आध्यात्मिक सेमिनार : आचार्य ने कहा—सत्य और तप से ही विराट पुरूष का दर्शन होगा, वे तिल में तेल की भांति व दूध में मक्खन की भांति है सर्वव्यापक 

आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के तत्वावधान में प्रभात कॉलोनी के आनंदमार्ग जागृति में प्रथम जिला स्तरीय सेमिनार में शुक्रवार से प्रारंभ हुआ। दो दिवसीय सेमिनार के पहले दिन सृष्टि के मूल कारण विषय पर प्रकाश डालते आनन्द मार्ग के वरिष्ठ आचार्य सत्याश्रयानन्द अवधूत ने कहा कि प्राचीन प्रागैतिहासिक युग से अभी तक मनुष्यों के मन में सृष्टि के मूल कारण को जानने की जिज्ञासा बनी हुई है। इसका उत्तर जानने के लिए प्राचीनकाल के लोग ऋषियों एवं ब्रह्म विदों के पास जाकर अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए प्रश्न पूछते थे- ब्रह्म क्या है ? हमारी उत्पत्ति का मूल कारण क्या है? हमारा आधार क्या है ? हमें क्यों सुख दुःख हर्ष विषाद के माध्यम से जीवन का अनुभव करते हैं? उन्हीं प्रश्नों में एक प्रश्न यह भी है कि यह सृष्टि क्या है ? इस सृष्टि का मूल कारण क्या है ? उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए ऋषि कहते हैं- ‘ ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जो शिव शक्त्यात्मक है और यह जगत उन्हीं की मानस परिकल्पना में बनी है जो आपेक्षिक सत्य है। ब्रह्म परम सत्य है। जगत में हम अनेक चीजों को पाते हैं जैसे काल, नेचर (स्वभाव ), नियति ( भाग्य ), यदृच्छा (ऐक्सीडेंट ), प्रपंच ( पदार्थ ) एवं जीवात्मा। क्या इनमें से कोई जगत का मूल कारण हो सकता है ? क्या काल जगत का मूल कारण है ? ऋषि कहते हैं कि काल जगत का मूल कारण नहीं है क्योंकि आपेक्षिक तत्व है क्योंकि काल क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना मात्र है । जहाँ मापनेवाला मन नहीं है वहाँ काल भी नहीं है। अत : काल देश और पात्र पर निर्भरशील है। अतः काल मन सापेक्ष है वस्तु सापेक्ष है।

सूर्य के कारण ही सौर वर्ष, सौर मास और सौर दिन होते हैं। चन्द्रमा के कारण ही चन्द्र वर्ष, चन्द्रमास और चन्द्र तिथि होते हैं। अत: काल सृष्टि का मूल कारण नहीं हो सकता। वह एक ऋषि के सामने दूसरा प्रश्न रखा गया कि क्या स्वभाव या नेचर विश्व का मूल कारण है ? इस पर ऋषि ने कहा कि चूँकि नेचर में कोई कर्तृभाव नहीं है, नेचर प्राकृत शक्ति का धारा प्रवाह मात्र है, सृष्टि लीला का धारा प्रवाह है। नेचर के आधार पर ही प्राणियों के स्वभाव का निर्धारण होता है जिसे विज्ञान या जड़ सिर्फ सत्व, रज और तम तीन गुणों का मात्र प्रवाह संचर – प्रतिसंचर कालीन गति तरंग ही नेचर है। अतः यह वस्तु का धर्म निर्धारक हो सकता किन्तु विश्व का मूल कारण नहीं हो सकता है। जब तीसरा प्रश्न ऋषि से पूछा गया कि तब क्या नियति या भाग्य विश्व का आदि या मूल कारण है ? ऋषि कहते हैं कि नहीं, वह भी नहीं है। क्योंकि पात्र या व्यक्ति के कर्म करने के आधार पर प्रतिकर्म के रूप में उसका भाग्य निर्धारित होता है। भाग्य कर्म के प्रतिकर्म या संस्कार का फलभोग है।अतः यह विश्व का मूल कारण नहीं हो सकता। सृष्टि का मूल कारण ब्रह्म है, उसी ब्रह्म को जानना मनुष्य का लक्ष्य है। उन्हें स्मरण, मनन और निधिध्यासन के द्वारा जान लो।

सत्य और तप के माध्यम से ही विराट पुरूष का दर्शन होगा। वे तिल में तेल की भांति एवं दूध में मक्खन की भांति सर्वव्यापक है। उन्हें पाने के लिए यन्त्र भाव से उनकी इच्छानुसार केवल अहंकार त्यागकर कार्य करते जाना होगा। वे ही जीवों के परागति हैं। इस मौके पर जन सम्पर्क कॉर्डिनेटर आचार्य रमेंद्रानंद अवधूत सहित अन्य मार्गी मौजूद थे।

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