अजीब है ये जिंदगी
कवयित्री: क्रांति श्रीवास्तव
हक से ज्यादा न मांग
नहीं तो दिया हुआ भी छीन लेती है
अजीब है ये जिंदगी
जिंदा तो रखती है पर खुशियां छीन लेती है।
कई बार लगा
बहुत खूबसूरत, दिलनशी, अज़ीज़ है
पर पाया कि रंग बदलने की
अजीब तमीज है।
चुपचाप चलती है साथ कभी
कभी तेजी से आगे निकल जाती है
रोके नहीं रुकती वह
पथरीली राहों पर घसीटती चली जाती है।
देह लहूलुहान है
और आत्मा छलनी-छलनी
पर उसे यह दिखता नहीं
जिद थामे कहती है
चल अब और कहीं।
मिन्नतों का उस पर
होता नहीं असर,
जीवन संघर्ष की जमीन पर
खोज तू अपनी डगर।
अजीब है ये जिंदगी
जिंदा रखने के लिए
करती रहती है इधर-उधर।