रिया पर लोगों का जबरदस्त समर्थन मिला.यही नहीं सोशल मीडिया ऐसे बयानों से पट गई, ’जिस आजादी के लिए भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद सहित देश के हजारों क्रांतिकारी वीर सपूत शहीद हुए; गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, टैगोर, तिलक, अंबेडकर जैसे हजारों आंदोलनकारियों ने आंदोलन किया, जेल गये ; लाखों जनता ने देशभर में धरना प्रदर्शन और सत्याग्रह किया और हजारों अनाम शहीद देश पर कुर्बान हो गये, क्या वह आजादी की लड़ाई नहीं थी? फिर मोदी अमृत महोत्सव किस आजादी का मना रहे हैं? कंगना रनौत ने तो कहा था कि आजादी 2014 में मिली, जब मोदी आए. आजादी का यह नया डेट कौन-सा हो गया? 2014 से 2024 तक देश क्या फिर से गुलाम हो गया था कि जनवरी 2024 में दुबारा आजादी मिली?’ बहरहाल मोहन भागवत के उस बयान पर कोई एक्शन नहीं लिया गया! न तो उन्हें जेल हुई और न ही देशद्रोह का मुकदमा ही चला. किंतु कुछ न होने के बावजूद बहस चल निकली कि अगर हिंदू धर्म संस्कृति के रक्षक और सवर्ण हितों का चैंपियन संघ को 22 जनवरी , 2024 को असली आजादी मिली तो बाकी का क्या हुआ ? देश में वे कौन से समूह हैं जो असली अजादी से महरूम हैं ? इस सवाल का सही जवाब गणतंत्र दिवस के तह में जाने से ही मिल सकता है! तो आइये आज इसका जवाब ढूंढें!

26 जनवरी , 1950 को संविधान लागू करने के पीछे

हम सभी जानते हैं कि भारत की आजादी के बाद के संविधान बनाने का काम शुरु हुआ, जिसे बाबा सहेब डॉ. अंबेडकर ने 26 नवम्बर, 1949 को राष्ट्र को सौंपा.किंतु इसे लागू करने की तिथी 26 जनवरी, 1950 स्थिर की गयी. 26 जनवरी , 1950 को संविधान लागू कर भारत ने ब्रिटिश शासन से मुक्ति के अपने संघर्ष को पूरा और एक नए युग का सूत्रपात किया. भारत का संविधान लागू करने के लिये 26 जनवरी को चुनकर 1930 के पूर्ण स्वराज दिवस की घोषणा को याद किया गया. स्मरण रहे 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में आजादी का जो आंदोलन चला वह 1919 तक आते –आते विश्व इतिहास का सबसे बड़ा जनांदोलन बन गया. इसके असर में आकर 1929 में भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने भविष्य में भारत को डोमिनियन का दर्जा देने की घोषणा कर दी, जिसका कांग्रेस के नेताओं ने स्वागत किया, क्योंकि वे लम्बे समय से इसकी मांग कर रहे थे. किंतु ब्रितानी जनता के दबाव में इरविन अपने वादे से मुकर गये. इससे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नाराज हो गई और उसने डोमिनियन के दर्जे की मांग छोड़कर 19 दिसम्बर, 1929 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए अपने लाहोर अधिवेशन में ऐतिहासिक ‘पूर्ण स्वराज’ ( पूर्ण स्वतंत्रता) का प्रस्ताव पारित कर दिया. वह प्रस्ताव 750 शब्दो का छोटा दस्तावेज था, जिसमें पूर्ण स्वराज या पूर्ण स्वतंत्रता का दावा किया गया था. साथ ही भारतीयों पर अंग्रेजों द्वारा किये जा रहे आर्थिक , राजनीतिक और सांस्कृतिक अन्याय को उद्‍घाटित किया गया था . इसी के परिप्रेक्ष्य में 26 जनवरी , 1930 को भारतीयों से स्वतंत्रता दिवस मनाने का अह्वान किया गया. इसके बाद भरतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अगुआई में 1947 में अजादी मिलने के समय तक 26 जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रुप में मनाया जाता रहा.परवर्तीकाल मॆं 26 जनवरी के महत्व को बरकरार रखने के लिए ही 1950 के 26 जनवरी से संविधान लागू करने का निर्णय लिया गया. इसी दिन से भारत का वह संविधान काम करना शुरु किया जिसकी उद्देश्यिका में भारत के लोगों सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुलभ कराने की घोषणा हुई:इसी दिन से आजादी के संघर्ष के दौरान भारत की जनता से किये गए वादों को पूरा करने की शुरुआत हुई थी !

भारत की आज़ादी के बाद का सपना

इस विषय में ‘आज़ादी के बाद का भारत’ नामक ग्रंथ में सुप्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चंद्र- मृदुला मुखर्जी-आदित्य मुखर्जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है. उन्होने लिखा है –‘भारत की आज़ादी इसकी जनता के लिए एक ऐसे युग की शुरुआत थी, जो एक नए दर्शन से अनुप्राणित था. 1947 में देश अपने आर्थिक पिछड़ापन, भयंकर गरीबी, करीब-करीब व्यापक तौर पर फैली महामारी, भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लंबी यात्रा की शुरुआत थी. 15 अगस्त पहला पड़ाव था, यह उपनिवेश राजनीतिक नियंत्रण में पहला विराम था : शताब्दियों के पिछड़ेपन को अब समाप्त किया जाना था, स्वतन्त्रता के वादों को पूरा किया जाना था. भारतीय राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना था तथा राष्ट्रीय राजसत्ता को विकास एवं सामाजिक रूपान्तरण के उपकरण के रूप में विकसित एवं सुरक्षित रखना सबसे महत्वपूर्ण काम था. यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय एकता को आँख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए. इसे मजबूत करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत में अत्यधिक क्षेत्रीय, भाषाई, जातीय एवं धार्मिक विभिन्नताएँ मौजूद हैं. भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते एवं जगह देते हुये तथा देश के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ में पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को और मजबूत किया जाना था.’

1929 के पूर्ण स्वराज से प्रेरित यह सपना था उस आज़ाद भारत का था , जिसे 16 अगस्त, 1947 के ही दिन से मूर्त रूप देने में जुट जाना था. पर ,गणतंत्र दिवस के 75 साल पूरा होने के बाद क्या हुआ उस सपने का और क्या है उसका वास्तविक चित्र?आज भले ही प्रधानमंत्री मोदी सामान्य भारतीयों के परिश्रम , इनोवेशन, उद्यमशीलता तथा मंगल से लेकर चन्द्रमा तक अपनी छाप छोड़ने का उच्च उद्घोष करें: देश के विश्व आर्थिक महाशक्ति बनने का दावा करे पर,हाल के वर्षों में प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों में जो तथ्य उभरकर सामने आये है, उनसे पता चलता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के रूप चिन्हित भारत विश्व के सबसे असमान देशों में से एक है. ऐसी असमानता विश्व में शायद ही कहीं और हो. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आज़ाद भारत में विविधतामय भारत के विविध सामाजिक समूहों – दलित, आदिवासि, पिछड़ों , धार्मिक अल्पसंख्यकों, सवर्णों और आधी आबादी – के मध्य अजादी के सुफल को वितरित करने का सम्यक प्रयास ही नहीं हुआ, जिसका साक्ष्य हाल के वर्षों में आई क्रेडिट सुइसे, ऑक्सफाम, विश्व असमानता रिपोर्ट, वैश्विक लैंगिक अन्तराल’, ‘वर्ल्ड हेप्पीनेस’, ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ इत्यादि की रिपोर्टों स्पष्ट रुप से मिलता रहा है. ये रिपोर्टें आँख में अंगुली करके दिखाती रही है कि आजादी के बाद शुरु हुई यात्रा में भारत के जन्मजात सुविधाभोगी सवर्णों को छोड़ कर बाकी के लिए आजादी का सुफल दूर की कौड़ी रहा है. जिन्हें इस सचाई को हजम करने में दिक्कत है वे 2024 के मई में ‘ टुवर्ड्स टैक्स जस्टिस एंड वेल्थ रि- डिस्ट्रीब्यूशन ‘ शीर्षक से आई ‘ वर्ल्ड इन इक्वालिटी लैब ‘ की रिपोर्ट पर नजर दौड़ा लें!

आजादी का प्राय: सारा सुफल सवर्णों को मिला

वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब- 2024 की रिपोर्ट में यह तथ्य उभर कर सामने आया था कि देश की संपत्ति में 89% हिस्सेदारी सामान्य वर्ग अर्थात सवर्णों की है , जबकि दलित समुदाय की मात्र 2.8 %. वहीं भारत के विशालतम समुदाय ओबीसी की देश की धन- संपदा में महज 9 % की हिस्सेदारी है.इन विविध समुदायों के आधी अबादी की धन-संपदा में हिस्सेदारी सिर्फ 3 % है. यह तथ्य बतलाता है कि 1947 में देश अपने आर्थिक पिछड़ापन, भयंकर गरीबी, करीब-करीब व्यापक तौर पर फैली महामारी, भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लंबी यात्रा की जो शुरुआत की , उसमें गैर- सवर्ण : दलित,आदिवासी, पिछड़े और धार्मिक अल्प संख्यक इत्यादि बहुत पीछे छूट गये : आजादी का लाभ उन्हें नहीं के बराबर मिला. आजादी का सारा सुफल प्राय: सवर्णों को मिला. आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स जन्मजात सुविधाभोगी के हैं. मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दूकाने इन्हीं की है. चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल प्राय इन्ही के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्ही का है. संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं. न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं नहीं है.स्मरण रहे आजादी के बाद का प्राय: सारा सुफल सवर्णों के पुरुष वर्ग को मिला है, इस वर्ग की महिलाओं मिली है सिर्फ निराशा!

आजादी के सुफल से सर्वाधिक वंचित : आधी आबादी!

भारत की आजादी का सबसे ज्यादा सुफल अगर सवर्ण पुरुषों को मिला तो इससे सर्वाधिक वंचना का शिकार जिस तबके को होना पड़ा है, वह है भारत की आधी आबादी! वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा 2006 से हर वर्ष जो ‘वैश्विक लैंगिक अन्तराल रिपोर्ट’ प्रकाशित हो रही है, उसमें साफ़ पता चलता है कि आजाद भारत में महिलाओं की स्थिति करुण से करुणतर हुए जा रही है. इसमें आर्थिक भागीदारी और अवसर, शिक्षा का अवसर, राजनीतिक भागीदारी स्वास्थ्य एवं उत्तर जीविता: 4 आधारों पर लैंगिक समानता का मूल्यांकन किया जाता है. इसकी 2021 में जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, उसमे 156 देशों में भारत का स्थान 140वें पर रहा. रिपोर्ट के मुताबिक लैंगिक समानता के मोर्चे भारत बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका , चीन से पीछे रहा. वैश्विक लैंगिक अन्तराल 2022 के मुताबिक़ भारत 146 देशों में 135 वें स्थान पर रहा, जबकि 2020 में 153 देशों में 112 वें स्थान पर रहा, जो इस बात का संकेतक है कि लैंगिक समानता के मोर्चे पर भारत की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. इसकी करुणतर स्थिति देखते हुए ‘वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट: 2020’ में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि भारत में महिलाओं को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लग सकते हैं. अब यदि आधी आबादी को पुरुषों के बराबर समानता पाने में ढाई सौ साल से अधिक लग सकते हैं तो मानना पड़ेगा कि भारत की आजादी के सुफल से सबसे ज्यादा वंचित आधी आबादी ही हुई है.

तो मोहन भागवत इसलिए असली आजादी के अहसास से खुश हैं

बहरहाल 76 वें गणतंत्र दिवस के 13 दिन पूर्व अगर मोहन भागवत ने 22 जनवरी , 2024 के राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा का हवाला देते असली आजादी को लेकर हर्ष जाहिर किया है तो इसलिए कि उन्हें संघ की स्थापना के सौंवे वर्ष में सवर्णों के शक्ति के स्रोतो – आर्थिक , राजनीतिक , शैक्षिक और धार्मिक- पर एकाधिकर के रुप में हिंदू धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा का लक्षण दिख गया है. जिसे हिंदू धर्म कहा जाता है वह बेसिकली वर्ण- धर्म है और वर्ण- धर्म बेसिकली शक्ति के स्रोतों के बँटवारे का धर्म है और इसमें शक्ति के स्रोतों के भोग के दैवीय–अधिकारी सिर्फ हिंदू ईश्वर के उत्तमांग (मुख,बाहु, जंघे ) से जन्मे लोग अर्थात सवर्ण रहे हैं.गैर- सवर्णों और स्त्रियों के लिये हिंदू धर्म का प्राणाधार वर्ण –धर्म में शक्ति के स्रोतों का भोग अधर्म रहा है ,इसलिए जिस आरक्षण के जरिए शुद्रातिशूद्रो को शक्ति के स्रोतों के भोग का अवसर मिला, उस आरक्षण के खात्मे के लिए संघ पूना- पैक्ट के जमाने से ही तत्पर रहा और आज अपने स्थापना के सौवें वर्ष में वह अपने राजनीतिक संगठन भाजपा के जरिये आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने के साथ हिंदू – ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे लोगों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार स्थापित कर हिंदू धर्म को वह प्रतिष्ठा प्रदान कर दिया है जो विगत डेढ़ हजार सालों में मुमकिन नहीं रहा. इस क्रम में उसने दलित, आदिवासी, पिछड़ों , अल्पसंख्यकों और महिलाओं को पराधींनता की स्थिति में पहुँचा दिया है. स्मरण रहे स्वाधीन और पराधीन, शासक और ग़ुलाम में मुख्य फर्क शक्ति के स्रोतों के एकाधिकार में निहित रहा है. शासक वह होता है ,जिसका शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार होत है, जबकि गुलाम शक्ति के स्रोतों से शून्य होते हैं. अगर सारी दुनिया में शासकों ने पराधीन बनाये गये लोगों को शक्ति के स्रोतों में वाजिब हिस्सा दिया होता ,दुनिया में कहीं भी स्वाधीनता संग्राम संगठित नहीं होता! गांधी के नेतृत्व में भारतीयों को आजादी की लड़ाई इसलिए लड़नी पड़ी क्योंकि मुट्ठी भर अंग्रेजों ने शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार जमा कर भारतीयों को इससे पूरी तरह महरूम कर दिया था. यही हाल नेल्सन मंडेला के लोगों का रहा. अगर भारत और दक्षिण अफ्रीका के मुट्ठी भर गोरे वहाँ के लोगों को शक्ति के स्रोतों में वाजिब शेयर दिया होते , क्या गांधी और मंडेला को अपने – अपने देश में आजादी की लड़ाई का मंच सजाना पड़ता ?

नए युग के गांधी के नेतृत्व में अपनी आजादी की लड़ाई उतरें : शुद्रातिशूद्र और आधी आबादी

यदि इस लेख में स्वाधीनता आंदोलनों के संगठित होने के पृष्ठ में बताये गये कारण सही हैं तो भरात के दलित, आदिवासी , पिछड़ों , धार्मिक अल्पसंख्यकों और आधी आबादी का संघ के खिलाफ आजादी की लड़ाई में उतरना एक अत्याज्य कर्तव्य बन गया है: यहाँ तक कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी गई लड़ाई से ज्यादा जरूरी बन गया है यह काम. पांच दिन पहले वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम की ओर से ऑक्सफाम की जो रिपोर्ट आई है उसकी चर्चा औपनिवेशिक काल में भारत के हुए शोषण के लिए हो रही है. ऑक्सफैम इंटरनेशनल की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन ने 1765 से 1900 के बीच उपनिवेशवाद के दौरान भारत से 64.82 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर निकाले, जिनमें से 33.8 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर सबसे अमीर 10 प्रतिशत के पास गए – यह इतनी राशि थी कि लंदन में 50 ब्रिटिश पाउंड के नोटों के रूप में लगभग चार बार बिक सकते थे. बहरहाल अंग्रे़जी शासन में भारतीयों का जो बेपनाह आर्थिक , राजनींतिक शोषण हुआ उसके मुकाबले संघ के राजनीतिक के शासन में दलित, आदिवासी , पिछड़ों , धार्मिक अल्पसंख्यकों और आधी आबादी का शोषण ज्यादा भयावह हो सकता है. कारण अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के शोषण के पृष्ठ में आर्थिक वैभव था: अंग्रेज शोषण के जरिए अपार धान संग्रह करना चाहते थे. लेकिन संघ के जिस शिशु संगठन: भाजपा का सत्ता पर अप्रतिरोध्य शासन कायम हुआ है, उसके लिये दलित, आदिवासी , पिछड़ों , धार्मिक अल्पसंख्यकों और आधी आबादी का शोषण धर्म – कार्य है. वह हिंदू धर्म को बचाए रखने के लिये गैर- सवर्ण और समूचे स्त्री समुदाय को शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत रखेगी. इससे आने वाले दिनों में इनकी स्थिति इतनी बदतर हो सकती है, जिसकी इतिहास में मिसाल मिलनी मुश्किल होगी . ऐसे में दलित, आदिवासी , पिछड़ों , धार्मिक अल्पसंख्यकों और आधी आबादी के लिए अपनी आजादी की लड़ाई में उतरने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है. इतिहास का सुखद संयोग कहा जायेगा कि अगर अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई में भारतीयों को महात्मा गांधी का नेतृत्व मिला तो आजाद भारत के गुलामों की मुक्ति के लिए इतिहास ने राहुल गांधी के रुप में इक्कीसवीं सदी का गांधी दे दिया है. राहुल गांधी में वही दृढ़ता है जो अंग्रेज भारत में महात्मा गांधी में दिखी थी. स्वाधीनता संग्राम को नेतृत्व देने के साथ बापू में आजादी के बाद के भारत की बेहतरी का जैसा विजन था ,स्वाधीन भारत के गुलामों की बेहतरी के लिए उससे भी बेहतर विजन आज के गांधी के पास है !

( लेखक ‘डायवर्सिटी फार इक्वालिटी’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं )

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